भारत में हम ऐसे अनेक साम्राज्यो के उदाहरण पाते है कि एक क्षेत्र के साम्राज्य का आधिपत्य किसी अन्य क्षेत्र पर स्थापित हुआ हो। जैसे नेपाल और मिथिला के शासक सेन वंश तथा उत्तरभारत के सोलंकी लोग, कर्नाटक क्षेत्र से यंहा स्थापित हुए थे। इसी प्राकर राठोड़ वंश भी कर्नाटक के राष्ठ्रकूटों के वंशज है। इसी प्रकार गंगा के तटवासी गंग लोग दक्षिणी कर्नाटक के शासक बन गये थे। विजयनगर साम्राज्य के पतन के उपरांत नायक राजाओं द्वारा आंध्र, तमिलनाडु में प्रतिस्थापित हो कर दक्षिणांध्र – युग के रुप में उभरा।
कोई भी एक दूसरे के लिए विदेशी नही था। सामान्यतः जो विभिन्नता और विरोध होता है वह धर्म और भाषा के कारण उत्पन्न होता है। भारत में सदा से सनातन धर्म की छत्र छाया में सभी लोगों का समन्वय हुआ है तथा विभिन्न समुदायों के मध्य संप्रेषण की समस्या का निदान संस्कृत भाषा द्वारा हो पाया है। किंतु यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज धर्म, भाषा यंहा तक कि कला भी लोगों के मध्य के सामंजस्य को नष्ट करने का कारण बन रही है। भाषा और कलाओं को लेकर ऐसी विकृत मानसिकता भारत के इतिहास में कम ही देखने में आती है जीवन की बेद निर्देशित शांति तथा सामंजस्यता संस्कृत और इसकी संस्कृति द्वारा ही प्रदत्त रही है।
समरांगणसूत्रधार परमार भोज
भारत के मध्य उत्तर क्षेत्र के आकाश में भोज एक प्रखर रूप से चमकता तारा है। उसकी महानता मात्रा मध्य भारत क्षेत्र में मध्य काल तक ही सीमित नही रही है अपितु यह विश्व इतिहास में भी अद्वितीय है। उसका संबंध यद्यपि शूद्र वंश से था तथापि वह अनेक भाषाओं को लिखने, पढने एवं बोलने वाला विद्वान था। उसने अनेक कविताओं तथा विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रंथ लिखे। विश्व साहित्य में उसकी रचनाओं का भवन अतुलनीय है। इतिहासकारों के मत में उसने चालीस वर्षों तक शासन किया। किंतु संस्कृत काव्य बतलाते हैं कि उसने छप्पन वर्षों से भी अधिक काल तक शासन किया था। वह मालव प्रांत से संबंध रखता था। के. कृष्णमूर्ति की शोध बताता है कि भोज को ‘विदर्भ राज’ के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि उनके लेखन की शैली वैदर्भी साहित्य से प्रभावित थी। इसका श्रेष्ठ उदाहरण कि भोज का वैदर्भी शैली पर पूर्ण अधिकार था, उसकी कृति ‘चंपूरामायाण’ है।
राजा भोज को तिरासी (83) उपाधियों से संबोधित किया जाता है। यह सभी उपाधियां उसके सम्मान के अनुकूल है। रोचक बात यह है कि इनमें से अनेक उनकी कृतियों के नाम है। उदाहरण के लिए – शिव सूत्रों पर लिखी उसकी टीका का नाम ‘तत्त्वप्रकाश’ है, रस तथा नाट्यशास्त्र पर उनकी कृति का नाम ‘श्रृंगारप्रकाश’ है, काव्य पर लिखी कृति ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ है, नामाधारित एक उपाधि उसकी व्याकरण कृति पर है, खगोलशास्त्र पर उनकी रचना ‘राजमृगांक’ है, योग पर ‘राजमार्तण्ड’ है, ‘समरांगणसूत्रधार’ वास्तु तथा मूर्ति शिल्प का ग्रंथ है, ‘युक्तिकल्पतरु’ राजनीति तथा नौका निर्माण पर तथा ‘चारुचर्या’ आयुर्वेद का ग्रंथ है। अनेक विश्वकोष जैसी कृतियों का लेखक भोज जितना बड़ा राजसी सम्राट था उतना ही महान वह साहित्य सम्राट भी था। उसने अनेक मंदिरों तथा तालाबों का निर्माण करवाया था। उसने भोजपाल (वर्तमान भोपाल) का निर्माण किया था। यंहा उसने अतिविशाल तालाब (647 वर्ग किलो मीटर) बनवाया था जो आज भी पूरे भोपाल शहर की जलापूर्ति करता है।
भोज ने धार तथा माण्डु में भी अनेक निर्माण कार्य किये थे। इनमें से अनेक को दुष्ट मुस्लिम कट्टर पंथियों द्वारा नष्ट कर दिया गया। भोज स्वयं सरस्वती मंदिर में भोजशाला में अपने लेखन कार्य में व्यस्त रहता था। इस मंदिर में संस्कृत न जानने वाले ब्राह्मण तक को आने पर प्रतिबंध था जबकि ज्ञानवान चाण्डाल का स्वागत था। ऐसे मंदिर को अब मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया है और सरस्वती की मूर्ति को तस्करी द्वारा इग्लेण्ड भेज दिया गया है।
भोज ने चालुक्यों, चेदि तथा मुस्लिम हमलावरों के विरुद्ध युद्ध किया था। भोज के जीवित रहते महमूद गजनी स्वयं को भारत में स्थापित कर पाने में असफल रहा। राजा भोज न स्वयं महमूद गजनी के विरुद्ध लडा अपितु उसने इस आक्रांता के विरुद्ध लडने में आनन्दपाल और उसके पुत्र त्रिविक्रमपाल की भी सहायता की थी। उसने मुस्लिम आक्रमण द्वारा परास्त त्रिलोचनपाल को भी शरण दी थी। समस्त गाहद पाल समुदाय उस समय राजा भोज को एक अद्वितीय योद्धा के रूप में जानता था। राजा सोमेश्वर, भीमेश्वर तथा कर्ण ने मिलकर एक युद्ध में राजा भोज को मार डाला।
साहित्य, जनकल्याण, समाज सुधार तथा सनातन धर्म के पालन में राजा भोज की कोई तुलना नहीं। मध्यकालीन भारत में अनेक प्रख्यात राजा हुए किंतु विद्वता में भोज अद्वितीय है। बाद में उसका नाम ही राजाओं को सम्मान प्रदान करने की एक उपाधि बन गया। राजाओं के लिए ‘अभिनव भोज राज’, ‘नवभोजराज’, ‘आंध्रभोज’ जैसी उपाधियॉ गौरव पूर्ण थी। इस रूप में भोज एक अन्य महान सम्राट विक्रमादित्य के समकक्ष था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.