केरल के अधिकांश राजा या तो ब्राह्मण थे या क्षत्रिय थे। यद्यपि राजा सामुद्री, वास्को डी गामा की गतिविधियों और उसके आचरण के प्रति संदेह करते हुए चिंताग्रस्त हो गया था फिर भी उसने वास्को डी गामा का स्वागत किया। जबकि स्थानीय मुस्लिम व्यापारियों ने इसका विरोध किया था। उन्हे शांत करने के लिए स्थानीय पुरोहित को भेजा गया जो उन्हें समझा सके कि वास्को डी गामा केवल व्यापारिक लक्ष्य लेकर आया है। इसके तत्काल बाद ही पुर्तगाली सेना ने केरल से गोवा तक के समुद्री तट पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने अपने इस दुष्कृत्य को ईसाइयत की दिव्यता प्रदान करते हुए धार्मिक न्याय की संज्ञा प्रदान की थी। यह ईसाई इतिहास का अति रक्त रंजित अध्याय है, और ऐसे अनेक हिंसक उदाहरण मिलते हैं।
वास्को डी गामा ने अपने विरोधी हिंदुओं के साथ बर्बरता पूर्ण व्यवहार किया, वह उसके नाक-कान काट लेता था, उन्हें पकाता और बलपूर्वक उन्हें ही खाने को बाध्य करता था। एक बार एक स्थानीय पुरोहित किसी समुदाय के प्रमुख द्वारा शांति वार्ता हेतु उसके पास भेजा गया, वास्को डी गामा ने उसके नाक-कान और हाथों को काट कर एक थैले में भर कर इस आदेश के साथ भेजा कि उस समुदाय प्रमुख को उसे बलपूर्वक खिलाया जावे। एक अन्य अवसर पर जब हिंदुओं का एक दल उसके जहाज से मसाले उतारने पहुंचे तो उसने उसके मुंह में लकड़ी की कीले ठोक दी ताकि उनके दांत टूट कर उनके गलों में अटक जाए। उनकी क्रूरता और हिंसा की कोई सीमा नहीं थी।
हमारे लिए यह कितना लज्जाजनक दृश्य है जब हमारे ही लोग ऐसे अत्याचारी वास्को डी गामा के भारत आने के पांच सौ वर्ष पूर्ण होने का उत्सव मना रहे हैं?
आर. सी. मजूमदार का कथन है कि केवल मुस्लिम लोग सनातन धर्म में समाहित नहीं हो सके। इसके पूर्व यूनानी, शक, पहलव, कुषाण तथा अन्य विदेशी आक्रमणकारी समय के साथ भारतीय संस्कृति में मिल गये। इसका एक मात्र कारण यह था कि वे किसी पुस्तकीय आदेश से परिचालित नहीं थे। इस्लाम और ईसाई धर्म को मानने वाले अपनी अपनी ‘पुस्तक’ के आदेश को मानते है – उनके लिए उनके धर्मग्रंथ का शब्द उनके लिए अंतिम सत्य है। इन अब्राहमिक धर्मों की समानता यह है कि उनका एक ही भगवान है जो अन्य के प्रति अति द्वेषी और बदला लेने वाला है, इसका पवित्र पैगम्बर भगवान और मनुष्य के बीच का मध्यस्थ है, अनुभूति, पवित्र ग्रंथ, अंतिम दिन के न्याय के अनुसार हमेशा के लिए जन्नत (स्वर्ग) या जहन्नुम (नरक) की प्राप्ति, काफिरों का शाश्वत सर्वनाश आदि...। जब लोगों में इस प्रकार के धार्मिक विश्वास को भर दिया जाता है और फिर उसके धर्मगुरुओं के संकुचित विचारों से उन्हें भड़काया जाता है तो वह एक आतंकवादी समुदाय में बदल जाता है। उनके लिए दूसरे धर्म का प्रत्येक व्यक्ति पापी और काफिर है। ऐसे धर्मान्ध कट्टरपंथियों के साथ कोई भी सभ्य और शांतिप्रिय व्यक्ति या समुदाय कैसे रह सकता है ? क्या ऐसे द्वेषी लोगों के साथ कोई समझौता भी संभव है?
इस्लाम की धर्मान्धता
आर. सी. मजूमदार लिखते हैं
चूंकि हिन्दुओं की एक समरूपता वाली आचार व्यवहार की संस्कृति में मुस्लिम स्वयं को समाहित नहीं कर सके अतः भारतीय इतिहास में पहली बार दो विभिन्न महत्वपूर्ण समुदाय और उनकी संस्कृतियाँ एक दूसरे के समक्ष प्रतिस्पर्धात्मक रूप से निर्मित हो गई थी और भारत सदा के लिए दो ऐसे शक्तिशाली वर्गों में विभाजित हो गया था जिसकी अपनी स्वतंत्र पहचान थी और उनमें पारस्परिक संविलियन तो दूर, किसी पारस्परिक सहयोग के स्थायित्व की भी संभावना नहीं थी। इस कारण आने वाले छः सौ वर्षों तक के भारतीय इतिहास को ऐसी जटिल समस्याओं से जूझना पड़ा कि उनका निदान भारत के विभाजन द्वारा भी पूर्णतः सुलझ नहीं पाया। यह एक अत्यंत संवेदनशील और कठिन प्रसंग है किंतु इसके इतिहास को अनदेखा नहीं किया जा सकता है जब हम भारतवासियों के सांस्कृतिक इतिहास को सच्चे अर्थों में जानने का लक्ष्य रखते हैं[1]।
और जब हम अपने देश के स्वार्थी एवं कपटी राजनेताओं, झूठे बुद्धिजीवियों और भ्रामक प्रचार माध्यमों को इस्लाम और ईसाइयत को अपने मनमाने दुष्प्रचार द्वारा श्रेष्ठ संप्रदायों के रूप में प्रदर्शित करने की प्रक्रिया को देखते है तो स्वाभाविक रूप से हर हिंदू के मन में यह भय उत्पन्न हो जाता है कि अभी हमारे देश को और कितने विभाजन देखना होंगे?
बिट्रिश साम्राज्य के अंतिम समय में इन दोनों समुदायों की राजनैतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त इन समुदायों के मध्य के संबंधों के इतिहास को काल्पनिक आधार पर सामंजस्यपूर्ण दर्शाने का प्रयास किया गया जो वस्तुतः यथार्थ से परे था[2]।
क्या ‘हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई’ नारे का कोई ठोस आधार था? यदि हमें सत्य से साक्षात करना है तो हमें दृढ़ता पूर्वक तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्षता’ के दृष्टिकोण का बहिष्कार करना होगा।
आज भी अनेक भोले और मूर्ख हिन्दू, मार्क्सवादियों और इस्लामी इतिहासकारों द्वारा प्रचारित इस झूठ को तोते की तरह बोलते रहते है – “कुछ भटके हुए मुस्लिमों के कारण समस्याऍ आई होगी किंतु इसमें इस्लाम और कुरान का क्या दोष है? कुछ अतिवादियों ने इसका गलत रूप से अर्थ निकलता है”
वास्तविकता तो यह है कि साम्प्रदायिक धर्मांधता के बीज इस्लाम में बहुत गहराई तक बोये गये हैं। या तो लोग इससे अनजान है, या वे वैश्विक इतिहास की घटनाओं को भूल गये है या वे इसे भूलने का नाटक कर रहे है।
प्रख्यात हिन्दू राजनेता गण तो इस सीमा तक दावा करने लग गये कि मुस्लिम शासन में हिंदू सम्प्रदाय अधीनस्थ स्थिति में था ही नहीं! उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में यद्यपि लोग इस दावे का मजाक उड़ाते थे किंतु शताब्दी के अंत समय तक राजनैतिक जटिलताओं की आवश्यकताओं के कारण यह एक ऐतिहासिक स्वरूप प्राप्त कर गया है। दुर्भाग्य से नारे तथा विश्वास दीर्घ जीवी होते है, और आज भी, लगभग इन्ही कारणों से अनेक भारतवासी विशेष कर एक हिंदू किसी ऐतिहासिक अभिलेखा पर भी अपनी राय या टिप्पणी करने में हिचकिचाहट दिखाता है जिसमें साम्प्रदायिक भाव की अभिव्यक्ति हो। भारतीय हिंदू राजनेताओं और इतिहासकारों को सदैव यह डर सताता रहता है कि उनके कथन से कहीं अन्य समुदाय की भावनाऍ आहल न हो जावें और इस कारण वे स्वयं तो सत्य कह नही पाते, साथ ही जो ऐसा करने का साहस करते हैं उनपर अपना सारा क्रोध निकालते हैं। किंतु इतिहास वास्तविक साक्ष्यों पर आधारित सत्य को उद्घाटित करने का क्षेत्र है, यंहा व्यक्ति और समुदाय महत्त्वहीन है। वास्तविक जीवन में इस सिद्धांत का अत्यधिक महत्त्व है, अज्ञान कभी भी किसी व्यक्ति या समुदाय के या देश के लिए कभी भी वास्तविक वरदान सिद्ध नहीं हुआ है। विशेषकर हिंदू-मुस्लिम संबंधों के इतिहास के पूरे समयचक्र पर जो जानबूझकर अज्ञानता प्रसारित की जाती रही है और जिसके कारण अन्ततः भारत का विभाजन हो गया। समस्या का निदान उसके मूल कारणों को जानकर और समझकर सुलझाने में है न कि उसको अनदेखा कर एक शुतरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन छिपाने में है[3]।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]‘द हिस्ट्री एण्ड़ कल्चर ऑफ इंडियन पीपल’ खण्ड 6 पृष्ठ XXVIII - XXIX
[2]‘द हिस्ट्री एण्ड़ कल्चर ऑफ इंडियन पीपल’ खण्ड 6 पृष्ठ XXIX
[3]‘द हिस्ट्री एण्ड़ कल्चर ऑफ इंडियन पीपल’