रेड्डियों का विजय घोष तथा गजपतियों का सामर्थ्य
प्रतापरुद्र के अवसान के उपरांत आंध्र में रेड्डी राजाओं ने मुस्लिम आक्रमणों का सामना किया था। इनमें वेमारेड्डी तथा उसका अनुज मल्लारेड्डी मुख्य थे। चौदहवीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रमणों से आंध्र को सुरक्षित रख पाने में उनकी भूमिका प्रशंसनीय रही।
रेड्डी लोगों का संबंध शूद्र वर्ण से रहा है। काकतियों का संबंध तो वस्तुतः कम्म जैसी छोटी जाति से भी रहा है किंतु क्या उन्होंने क्षात्र भाव की ज्योति की प्रखरता बढ़ाने में महानायकों की भूमिका नहीं निभाई! उन्होंने सनातन धर्म का पोषण करने में असाधारण योगदान दिया। यदि आज भी आंध्र में वेद, साहित्य, नृत्य, संगीत, कला तथा ज्ञान प्रवाह की परम्परा अनवरत रूप से अस्तित्व में है तो यह इन्ही योद्धा राजाओं के पराक्रम का प्रतिफल है। रेड्डी राजा बड़े विद्वान लोग थे। सिंहभूपाल का ‘रसार्णवसुधाकर’, कर्पूरवसंतराय का ‘साहित्यचिंतामणि’, ‘मालविकाग्निमित्रं’ पर काटयवेमा की टीका, ‘काव्यालंकारशास्त्रवृत्ति’ पर गोपेन्द्र की टीका यह सभी रचनाएँ रेड्डी राजाओं की छत्रछाया में ही लिखी गई थी। इस काल में तेलुगु, संस्कृत और प्राकृत साहित्य बहुत उन्नत हुआ था।
रेड्डी राजाओं ने मंदिरों की भी सुरक्षा की थी। इस कारण से वहां अनेक कला विधाओं को विकसित होने का अवसर प्राप्त हुआ। कोंडवीड़ू तथा राजवीडु साम्राज्यों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण कला तथा वाणिज्य का विशेष रूप से विकास हो सका। यह विकास अन्ततः प्रौढ़देवराय के शासनकाल में विजयनगर साम्राज्य में समाहित हो गया जो प्रौढ़देवराय के सैन्य कौशल तथा चतुर कूटनीतिक क्षमता का परिणाम था।
उपयुर्क्त विवरण का सारांश यह है कि इन सभी राजाओं ने निरंतर रुप से इस्लामिक आक्रमणों द्वारा किये जाने वाले विनाश को रोकने में एकमत से अपना संघर्ष जारी रखा था[1] ।
इसके बाद हम कलिंग (ओडिशा) के गंग साम्राज्य का परीक्षण कर सकते हैं। इस साम्राज्य का एक सफल राजा अनंतवर्मा चोडगंग हुआ था। भूतकाल में कर्नाटक के तलकाडु के गंग लोग ही उडिसा में जाकर बसे थे और वहां उन्होंने अपना साम्राज्य स्थापित किया। यद्यपि गंग साम्राज्य का मूल काशी के गंग लोगों से संबंधित रहा किंतु इन सबका मूलस्थान निस्संदेह रूप से कर्नाटक में ही था। फिर भी इनके कलिंग में बस जाने से इन्हे कलिंग-गंग के रूप में ही पहचान प्राप्त हुई है। अनंतवर्मा चोडगंग ने अपनी राजधानी (सन् 1078-91) पर्लाकिमिडी (आज का परलखेमुंडी) से कटक में स्थानांतरित कर दी थी। वह एक असाधारण योद्धा था तथा परम विष्णु भक्त था। अनंतवर्मा ने ही पुरी में जगन्नाथ मंदिर तथा ययातिकेसरी (भुवनेश्वर) में लिंगराज मंदिरों का निर्माण करवाया था। उसके एक पश्चातवर्ती उत्तराधिकारी नरसिंहदेव (सन् 1238-64) ने विश्व प्रसिद्ध कोणार्क का सूर्य मंदिर बनवाया था। इन तीनों मंदिरों का संयुक्त रूप स्वर्ण त्रिकोण कहलाता है। अनंतवर्मा चोडगंग ने अपने साम्राज्य का विस्तार गोदावरी नदी से गंगा नदी तक फैलाया था। यद्यपि वह एक विष्णु भक्त था फिर भी उसने किसी भी शिव मंदिर को क्षति नहीं पहुचाई।
इस काल के उपरांत गजपतियों का शासन आया। इस राजवंश में कपिलेन्द्रदेव गजपति तथा उसका पोता प्रतापरुद्र गजपति अत्यंत सुदृढ़ शासक थे। कपिलेन्द्रदेव गजपति ने अपने साम्राज्य का विस्तार गंगा से कावेरी तक किया था। वस्तुतः वह पूरा आंध्र क्षेत्र को निगल गया था। गजपति शासन की गहराई इसी से समझी जा सकती है कि तेलुगु कवि श्रीनाथ ने व्यथित होकर लिखा है कि कलिंग शासन में उसकी रचना को कोई पढ़ने वाला पाठक उपलब्ध नहीं है। यह अलग कहानी है कि बाद में ओढ्र (ओडिशा) के शासकों ने श्रीनाथ का सम्मान किया था।
प्रतापरुद्र गजपति ने कृष्णदेवराय के विरुद्ध युद्ध किया था किंतु वह बुरी तरह से हार गया था और अंततः उसे अपनी पुत्री जगन्मोहिनी का विवाह कृष्णदेवराय से करना पड़ा था। जब जब भी कलिंग राजाओं ने विजयनगर राज्य के विरुद्ध युद्ध लड़ा, उन्हें गोलकुंडा, बीजापुर, बिदर, गुलबर्गा और अहमदनगर के मुसलमान शासकों का सहयोग लेना पड़ा। परिणाम स्वरूप दक्षिण में इस्लाम स्वयं को स्थापित कर पाने में सफल हो गया। चूंकि हिन्दू राजा भारत में शासन करते समय इस्लाम के मूल चरित्र को पूर्णतया समझ पाने में असफल रहे, उसी के परिणामस्वरूप उन्हें विनाशकारी परिणामों को झेलना पड़ा और जब तक वे इस्लाम के वास्तविक चेहरे को पहचान पाते तब तक बहुत देर हो चुकी थी। यह इसी का प्रतिफल था कि उन्हें स्वयं का सर्वनाश देखना पड़ा । उन शासकों के विद्वान सलाहकार इस्लाम के अन्तर्निहित हिंसात्मक तथा असहनशील, असहिष्णु चरित्र का सही अध्ययन कर पाने में असफल रहे तथा अपने शासकों को सही सलाह नहीं दे सके।
मध्यकाल में हमारे देश में ब्राह्म-क्षात्र सामंजस्य के सिद्धांत की पराजय का यह अत्यंत दुखद अध्याय है।
मध्यकाल का भारतीय मध्य क्षेत्र
प्राचीन काल में भारत के मध्य क्षेत्र (आज का मध्य प्रदेश) पर मौर्य, शुंग, कण्व तथा गुप्त वंश का शासन रहा था। शिलादित्य हर्षवर्धन के उपरांत कान्यकुब्ज पर आधिपत्य हेतु प्रतिहार, राष्ट्रकूट तथा पाल परस्पर लडते रहे। उनके बाद सेन, मालव तथा भोज लोग आये। कर्नाटक में कल्याण चालुक्यों को पदच्युत करने वाले कलचुरी लोग भी मध्य भारतीय क्षेत्र से संबंध रखते थे। इस साम्राज्य का प्रमुख राजा बिज्जळ था।
मध्य भारत क्षेत्र में प्रतिहारों ने अपना समस्त शौर्य अमानवीय मुस्लिम आक्रांताओं के विरुद्ध लड़ने में प्रदर्शित किया था। यद्यपि इस राजवंश में कोई महाप्रतापी राजा नहीं हुआ किंतु बाद के समय में इस राजवंश के कारण ही राजपूतों का उन्नयन हो पाया। खजुराहो में चंदेलो ने अति भव्य मंदिर श्रृंखला का निर्माण किया, भले ही वे अति पिछले शूद्र समुदाय से संबंधित रहे थे उन्होंने सनातन धर्म की मान्यताओं की सदैव रक्षा की थी। मध्य भारतीय क्षेत्र बुंदेलखंड ने अत्यंत निडर योद्धा छत्रसाल जैसे वीर प्रदान किये। अन्य साम्राज्य जैसे मालव लोग आदिवासी समुदाय से आये थे, प्रोफेसर के.एस. लाल ने बतलाया है कि इन राजवंशों ने गुरिल्ला युद्ध नीति को अपनाया था किंतु समय के साथ वे पुनः प्रभावहीन होकर आदिवासी स्थिति में आ गये। इन सभी राजवंशों ने प्रजा जनों से सम्मान पाया था तथा दान, धर्म, प्रेम और सांस्कृतिक गौरव के गुणों को आत्मसात किया था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]अधिक जानकारी के लिए नोरी नरसिंहशास्त्री के तेलगू उपन्यास ‘नन्नयभट्ट’, ‘रुद्रमदेवी’, तथा ‘मल्लारेड्डी’ पढ़े। इसमें आंध्र की क्षात्र चेतना की परम्परा का विस्तृत तथा रोमांचक वर्णन है। इसी प्रकार वेंकटरमणय्या का ऐतिहासिक कार्य, मल्लंपल्ली सोमेश्वर शर्मा के निबंध तथा कोमर्राजू वेंकटलक्ष्मण राव का महत्वपूर्ण कार्य इस संबंध में जानकारी के गहन स्त्रोत है।