संघर्ष-काल
भारतवर्ष पर पहले इस्लामिक आक्रमणों का दौर
अब हम विशेष रूप से पश्चिम एशिया के मुस्लिम सैन्य बलों द्वारा भारत पर किये गये पाशविक आक्रमणों की प्रकृति का विश्लेषण करेंगे। इसी परिप्रेक्ष्य में हम यह भी देखेंगे कि किस प्रकार हमारी क्षात्र चेतना ने इससे अपना रक्षण करते हुए हमारी संस्कृति का संरक्षण किया। इस संबंध में व्यापक विमर्श होता रहा है तथा जानकारियों का भंडार उपलब्ध है, फिर भी उन्हें संतोषजनक ढंग से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि तथ्यों को एक पक्षीय तथा अपूर्ण ढंग से लिखा गया है। आज के समय में जब सब जानकारियां, सभी मूल स्त्रोत, घटनाओं, दिनांक व अन्य सभी विवरणों के साथ उपलब्ध हो जाती है तो जानकारियों की भरमार हो जाती है किंतु उसमें भी कई महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त नहीं हो पाते है।
इस्लामिक आक्रमणों के बढते प्रवाह के विरुद्ध किस धैर्य और साहस के साथ सनातन धर्मावलंबियों ने क्षात्र धर्म का पालन किया इस संबंध में तो विशेषतः जानकारियों का अभाव है। इसका कारण भी स्पष्ट है – क्योंकि इस समय के बारे में इस्लामिक ऐतिहासिक विवरण ही मुख्यतः लिखे जा सके थे। मुस्लिम बादशाह जैसे बाबर, जंहागीर और औरंगजेब ने स्वयं अपने ‘रोज नामचे’ लिखे है जिसमें उन्होने बिना किसी अपराध बोध, पूरी निर्लज्जता के साथ बिना हिचक अपने दुष्कृत्यों को लिखा है। अपने इन आत्म लेखनों में उन्होने बड़े गौरवान्वित होकर बडे विस्तार से अपने अत्याचारों का महिमा मंडन करते हुए लिखा है कि कैसे उन्होंने जगह जगह लूटपाट की तथा उनका विनाश किया। ऐतिहासिक अभिलेखों के रूप में भी कुछ युरोपियन यात्रियों, व्यापारियों तथा अधिकारियों द्वारा उनके स्वयं के अनुभव पर आधारित अथवा स्थानीय कथाओं के आधार पर तथ्य प्राप्त होते हैं। इतिहासकारों ने इन लेखनों को अतिरंजित मानते हुए इनकी सच्चाई पर संदेह व्यक्त किया है। हमारी विडम्बना यह रही है कि समकालीन भारत में विशेषकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जो लोग शासकीय नीतियों के अनुगामी रहे, उन्होने मुस्लिमों द्वारा किये गये दुष्कृत्यों को तथा उनके द्वारा हिंदुओ पर किये गये अत्याचारों को कपटता पूर्वक छिपाने तथा उस पर लिपापोती करने का भरसक प्रयास किया है।
किंतु सत्य क्या कभी छल और झूठ द्वारा दबाया जा सकता है ?
यदि युरोपियन तथा विविध इस्लामिक ऐतिहासिक विवरणों को छोड़ दिया जाए, जिसमें बड़े हर्षोल्लास के साथ भारत पर मुस्लिमों द्वारा किये गये अत्याचारों को दर्शाया गया है, स्थानीय स्तर पर यह विवरण कम ही मिलता है कि किस प्रकार से सनातन धर्म के मानने वालों ने उनका सामना करते हुए साहस के साथ उनका विरोध किया था। जो कुछ भी हमारी क्षात्र परंपरा के विषय में थोड़ा बहुत विवरण प्राप्त होता है वह कुछ काव्य रचनाओं, लावणियों, लोकगीतों, वीर गाथाओं, पारम्परिक कहानियों तथा कुछ अभिलेखों और शिला लेखों द्वारा ही मिल पाता है। कुछ मुस्लिम अभिलेखों में भी हिंदुओं के शौर्य विवरण मिल जाते है जब जब मुस्लिम आक्रांताओं को हिन्दुओं द्वारा असाधारण रूप से पराजित होकर हिन्दू सैन्य बल की श्रेष्ठता स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा था। तथापि इतिहासकारो द्वारा लिखित ऐतिहासिक विवरणों को ही मान्यता प्रदान की जाती है एवं वे मौखिक लावणी गीतों तथा ऐसे सभी विवरणों को अनदेखा कर देते है। इस कारण से भी सनातन धर्म की क्षात्र परम्परा के प्रति अन्याय होता आया है।
हमारे इतिहास में नकारात्मक तथा अस्वीकार्य अनेक ऐसे पक्ष है जिन्हे बारम्बार रेखांकित किये जाने की आवश्यकता है विशेष कर भारत में मुस्लिमों द्वारा इस्लाम के नाम पर जो रक्तरंजित इतिहास लिखा गया उसे संक्षेप में निम्नानुसार दर्शाया जा सकता है –
जिस महमूद गजनी ने मथुरा में दस करोड़ की संपदा लूट कर उसे पूरी तरह से नष्ट कर दिया था, जिस मंदिर को वंहा दो सौ वर्षो से बनाया गया था उसे पूरी तरह तोड़ दिया गया और उसमें आग लगादी गई थी और वंहा की एकमन (लगभग 37 किलो) वजन की स्वर्ण मूर्ति को लूट कर उसे पिघला दिया गया था, उसी दुष्ट गजनी को नेहरु ने बडी निर्लज्जता के साथ अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में (पृष्ठ 325) प्रशंसा की है। गजनी के द्वारा किये गये विध्वंस को उसके ही सचिव अल उत्बी ने अपने रोजनामचे में लिखा है। जहां भी उसने मंदिरों को नष्ट किया वहां उसने मस्जिदें बनवा दी। पूरी यमुना नदी का जल हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गया था। ऐसा ही कान्यकुब्ज में भी किया गया। जो सोमनाथ मंदिर दस हजार गांवों की सहायता प्राप्त कर हिंदुओं का पवित्र तीर्थ स्थल है, जहां के विशेष उत्सवों में लाखों भक्तों की उपस्थिति रहती थी वहां गजनी ने हिंदुओं का नरसंहार कर लगभग बीस लाख दीनार तुल्य संपदा को लूट लिया। एक ही दिन में उसने पचास हजार हिंदुओं की हत्या कर दी। उसने स्वयं अपने हाथों में कुल्हाड़ी लेकर सोमनाथ की देवमूर्ति को तोड़ा तथा उसे अपने गजनी की जामा मस्जिद की सीढ़ियों के निर्माण में प्रयुक्त किया था। यद्यपि हिन्दू भक्तों ने उसे मुंहमांगी संपदा देने का प्रस्ताव रखा फिर भी अपनी कट्टर धर्मान्धता के कारण उसने वहां के ज्योतिर्लिंग व मंदिर का विनाश किया। जब भक्तो ने मंदिर का पुनः निर्माण कर लिया तो उसने पुनः अपनी सेना भेज कर उसे नष्ट कर दिया। इसके बाद भी हिन्दुओं ने इस मंदिर को पुनः स्थापित कर लिया तो तुगलक के सेनापति मुजफ्फर शाह ने दो बार आक्रमण कर उसे नष्ट करते हुए वहां मस्जिद बनवा दी। विद्वानों के कथन अनुसार यह समस्त विवरण ‘तारीख-यामिनी’, ‘कामिल उत्तवारीख’ और ‘तारीख ए अल्फी’ जैसे मुस्लिम ऐतिहासिक अभिलेखन में दिये गये है। और अन्ततः स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत सन 1951 में जब सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इसी सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण का उद्घाटन किया तो नेहरु ने इसका न केवल विरोध किया अपितु भारत के राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद को इस समारोह में जाने से मना भी किया।
तुगलक वंश की मूर्खताओं, धार्मिक अतिवादी अत्याचारों और बर्वरताओं का विस्तृत विवरण इब्नबतूता ने लिखा है।
अकबर ने मेवाड़ पर एक बहुत बडी सेना के साथ आक्रमण कर भारी रक्तपात किया था, सभी राजपूतो, नगर वासियों की ‘जनेऊ’ काट कर उन्हे चहत्तर मन से ज्यादा वजनी (2738 किलो) ढेर बना, जला दिया गया। यह विवरण अबुल फज़ल ने दिया है। इस बाद के भी लिखित साक्ष्य हैं कि अकबर को हिंसक तैमूर का वंशज होने का गर्व था कि उसकी नसों में तैमूर का रक्त बह रहा है। अकबर ने सिसोदियाओं के पारिवारिक देव मंदिर ‘एकलिंगजी’ को तोड़कर उससे अनेक मस्जिदो में कुरान रखने हेतु पुस्तक रखने के आधार (स्टैंड) बनवा दिये। अपने विजय गान के रूप में उसने अपने द्वारा लिखित ‘फतहनामा ए चित्तौड़’ में बड़ी गर्वोक्ति के साथ इस्लाम के प्रति अपनी धर्मांधता तथा सांप्रदायिक कट्टरता युक्त कृत्यों का प्रशंसात्मक विवरण लिखा है। अकबर की निरंकुश योन वासना भी सर्वविदित है। उसके द्वारा आयोजित ‘मीना बाजार’ में सभी वर्ग, समाज और उम्र की सुन्दर महिलाओं को चाहे वे विवाहित हो या अविवाहित, आना अनिवार्य था।
जब यह महिलाएं बिना पर्दा वहां आती थी तो अकबर गुप्त रूप से इनमें से सबसे सुन्दर स्त्रियों को चुन चुन कर अपने हरम में डाल देता था – ऐसी थी इसकी वासनात्मक योजनाऍ !! इसी परंपरा को अनेक मुगल बादशाहों ने बाद में भई बनाए रखा।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.