जिस समय सीमाक्षेत्र पर गुर्जर प्रतिहार के लोग, अरब देश के व्यापारियों द्वारा किये जा रहे अन्याय के विरुद्ध स्थानीय व्यापारियों के हित में अनवरत रूप से लड रहे थे तब उनके राजनैतिक प्रतिद्वंदी राष्ट्रकूट के लोग सनातन धर्म की रक्षा करने के स्थान पर इन्ही अरबवासियों को कई प्रकार की छूट दे रहे थे। यहां तक कि पूरे अरब देश में वहां की मूल संस्कृति को पूर्ण विनाश करने से पहले ही वहां के कई मुस्लिम समुदाय भारत में आकर बस चुके थे। हिन्दुओ ने कभी भी उन्हे अपने धर्म प्रचार करने तथा स्थानीय लोगों का उत्साह के साथ धर्मांतरण करने से नहीं रोका। गुजरात के जयसिंह सिद्धराज (सन् 1094-1143) ने तो अपने ही उन हिंदू नागरिकों को दण्डित किया जिन्होने मुस्लिम धर्मान्तरण का विरोध किया था। यादवों के शासन काल में देवगिरी में एक सूफी मोमिन आरिफ द्वारा मुस्लिम धर्मान्तर का कार्य किया गया, ईरान के सूफी जलालुधीन गंज ए रावण द्वारा धर्मान्तर में मदद की गई। गुजरात के शार्ङ्गदेव (1294-97) ने मस्जिद निर्माण हेतु दान दिया था। सोमनाथ मंदिर के प्रमुख अर्चक (पूजारी) ने भी इसके लिए अपना आशीर्वाद प्रदान किया था। अनेक वर्षों तक मुस्लिम, मंदिरों को ध्वस्त करने में वाराणसी तथा अन्य पवित्र तीर्थों में तोड़फोड़ मचाये हुए थे फिर भी हिन्दू शासक मुस्लिमों को मस्जिद बनाने का अवसर प्रदान कर रहे थे[1]।
बुक्कराय के समय में विजयनगर साम्राज्य में एक मस्जिद बनी थी। विजयनगर दरबार में कुरान की एक प्रतिलिपि रखी गई थी। राजवंशीय परम्परा में सम्राट को सर्वोच्च सम्मान प्राप्त होता था, इस परिप्रेक्ष्य में हिन्दू राजा के मनोभाव को कैसे समझा जावे जिसने यह सोच कर कुरान की प्रति दरबार में रखवाई कि यदि मुस्लिम हिंदू राजा के सम्मुख झुकने को तैयार नही तो कम से कम कुरान के सम्मान में तो वे दरबार में झुकेंगे[2]!!
एक बार दिल्ली पर मुस्लिम सल्तनत दृढ़ता से स्थापित होने के उपरांत इस्लाम का राजनैतिक प्रभाव बढ़ गया और तब उनकी प्रशासकीय सीमा क्षेत्र में इस्लाम में धर्मांतरण करना शासन की एक राजनैतिक नीति का हिस्सा बन चुका था। हिन्दुओं को अपनी देव पूजा करने की स्वतंत्रता नहीं थी। उन पर हिंसा करने तथा उन्हें अपमानित करने वाले नियम बना दिये गये थे।
इसकी निम्नतम पराकाष्ठा यहां तक हुई कि जमींदारों को अपनी फसल का आधा भाग बादशाह को देना आवश्यक था – एक कर के रूप में ! ऐसे अति अमानवीय नियम को भी हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी इतिहासकार ‘सम्मानजनक’ करते है !! उनका कहना है कि मुस्लिम शासक मात्र जमींदारों के प्रति कठोर थे न कि कृषकों के प्रति । किंतु सत्य तो यह है कि उपज चाहे जमींदार की हो या कृषक की, उसका आधा भाग निर्दयता पूर्वक सुल्तान द्वारा छीन लिया जाता था। हमारे ‘सुविख्यात’ इतिहासकारों ने अपने वैचारिक दृष्टिकोण के अंध प्रचारार्थ ऐसे प्रचंड दावे सदैव से किये है।
एक मुस्लिम कभी भी अपनी इच्छा से किसी भी हिंदू को गालियां दे कर चुप करा सकता था किंतु हिंदू को अपना सब अपमान बिना कोई प्रतिक्रिया दर्शाये सहन करना आवश्यक था। इब्नबतूता लिखता है कि हिंदू राजा को अपनी हार तथा विनाश के उपरांत अपनी रानी तथा राजकुमारियों को भरे दरबार में नाचने और गाने के लिए प्रस्तुत करना पड़ता था जहां कोई भी उन्हें ले जाने को स्वतंत्र था। वह लिखता है कि इस्लामिक साम्राज्यवाद की यह सामान्य प्रथा रही है कि सामान्य बच्चों और महिलाओं को सभी मुस्लिमों द्वारा सबके समक्ष साझा किया जाता था। उसका कथन है कि “मुझे भी ऐसी अनेक गुलाम स्त्रियां तथा बच्चे मिले थे जिन्हें भोगने के उपरांत मैंने उन्हें अन्य को दे दिया और मै नहीं जानता कि बाद में उनका क्या हुआ?”
हिन्दुओं को नये मंदिर बनाने तथा पुराने मंदिरों को सुधरवाने या उनका जीर्णोद्धार करने की अनुमति नहीं थी। तीर्थ यात्रा पर जाने वाले हिंदुओं पर भारी भरकम जजिया कर लगाया जाता था। विवाह करने पर भी कर देना पड़ता था। यह नियम इतने मनमाने थे कि मथुरा में कोई भी हिंदू न अपने बाल कटवा सकता था न दाढ़ी बनवा सकता था।
मुस्लिम लोग केवल युद्ध, रक्तपात तथा सतत रूप से लड़ना ही जानते थे। उन्हे जीवन के सौंदर्य बोध युक्त कलात्मक तथा भावनात्मक पक्ष से कोई सरोकार नही था। चूंकि हिंदू लोग अच्छे व्यापारी तथा व्यवसायी थे, मुस्लिम लोग उनसे पाई पाई छीन लेते थे। हिंदुओं को सब देना पड़ता था। उनके कृत्य ऐसे थे जैसे किसी गाय के समक्ष उसके मृत बछड़े को रख कर उसका दूध निकाला जावे !!
हिन्दुओ ने धीरे धीरे इस्लाम के प्रसार को रोकने के उपाय विकसित करना प्रारम्भ किये। आवश्यकता अनुसार उन्होंने मुस्लिम बादशाहों से समझौते किये, अनिश्चयात्मक स्थिति में अपनी सेवाएं भी प्रदान की किंतु अपने घरो में, समुदाय तथा समाज में, धार्मिक कार्य कलापों में अनेक हिंदुओं ने किसी भी प्रकार का दाग लगने नहीं दिया।
देवलस्मृति, पंचदशी आदि ग्रंथों में हमें इस बात के सन्दर्भ प्राप्त होते है कि कुछ धर्मान्तरित मुस्लिमों ने पुनः हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया अर्थात आज की भाषा में ‘घर वापसी’ कर ली थी। किंतु यह अत्यंत सीमित स्तर तक ही था। यद्यपि ऐसी गतिविधियां शिवाजी तथा गागाभट्ट के समय तक भी चलती रही किंतु इसने कभी बडे आंदोलन का स्वरूप ग्रहण नहीं किया।
=मुस्लिम शासन काल में धर्मशास्त्रों की पवित्रता को अतिशय महत्व प्रदान किया गया। सामाजिक बहिष्कार और परित्याग सामान्य सी बात हो गई। महिलाओं का सामाजिक स्तर पर महत्व कम हो गया, बाल विवाह व्यापक रूप से होने लगे। सती प्रथा भी सामान्य हो गई। विभिन्न जातियों के पारस्परिक तथा स्वतंत्र मिलन पर प्रतिबंध लग गये। निम्न जातियों कभी समाज में उच्च स्थान प्राप्त न कर सके इसके लिए कड़े सामाजिक वर्गीकरण प्रभाव में आ गये। अन्ततः पूरी सामाजिक संरचना में एक स्थिरता और शैथिल्य भाव बैठ गया। मनु के इन शब्दों “ब्राह्मणाः शूद्रतां याति शूद्रो याति च विप्रताम्” को पूरी तरह से भुला दिया गया । शूद्रों को उच्च वर्ण में अर्थात् क्षत्रिय आदि के स्तर पर बढ़ने से रोक दिया गया[3]।
हिंदू लोग सभी आर्थिक गतिविधियों जैसे व्यापार, उद्योग, व्यवसाय, पैसों का लेनदेन, विपणन आदि कार्यों में अत्यंत कुशल थे इसलिए अपनी कट्टर धर्मांधता के बाद भी मुस्लिमों को हिंदू वैश्यों को सम्मान देना पड़ता था जो पूर्णतः स्वार्थ आधारित रहता था। विदेशियों ने भी इसका अनुसरण किया। पश्चिमी समुद्र तट से होने वाला पूरा व्यापार हिंदुओं के नियंत्रण में था। रक्त पिपासु मुस्लिम नौजवान अपनी विलासिता पूर्ण जीवन शैली के कारण इस तथ्य को अनुभव करता रहा था और कई हिंदू धनाढ्य लोग भी शारीरिक यातनाओं से बचने हेतु मुस्लिमों को यथा समय धनराशी प्रदान करने में संकोच नहीं करते थे।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]यह कैसी विडम्बना है कि जो मार्क्सवादी इतिहासकार मुस्लिमों पर हिंदू राजाओं के अत्याचारों का गला फाड़ प्रचार करते हैं कि हिंदू शासकों की उदारता और सहृदयता के गुणों की अनदेखी कर इन्हीं गुणों से धर्मांध मुस्लिम बादशाहों का महिमा मंडन करते है जिनमें शिष्टाता तक न थी !!
[2]हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार सबसे बडे न्याय मंदिर में कानून के भी ऊपर राजा का विवेक माना गया है। हमारे मूलभूत सिद्धांतों की महानता तथा किताबी शाब्दिक कानूनों को अंधविश्वास द्वारा मानने में कितना बड़ा अंतर है !!
[3]मुस्लिम आक्रमणों से दिग्भ्रमित हिन्दू समाज का यह प्रतिक्रियावादी विरूपता जो उनकी नासमझी के कारण हुआ था किंतु मार्क्सवादी इतिहासकार इसको वैदिक काल से हिंदू समाज की प्रकृति के रूप में दर्शाने आ रहे है।