भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 34

This article is part 34 of 53 in the series Kshatra Parampare in Hindi

जब नाग वंश के लोग अत्यंत शक्ति शाली हो गये थे तथा सनातन धर्म के लिए संकट उपस्थित कर रहे थे तो समुद्रगुप्त ने उन्हे ठण्ड़ा कर सौम्य प्रत्यायन द्वारा प्रभावित करते हुए उन्हे सनातन धर्म के महत्त्व को समझाया जिसके फलस्वरुप नागर ब्राह्मणों का उदय हुआ।

मनुस्मृति तथा अन्य ग्रंथों में जिस समन्वयता का वर्णन है वह गुप्त काल में थी। समुद्रगुप्त की यह विशेषता रही कि उसने जिन भी राजाओं को हराया, उनसे उनका राज्य न अधीन कर पुनः उन्हे ही शासक बनाया। ऐसा प्रतीत होता है कि ‘रघुवंश’ के चतुर्थ काण्ड में कालिदास रघु के जिस रणविजय का वर्णन करते है, वह समुद्रगुप्त पर अक्षरशः लागू होता है -

अपनी सैन्य विजय यात्रा में रघु ने विभिन्न प्रदेशों के राजाओं को हराया और उन्हे पुनः उनके पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। इसके परिणाम अत्यधिक फलदायी रहे जैसे धान के पौधों को उखाड़ कर उन्हे पुनः प्रतिस्थापित करने पर होता है[1]

जो लोग भी धान की खेती करते है वे इस की परेशानियों को जानते है अतः वे इस पद्य के सौन्दर्य को अवश्य सराहेंगे। बीजारोपण हेतु अंकुरण की मेड़ें बनाई जाती है इनके पल्लवन के पश्चात इन्हे निश्चित दूरी रखते हुए कतारों में मेड से उखाड़ कर पुनः रोंपा जाता है, इस प्रक्रिया के कारण उपज की पैदावार बहुत बढ़ जाती है। हर पौधे को समुचित खाद और पानी दिया जाता है जिससे उसका फलन बढ जाता है। इसी प्रकार से हारे हुए प्रदेशों ने भी समृद्धि प्राप्त की थी। 

अन्य पद्य में भी हम इसी भाव की अभिव्यक्ति पाते हैं –

चूंकि रघु एक धर्म विजयी था अतः उसने कलिंग के राजा महेन्द्र से मात्र प्रतीकात्मक सम्मान ग्रहण किया था न कि उसके राज्य पर अधिकार किया[2]

अर्थशास्त्र तथा धर्मशास्त्र तीन प्रकार के विजयी राजाओं का वर्गीकरण करते है – धर्मविजयी, लोभविजयी, असुरविजयी ।

इनमें धर्मविजयी सर्वश्रेष्ठ है। वह हारे हुए से केवल प्रतीकात्मक सम्मान ग्रहण करता है। दूसरे स्थान पर लोभविजयी है जो हारे हुए राज्य को हड़प कर उसकी सारी संपदा पर अपना अधिकार जमा लेता है। असुरविजयी इसमें सबसे निम्नस्तर का है जो हारे हुए राजा के राज्य और खजाने को तो हड़पता ही है साथ ही साथ वह व्यापक रुप से विरोधियों का नरसंहार भी करता है।

यह अत्यंत दुर्भाग्य पूर्ण तथ्य है कि भारत पर जितने भी इस्लामिक आक्रमण किये गये है वे उपरोक्त वर्णित असुरविजय की तुलना में अत्यंत विभत्स तथा पीड़ादायी रहे हैं। उनकी लूटपाट द्वारा हारे हुए राजाओं के असंख्य परिवारों को तहस नहस कर दिया गया तथा महिलाओं तथा बच्चों पर अकथनीय अत्याचार करने में उन्हे शैतानियत का आनन्द मिलता था। हारे प्रजा जनों पर वे सतत रुप से अपने भयावह अत्याचार करते रहे। यह उनके द्वारा हमारे देशवासियों के रक्त से लिखी गई वह लम्बी कहानी है जिसमें तलवार के बल पर धर्मान्तर करनाया जाता रहा और व्यापक स्तर पर मंदिरों को नष्ट किया जाता रहा।

ईसाइयों का इतिहास भी इससे अधिक भिन्न नही है। जंहा तक साम्यवादियों की निर्दयता का प्रश्न है – कुछ संदर्भों में उसकी तीव्रता और व्यापकता भी कम नही रही अपितु वह ज्यादा भयावह तथा पाशविक रही।

स्वाभिमान का सूर्योदय

गुप्त काल में कला के माध्यम से भारतीय पहचान को एक दृढ़ता प्राप्त हुई। गुप्त काल में ही अजंता की चित्रकला अपने चरम शिखर को प्राप्त कर सकी । इसी काल में अश्वघोष के काव्य में वर्णित कठोर तप युक्त सन्यास का अन्तरण प्राणसंचारी जीवन में हुआ जिसका वर्णन कालिदास के काव्य मे है।
बौद्ध धर्म तथा सनातन धर्म के मध्य के भेद का एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है – अश्वघोष रचित ‘बुद्ध चरित’ के ग्यारहवें अध्यय में ‘मारापजय’ के संबंध में कहा गया है कि बुद्ध ने अपने तपोबल से कामदेव को पराजित कर दिया था। वहीं कालिदास ने ‘कुमारसंभव’ के तृतीय अध्याय में लिखा है कि शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया और बाद में उसे पुनर्जीवित किया था। इससे दोनो के दृष्टिकोण का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। अश्वघोष के बुद्ध काम के पूर्ण परित्याग के समर्थक हैं वही कालिदास के शिव वैश्विक हित संरक्षक में काम को पुनः जीवित कर देते है[3]। यंहा यह ध्यान देना आवश्यक होगा कि चाहे हम कितना भी अपने प्राकृतिक आवेगों को और जीवन की कठोर सच्चाइयों को नकारना चाहें वे किसी न किसी अन्यरुप में हमारे अन्तर्मन की गहराई में छुपी हमारी नैसर्गिक प्रवृत्ति को प्रकट कर ही देती है।

वस्तुतः बुद्ध ने इस सत्य को समझ लिया था। प्रारम्भिक बौद्ध ग्रंथों में कथन है कि बुद्ध ने मार सो कहा ‘मै कुछ वर्षों पश्चात तुम्हारा साम्राज्य पुनः निर्मित करदुंगा, तब तक तुम मुझे इतना समय और अवसर दो कि मै दर्शन तथा धर्म चक्र का प्रतिपादन कर सकूं’ बुद्ध ने कभी जीवन को नकारने का उपदेश नहीं दिया। बुद्ध के पश्चातवर्त्ती उनके अनुयायियों ने इस प्रकरण को पूर्णतः भिन्न रुप में व्याख्यायित किया है। नव बौद्ध वादियों को बुद्ध के आध्यात्मिक उत्थान की प्रक्रिया में कोई रुचि नही है। बुद्ध ने विविध जगहों से अनुभव प्राप्त किया था। बुद्ध की इस चेतावनी को कि – ‘इस समय यह प्रश्न मुझसे मत पूछो!’ का अर्थ यह लगा लिया गया कि प्रश्न में पूछा गया विषय ही अस्तित्तव हीन है। यही आनेवाले संकटों का कारण बना[4]

To be continued...

The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.

Footnotes

[1]आपादपद्मप्रणताः कलमा इव ते रघुं | फलैः संवर्धयामासुरुत्खात प्रतिरोपितः || रघुवंश 4.37

[2]गृहीतप्रतिमुक्तस्य स धर्मविजयी नृपः | श्रियं महेन्द्रनाथस्य जहार न तु मेदिनीम् || रघुवंश 4.43

[3]वासुदेव शरण अग्रवाल लिखते है – “पारम्परिक भारतीय संस्कृति में गृहस्थ जीवन को बडा सम्मान दिया गया है। यह बौद्धों तथा भागवतों के मध्य का सबसे बड़ा अन्तर है। बौद्ध धर्म में इसे दुःख प्रदायी स्थिति देनेवाला कहा है वहीं भागवतों ने इसे जीवन का अमृत कह कर इसे मानवीय जीवन के समाजिक – आर्थिक तथा नैतिक आदर्शों की अनुभूति प्रदान करने वाला तथा प्रत्येक के लिए आवश्यक निरुपित किया है। जंहा बौद्ध लडखडाये वही भागवत सफल हुए” [इण्डिया – ए नेशन, वाराणसी, पृथ्वी प्रकाशन, 1983, पृष्ठ 65]

[4]इसी प्रकार का निरर्थक विवाद बाद के समय में व्दैत और अद्वैत के मध्य हुआ था। द्वैत में हमारे दैनिक जीवन की सभी बाते सम्मिलित हो जाती है अतः ऐसे द्वैत को अस्वीकार करने वाले अद्वैत का क्या अर्थ है ? उसी तरह जो द्वैत, अद्वैत को स्वीकार न करे उसका क्या आधार रह जाता है? इनका एकीकरण त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) तथा अपवर्ग (मोक्ष) के एकीकरण के समान है। यही एकीकरण सनातन धर्म का मुख्य लक्षण है। इस कारण एक सामान्य जन भ्रम के कारण परेशान नही होता है। इसी प्रकार से उच्च स्तरीय ज्ञानी भी भ्रमित नही होता है। यह भ्रम उन्ही लोगों में व्यापता है जो न तो ज्ञानियों की दार्शनिक समझ को छू पाते हैं और न सामान्य जनों की नम्रता और विश्वास रख पाते है। यदि हम इस परिप्रेक्ष्य में भारत की अत्यंत परिष्कृत क्षात्त्र परम्परा के प्रभाव का आकलन करें तो वह बहुत लाभदायक सिद्ध होगा।

Author(s)

About:

Dr. Ganesh is a 'shatavadhani' and one of India’s foremost Sanskrit poets and scholars. He writes and lectures extensively on various subjects pertaining to India and Indian cultural heritage. He is a master of the ancient art of avadhana and is credited with reviving the art in Kannada. He is a recipient of the Badarayana-Vyasa Puraskar from the President of India for his contribution to the Sanskrit language.

Translator(s)

About:

Prof. Dharmaraj Singh Vaghela served as the Head of the Department of Physics at the Government Arts and Science College, Ratlam of the MP Govt. Higher Education Department, until his retirement in 2004. He has published a number of papers in Plasma Physics in international journals. His papers have also appeared in the research journal of the Hindi Science Academy. Among other books, he has translated Fritjof Capra's best-selling work "The Tao of Physics" into Hindi. He has written a monograph in Hindi which explains the philosophical aspects of modern physics.

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Vaiphalyaphalam

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