भारतीय सम्राटों की साहित्यिक विद्वत्ता
सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन के स्वयं के लेखन से यह ज्ञात होता है कि अपने जीवन के उत्तरार्ध के वर्षों में उसमें बौद्ध धर्म के प्रति अत्यधिक अभिरुचि हो गई थी। आज भी हर्षवर्धन द्वारा लिखे गये तीन नाटक उपलब्ध है। उसने कुछ स्तोत्र तथा स्वतंत्र रूप से कुछ श्लोकों की रचना भी की थी। उसके नाटक – प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानंद – विद्वानों तथा सामान्य जनों में समान रूप से प्रसिद्ध है। प्रियदर्शिका तथा रत्नावली...
विदेशी यात्रियों के पूर्वाग्रह
चीनी यात्री ह्वेन त्सांग, जिसे हर्षवर्धन का बड़ा सहयोग प्राप्त हुआ था, ने अपनी यात्रा गाथा में सम्राट की अत्यधिक प्रशंसा की है। उसने हर्षवर्धन को ‘शिलादित्य’ की उपाधि से महिमा मंडित किया है। उसके वर्णन में बौद्ध धर्म के प्रति उसके अति विश्वास से ऐसा प्रकट होता है मानों भारत में बिना बुद्ध के कुछ भी अस्तित्व में नही था। यह बौद्ध यात्री अपने धार्मिक मतान्धता में किसी से कम नहीं थे। ह्वेन त्सांग ने तो हर कदम पर सनातन...
साम्राज्यों का युग
गुप्तकाल के अंतिम समय मे गंगा किनारे स्थानेश्वार (थानेश्वर) का उदय हुआ | यह कुरुक्षेत्र में अम्बाला तथा दिल्ली के मध्य स्थित है | यहाँ हर्षवर्धन नामक सम्राट हुआ | गुप्त लोगों के सामान वह भी वैश्य कुल का था | हर्षवर्धन के पिता का नाम प्रभाकरवर्धन तथा भाई का नाम राज्यवर्धन था | जब उनका साम्राज्य सुहृढ स्थिति में था तब भी उन्हें विभिन्न दिशाओं से दबाव तथा संकटों का सामना करना पड़ा था | यह स्वाभाविक भी था क्यूंकि प्रत्येक राज्य में...
कलिंग देश का सम्राट खारवेल यद्यपि जैन धर्म का अनुयायी था जो अहिंसा की परम्परा व विचारों के लिए विश्वविख्यात है, किंतु वह क्षात्र के सिद्धान्त को मानने वाला महान योद्धा के रुप में प्रसिद्ध हुआ जिसके बारे में बहुत कुछ जानना शेष है। वह उन प्राचीन शासकों में से या जिन पर हम गर्व कर सकत हैं। खारवेल के बारे में सबसे बडा साक्ष्य हाथीगुम्फ काशिलालेख है जो भुवनेश्वर के निकट उदयगिरी गुफा में स्थित है। भुवनेश्वर उडिसा की राजधानी है।
खारवेल ने कलिंग पर शासन...
स्कंदगुप्त का सामर्थ्य
कुमारगुप्त के पश्चात उसके पुत्र स्कंदगुप्त ने हूणों से युद्ध कर उन्हे हराया। के.एम.मुंशी के अनुसार चौथी शताब्दी के मध्यकाल में मानव इतिहास में पहली बार एक अनदेखा महा विनाशक हिंसा का ज्वालामुखी फूट पड़ा था। कंगालों से और क्या अपेक्षा की जा सकती है[1]? हूण लोग जंहा भी गये उन्होने दमनात्मक हिंसा का ताण्ड़व करते हुए सभ्य समाज के लोगों को भयभीत कर दिया। उन्होने विश्व की सभी सभ्यताओं के विरुद्ध विनाशकारी युद्ध किया। हर अवसर पर...
गुप्तकाल का वास्तुशिल्प तथा मूर्तिकला
वास्तु शिल्प तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में गुप्तकाल में असाधारण कार्य हुआ था। आज भी गुप्तकालीन उपहार के रुप में अनेक गुफा मंदिर पाये जाते है [1]।
हमारी परम्परा में ‘शील’ – एक व्यक्ति विशेष के चरित्र का द्योतक है, ‘शील’ से ही ‘शैली’ का उद्भव हुआ है। गुप्तकाल में स्थापित सुन्दरता तथा सौन्दर्यपरक मानदण्ड़ों की संवेदनशीलता हमें आज भी प्रभावित करती आ रही है। इसके सौन्दर्य में कुछ भी कमतर संशोधन के लिए कोई स्थान...
यदि नवीन तथा नवीनतम शस्त्रों को विकसित किया जाता रहा जिससे सततरुप से शस्त्र भण्डार बढ़ता रहे तो लम्बे समय तक शांति-स्थापना की संभावना कहॉ रह जाती है ? सभी लोगों की आकांक्षा है कि पूरे विश्व में सब लोग उत्तम आचरण के साथ शांति पूर्ण जीवन व्यतीत करें किंतु क्या यह मात्र दिवास्वप्न नहीं है ? मात्र मौखिक रुप से शांति की घोषणाओं के दोहराने से तो सर्वव्यापी सर्वनाश को रोका नहीं जा सकता है। इससे तो विश्वनाश के उपरांत ही सब कुछ ठीक हो सकेगा !! जब सभी कुछ...
यही विशेषता हम वाल्मीकि तथा व्यास में भि देखते है – राम ने जिस तरह वाली को मारा था अथवा सीता का त्याग किया था, उसके बाद भी वे सम्मान के प्रतीक बने,रणभूमी में घटोत्कच के मारे जाने पर कृष्ण का खुशी से ताली बजाकर नाचने पर भी उन्हे पूजनीय मानना आदि ऐसे उदाहरण है जहां हमारे महापुरुषों का व्यवहार सामान्य सर्वमान्य मन्यतों से थोडा विचलित है और जिसे सुखद नही कहा जा सकता है, यह स्पष्ट करता है कि मात्र कुछ अरुचिकर कृत्यों के कारण किसी व्यक्ति को पूर्णतः...
गुप्तकाल मे सनातनधर्म का पुनर्जागरण
प्राचीन भारतियों ने दूर दूर तक समुद्री यात्राए की थी | उनके अनेक देशों से व्यापारिक संबन्ध थे | केवल व्यापारियों तथा व्यवसायियों ने ही नही सभी वर्णों के लोगों ने व्यापक रूप से यात्राए की थी | आज भी हम इण्डोनेशिया (विशेषकर बाली मे) थायिलैण्ड तथा अन्य स्थानों पर भी ब्राह्मण परिवार के वंशजों के लोगों को देख सकते है | उन्होने अपने प्राचीन परम्पराओं का बडी सीमा तक सुरक्षित किया हुआ है | भले ही कुछ परम्पराए...
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने जो भी निर्णय लिए तथा जो भी संबंध स्थापित किये थे वे सब शास्त्रानुसार तथा परम्परानुगत प्रथा द्वारा मान्य थे। उसके शासन काल में सनातन धर्म का उत्थान अपने चरम शिखर पर था जिसकी कोई तुलना नही की जा सकती है। उसके शासन काल में विभिन्न वर्णों के मध्य सामंजस्य के अनेक उदाहरण है। के.एम.मुंशी कहते हैं –
वर्तमान समय की अपेक्षा उस समय में अन्तर्जातीय विवाह की स्वतंत्रता अधिक थी। अनुलोम विवाह (उच्च वर्ण के पुरुष का निम्न वर्ण की...