चाणक्य कोई धर्मान्ध व्यक्ति नहीं था। वह स्वयं आसानी से सिंहासन पर बैठ सकता था जैसा कि उन दिनों ब्राह्मणों का राजा बनना प्रचलन में था। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद पुष्यमित्र शुंग और उसके वंशज शासक बने और उनके उपरांत काण्व लोगों ने राज किया। यह सभी ब्राह्मण थे। चाणक्य ने पद प्रतिष्ठा की कभी परवाह नही की। उसका दूरदृष्टि पूर्ण लक्ष्य ब्राह्म और क्षात्र के समन्वय द्वारा देशवासियों के कल्याण के सुनिश्चित करना था।
इस पृष्ठभूमि में जब हम अपने देश की...
जितनी स्वतंत्रता की आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता हमें संयम और आत्मानुशासन की भी है। जब हम नियंत्रणों का सम्मान करना जान लेंगे तब ही हमे अधिकार और सुविधाएँ प्राप्त हो सकती है। निरंकुश स्वतंत्रता, अनियंत्रित इच्छाविलास, मनमौजी सनक लम्बेसमय तक उपयोगी सिद्ध नही हो सकती है। इसका अनुभव हम भारत पर सिकंदर के आक्रमण के प्रसंग में देख चुके हैं। पौरव (ग्रीक वर्णनानुसार पोरस) सिकंदर से हार गया था। ऐसा कहा जाता है कि पौरव एक गणतंत्र का अधिपति था यद्यपि इसमें...
यत्र तत्र इस बात के भी संदर्भ मिलते हैं कि ग्रीक महिलाओं को भारत में काम पर रखा जाता था। श्यामिलक की पुस्तक ‘पाद-ताडितक-भाण’ में कुसुमपुरा में रहने वाले ग्रीक व्यापारियों का वर्णन है। ’मालविकाग्निमित्र’ में कालिदास ने लिखा है – “सिंधु नदी के दूर छोर पर पुष्यमित्र शुंग के पौत्र वसुमित्र ने ग्रीक सेना के विरुद्ध संघर्ष किया था”, किन्तु इन सब में कहीं भी सिकंदर का सन्दर्भ नहीं है। यह आक्रमण सिकंदर के उत्तराधिकारियों द्वारा उसकी मृत्यु के लगभग 150-...
बुद्ध के समय के सोलह बडे राज्य निम्नानुसार थेः-
अंग
मगध
काशी
कोसल
वृजिगण (वज्जीगण)[1]
मल्लगण[2]
चेदी[3]
वत्स (बच्च)[4]
कुरु
पांचाल
मत्स्य (मच्च)
शूरसेन[5]
अश्मक[6]
अवन्ती[7]
गांधार और
काम्बोज
इनके अतिरिक्त भी मालवा, मद्र, यौधेय, कोलीय तथा शाक्य जैसे कुछ गणतंत्र थे। जैन ग्रंथों में इनका अनेकबार उल्लेख किया गया है। उस समय भारत कईं छोटे छोटे क्षेत्रों में बट गया था जो अल्पकालिक साम्राज्य या जन जातीय शासकों द्वारा शासित थे। इसके...
साम्राज्य-काल
वेदों, इतिहास तथा पुराणों से अब हम तथा कथित ऐतिहासिक काल पर आते हैं। वैसे भी प्राचीन साहित्य तथा लिपिबद्ध इतिहास के मध्य कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं है। वेदो में वर्णित सभी राजाओं की वंश परम्पराएँ, भारतीय इतिहास का ही अंग है। उदाहरणार्थ, वेदो में प्राचीन राजा दिवोदास का उल्लेख है। सुदास उसका पुत्र था। सुदास के राजपुरोहित वसिष्ठ थे। ऋगवेद में दस राजाओं के युद्ध का वर्णन है जंहा विश्वामित्र के नेतृत्त्व में दस राजाओं ने एकसाथ मिल कर...
इन सबमें अद्धितीय भार्गववंशी परशुराम थे। वे ब्राह्म-क्षात्र समन्वय के श्रेष्ठ प्रतीक है। परशुराम द्वारा दुष्ट क्षत्रियों की सुव्यवस्थित विनाश लीला का वर्णन पुराणों में दिया गया है। शास्त्रानुसार आपद्धर्म[1] के रुप में हर कोई क्षात्र धर्म धारण कर सकता है।
महान संत विद्वान विद्यारण्य अपनी पाराशर-स्मृति की टीका में कहते है कि प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन काल में कभी न कभी क्षात्र भाव को धारण कर सकता है। परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी पर से दुष्ट...
कालिदास की क्षात्र चेतना
कवि शिरोमणि महाकवि कालिदास ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति ‘रघुवंश’ में यह पूर्णतः स्पष्ट किया है कि किस प्रकार एक साम्राज्य में क्षात्र को पोषित किया जाना चाहिए और साम्राज्य की समृद्धि हेतु किस तेजस्विता की आवश्यकता है। कालिदास ने दिलिप तथा रघु जैसे महान राजाओं और अग्निवर्ण जैसे चरित्र हीन तथा अयोग्य राजाओं की तुलना करते हुए स्पष्ट किया कि किन नैतिक सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है।
राजा रघु ने चारोंदिशा में विजयपताका फहराते...
इसी शौर्य भाव को हम ऋषि विश्वामित्र में भी देखते हैं जिन्होने राम को क्षात्र दीक्षा प्रदान की थी। एक महर्षि बनने से पूर्व विश्वामित्र ने ब्राह्म के साथ संघर्ष करते हुए ब्राह्म के कठिन पथ के महत्व का अनुभव कर, ब्राह्म क्षात्र समन्वय की महत्ता को समझा। अपने इस अनुभव के उपरांत वे सदैव सत्य के पथ पर चलते हुए अन्ततः आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुए। परशुराम जो स्वयं एक ब्राह्मण थे, क्षत्रियों से लड़ते हुए क्षात्र में गहराई से सराबोर थे। वे भी अपने इस...
पुराणों के लक्षणों को दर्शाने वाला प्रसिद्ध श्लोक जो पुराणों की पांच मुख्य विषयवस्तु का वर्णन करता हैः-
सर्ग - मुख्य रचन
प्रतिसर्ग - रचना का विस्तार अथवा प्रलय
वंश - देवताओं, राजाओं तथा ऋषियो के
मनवंतर - चौदह मनुओं का समय चक्र
वंशानुकीर्तनम - वंशो का यशोगान[1]
सार रुप में इस श्लोक द्वारा ब्राह्म तथा क्षात्र के आदर्शों को सतत रुप से संजीवनी प्रदान करते रहने का अभिप्राय है।
पुराणों में अन्य छोटे राजवंशों का भी वर्णन है जैसे मगध केकय, जनक...
क्षात्र की भारतीय परम्परा में राजधर्म के दृष्टिकोण को समझने हेतु यंहा हमारे ग्रंथो से धर्म तथा अर्थ संबंधी कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं – अत्रिस्मृति तथा विष्णु धर्मोत्तर पुराण में निम्न पांच महायज्ञ राजा के कर्त्तव्य हैं –
दुष्टों को दण्ड़, सज्जनों का सम्मान,
न्यायोचित पथ से प्रगति और समृद्धि,
जन आकांक्षाओं और प्रश्नों का पूर्वाग्रह रहित न्यायोचित निर्णय,
भूमि संरक्षण[1]
कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा गया है –
सदैव सक्रिय रहना राजा का व्रत...