शौर्य काल पिछले कुछ समय में लिखे गये भारतीय इतिहास में अनेक घटनाओं तथा प्रकरणों को अवांछित रूप से सम्मान प्रदान करते हुए महत्वपूर्ण बतलाया गया है। ऐसे अनेक विवरण दिये गये है। जिनका हमारे इतिहास में अस्तित्व ही नही था और इस प्रकार कपट पूर्वक लोगों को भ्रमित तथा गुमराह किया गया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे झूठे कथन सत्य को जानने में सबसे बडी बाधा उपस्थित करते हैं। आज की हमारी अनेक इतिहास की पाठ्यपुस्तके इसी प्रकार के कपटयुक्त लेखन के वर्ग में...
अन्य राजपूत राजवंश गुर्जर चौलुक या चालुक्य वंश को सामान्य रुप से सोलंकी वंश के नाम स जाना जाता है। भीमदेव प्रथम (सन् 1022-64) अत्यधिक प्रसिद्ध था किंतु जब महमूद गजनी ने सोमनाथ पर आक्रमण किया तो वह एक डरपोक व्यक्ति की भांति अपनी जान बचाने के लिए कच्छ के सुरक्षित क्षेत्र में भाग गया। इस प्रकार उसने क्षात्र चेतना पर एक अमिट कलंक लगा दिया। इतना ही नही मूर्खता वश यह सदैव परमार भोज और कलचुरी कर्ण का भी विरोध करता रहा जो सनातन धर्म के प्रमुख संरक्षक थे...
चन्देलों की उपलब्धियां कालिंजर को राजधानी बनाकर बुंदेलखंड पर शासन करने वाले चंदेल मूलतः शूद्र थे। वे अपने शौर्य के कारण क्षत्रिय बन गये। चंदेलों में हर्षपुत्र यशोवर्मा ने अपनी उपलब्धियों द्वारा स्वयं को एक विशिष्ट पहचान प्रदान की थी। उसने सीयक परमार, पालवंशी विग्रहपाल तथा कलचुरी के राजकुमार को परास्त किया था। खर्जुरवाट (खजुराहो) की विशाल मंदिर – श्रृंखला तथा चतुर्भुज नारायण देवालय आज भी इस राजा के शौर्य के साथ साथ उसकी धर्म परायणता तथा कलात्मक...
आज हमें पाल राजवंश द्वारा निर्मित कोई भी बडा पूजा केन्द्र अथवा देवालय दिखाई नहीं देता इसका एकमात्र कारण बख्तियार खिलजी तथा उसी के समान अन्य मुस्लिम आक्रांताओं के द्वारा किये गये रक्तरंजित द्वेषयुक्त विनाश लीला में निहित है जिसमें हजारों हिंदू मंदिरों को सतत रूप से नष्ट किया था। पालों से संबंधित आज हमें जो भी उपलब्ध है वे वास्तुशिल्प का कुछ भग्नावशेष है, कुछ तस्वीरें तथा आरेखन है जो विभिन्न म्यूसियमों में संरक्षित किये गये है – उदाहरणार्थ गरुड़...
अरब के यात्री सुलेमान अत्ताज़िर और अल मसूदी ने भोज की सेना की सदा युद्ध के लिए तैयार रहने वाले गुणों की तथा उसके राज्य की समृद्धि और बाहुल्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। उन्होंने इस बात पर दुःख भी व्यक्त किया है कि वह इस्लाम का अजेय शत्रु है। भोज का पुत्र महेन्द्रपाल उसका सुयोग्य उत्तराधिकारी था और उसने साम्राज्य का और भी विस्तार किया था। उसने प्रसिद्ध विद्वान, कवि तथा गुणी राजशेखर को प्रश्रय दिया था। उसके शासन काल में कला, साहित्य, शिल्प,...
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योद्धा राजवंशों का साहसिक प्रतिरोधक युग यदि कोई साम्राज्य 220-250 वर्षों तक बना रह सकता है तो उसे एक सफल साम्राज्य कहा जा सकता है। आज के भारत के चार प्रदेशों के औसत क्षेत्रफल वाले विस्तार के भौगोलिक क्षेत्र में फैले सुरक्षित तथा सक्रिय शासन को एक शक्तिशाली साम्राज्य माना जा सकता है। इस पैमाने के अनुसार भारत के कुछ ही राजवंशों को श्रेष्ठता प्रदान की जा सकती है। इनमें मौर्य, गुप्त, चालुक्य, राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा विजयनगर के राजवंश सम्मिलित है।...
तीन बार कुब्ज विष्णुवर्धन ने अपने भाई पुलकेशी के विरुद्ध विद्रोह किया और तीनों ही बार पुलकेशी ने उसे क्षमा कर दिया। न तो वह अपने दुष्ट काका के प्रति आवश्यक कठोरता दिखा पाया और न अपने मनमौजी पुत्रों पर अंकुश रख सका। इन सभी कारणों से दुर्भाग्य पूर्ण परिणाम सामने आये। ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार काका मंगलेश, कुब्ज विष्णुवर्धन को सदैव पुलकेशी के विरुद्ध भड़काता रहता था। पुलकेशी चाहता तो इन सभी स्थितियों से पूर्णतः स्वयं को बचा सकता था यदि वह...
समुद्री घाट क्षेत्र के अनेक शत्रुओं को पुलकेशी ने हराया। उसने अनेक राष्ट्रकूटों पर भी विजय प्राप्त की, उसने सातवाहनों को समाप्त किया, उसने पल्लव वंशी महेन्द्रवर्मा तक को निष्प्रभावी कर दिया। उसने न केवल कांची तक धावा बोला अपितु कन्याकुमारी तक अपनी संप्रभुता को स्थापित किया। समस्त दक्षिण भारत पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के उपरांत पुलकेशी ने नर्मदा तट पर हर्षवर्धन को आसानी से हरा दिया। हर्षवर्धन जो ‘उत्तरापथ परमेश्वर’ था पूरे देश का सम्राट बनने...
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हर दृष्टि से सनातन धर्म, बौद्ध धर्म की तुलना में श्रेष्ठ है। यह सनातन धर्म की श्रेष्ठता का ही प्रतिफल है कि उससे बौद्ध धर्म का जन्म हुआ किंतु बौद्ध धर्म में अपने समतुल्य या अपने से श्रेष्ठ संप्रदाय को उत्पन्न कर पाने की क्षमता नही रही। यही कारण है कि उससे वज्रयान, सहजयान, महाचीन और गुह्यसमाज जैसे छुटषुट मत पैदा होते रहे। इसके विपरीत सनातन धर्म का शताब्दियों पूर्व की लम्बी परम्परा रही है इस परम्परा ने परम शांति तथा आत्म तत्त्व के दर्शन से संयुक्त...
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भारतीय सम्राटों की साहित्यिक विद्वत्ता सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन के स्वयं के लेखन से यह ज्ञात होता है कि अपने जीवन के उत्तरार्ध के वर्षों में उसमें बौद्ध धर्म के प्रति अत्यधिक अभिरुचि हो गई थी। आज भी हर्षवर्धन द्वारा लिखे गये तीन नाटक उपलब्ध है। उसने कुछ स्तोत्र तथा स्वतंत्र रूप से कुछ श्लोकों की रचना भी की थी। उसके नाटक – प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानंद – विद्वानों तथा सामान्य जनों में समान रूप से प्रसिद्ध है। प्रियदर्शिका तथा रत्नावली...