अनेक विद्वानो के निर्णायक लेखन से युक्त, अनेक भाग वाले विशाल ग्रंथ ‘द हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ इंडिन पिपल’ में गुप्तकाल का वास्तविक तथा सुस्पष्ट इतिहास दिया गया है। इसके प्रमुख संपादक आर.सी. मजूमदार का ‘द क्लासिकल एज’ नामक आलेख तथा इस ग्रंथ के प्राक्कथन में के.एम.मुंशी ने गुप्त काल की अत्यधिक प्रशंसा की है। मुंशी ने इस असाधारण वैभव का कारण धर्म का आधार निरुपित किया है।
यंहा यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि धर्म का अर्थ मत, पंथ अथवा संप्रदाय से नही है। यह सनातन धर्म का अत्यंत उदारता युक्त दार्शनिक आदर्श युक्त सिद्धांत है। यह वह वैश्विक व्यवस्था है जो सभी का समान रुप से पोषण कर सबके अस्तित्त्व को बनाये रखती है। यह आध्यात्मिकता से परिपूर्ण हे न कि किसी मत के भ्रम से प्रभावित है। जब हम मुंशी के ही शब्दों को इस संबंद में पढ़ते है तो सारतत्त्व स्पष्ट हो जाता है –
राजनैतिक दृष्टि से यह भारत के एकीकरण का युग था। तीन सौ वर्षों के विभाजित तथा विदेशी अधिपत्य के उपरांत उत्तर भारत पुनः शक्ति संपन्न तथा बहुमुखी प्रतिभा संपन्न उत्साही शासक के द्वारा एक राष्ट्र बना था। वह एक प्रखर सेनापति, दूरदर्शी कूटनितिज्ञ, सुसंस्कृत व्यक्ति तथा कला और साहित्य का संरक्षक था। वह आम जनों के लिए उच्च रचनात्मक इच्छाओं की प्रेरणा तथा प्रतीक था जिसके माध्यम से अपनी परम्पराओं और प्रजाति की स्मरणीय प्राण ऊर्जा प्राप्त करते हुए देश ने एक नया आकार तथा शक्ति प्राप्त की थी।
समुद्रगुप्त के बाद उसका प्रतिभासंपन्न पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय जो विक्रमादित्य के नाम से प्रख्यात हुआ, गुप्त वंश का सर्वश्रेष्ठ सम्राट माना जाता है। उसके शासन काल में विदेशियों के बचे हुए प्रभाव भी समाप्त हो गये तथा बंगाल की खाडी क्षेत्र से अरब सागर तक का भूभाग सीधेसीधे एक शासन के अन्तर्गत आ गया।
गुप्त साम्राज्य का विस्तार पूरे उत्तरी भारत में नर्मदा तक फैला था। हमारी इतिहास की पुस्तकों में बतलाया गया है कि इस साम्राज्य की सीमा के बाहर के राजा, गुप्त साम्राज्य के दुश्मन थे, किंतु मुंशी लिखते हैं –
नर्मदा के दक्षिण में देश का भूभाग दो मित्र शासको – ‘वकटक’ तथा ‘पल्लव’ लोगों के अधीन था। वे गुप्त सम्राटों के समान ही उत्साह पूर्वक धर्म के सशक्तिकरण में लगे थे। वकटकों के वंशज विंध्यशक्ति का आधिपत्य बुंदेलखण्ड से हैदराबाद तक फैला था। चन्द्रगुप्त द्वितीय की एक पुत्री का विवाह इन्ही में से किसी एक से हुआ था। उसने तेरह वर्षों तक जब तक कि यह राजवंश रहा एक प्रतिनिधि शासक के रुप में शासन को सम्हाला । इसके उपरांत वकटक लोग गुप्त साम्राज्य के साथ संधि के अधीन रहे। पल्लवों ने भी, जिनका दक्षिण में निष्कंटक प्रभाव था, गुप्त साम्राज्य से मैत्री पूर्ण संबंध बनाये रखे थे यद्यपि उन पर गुप्त साम्राज्य का कोई दबाव या अधिपत्य नही था।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की पुत्री प्रभावतीगुप्त का विवाह वाकाटक के घर में हुआ था। उस समय में धर्म के पुनरुत्थान को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया जाता था। इस संदर्भ में हम डा. एस. एल. भैरप्पा के शब्दों का पुनः स्मरण कर सकते है “हर देश की एक भाषा होती है और भारत की भाषा धर्म है” । जब हम भाषा में बोलते है तो हमारे लोग इसे सरलता और सहजता से ग्रहण कर लेते हैं। धर्म का आधार यज्ञ-दान-तपस् की वेदी पर खडा है जिससे सारे विश्व को शांति तथा सद्गुण प्राप्त होते है।
गुप्त तथा उनके सहयोगियों ने इतने वर्ष पूर्व जो आधार निर्मित किया था वह आज भी दृढ़ता से टिका हुआ है। गुप्तकाल में जिस का प्रारम्भ हुआ था उसके सातत्य के कारण ही हमारे देश की प्राणनाडी में आज भी धडकने चल रही है। यह वही भाव तत्त्व है जिसे बादामी चालुक्य, कल्याण चालुक्य, गुर्जर-प्रतिहार, देवगिरी के यादव, होयसळा, राष्ट्रकूट, पाल, सेन आदि ने पोषित कर बनाये रखा। यही कार्य दक्षिण में चोल, पण्ड्या, पल्लवों और चेर लोगों ने किया। आंध्र मे इसी कार्य को काकातिया तथा रेड्डी राजाओं द्वारा आगे बढ़ाया गया। विजय नगर साम्राज्य तथा शिवाजी ने भी इसी पथ का अनुसरण किया। किंतु इसके बाद के कुछ समय में हम ने सनातन धर्म की प्रेरणा तथा सारतत्त्व को खो दिया और उसके परिणाम स्वरुप क्षात्रभाव को छोडने के कटु परिणाम में पूरा भारतवर्ष पतनोन्मुख हो गया।
क्षात्र के अर्थ को समझने हेतु समुद्रगुप्त का उदाहरण लिया जा सकता है। समुद्रगुप्त युद्धकला कौशल तथा शस्त्रों के उपयोग करने में पारंगत था। उसने धनुर्विद्या तथा तलवार चालन का कठिन अभ्यास किया था। उसके सिक्कों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वह फरसा चलाने में भी निपुण था। उसके सिक्को में समुद्रगुप्त को विविध रुपों में दर्शाया गया है जैसे बाघ का पालना, अश्वमेध यज्ञ करना, हाथ जोड़ कर देव-प्रसाद के लिए प्रतीक्षा करना, तथा वीणा वादन करना। प्रयाग के अपने अभिलेख में हरिषेण ने लिखा है –
समुद्रगुप्त एक अच्छा कवि तथा वीणा वादक था। उसने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक उसके साम्राज्य में समृद्धि तथा खुशहाली नही आयोगी तब तक वह वीणा वादन नहीं करेगा। उसने चालीस वर्षों से अधिक समय तक शासन किया। पहले बीस वर्षों में उसने अपने राज्य की व्यवस्था को समुचित संचालन के लिए तैयार किया। उसने दक्षिणवर्त्ती सीमा प्रदेश की भी व्यापक रुप से यात्रा की थी। उसने सभी को अपनी अधीनस्थता प्रदान की। बाद के बीस वर्षों तक वह शांति तथा संतोष के साथ शासन करते हुए अपनी प्रजा को भी सुख शांति प्रदान करता रहा।
समुद्रगुप्त ने रणभूमि में अपने जिस युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया उसी तरह की निपुणता से उसने वीणा वादन का भी प्रदर्शन किया। उसने काव्य रचना में भी अपनी योग्यता दर्शाई। साहित्य तथा संगीत में उसे नैसर्गिक क्षमता प्राप्त थी। उसने अश्वमेध यज्ञ संपन्न किये केवल इस आधार पर उसे एक रुढ़िवादी या कर्मकाण्ड़ी हिन्दू कहदेना उचित नही होगा। उसके दरबार में बोद्धधर्म का प्रख्यात विद्वान वसुबंधु एक सम्मानित मंत्री एवं मार्गदर्शक के रुप में कार्य करता था। इसी वसुबंधु की रचनाओं से हम बौद्धधर्म की महानता का पाठ सीखते है।
गुप्त वंशी इस बात की घोषणा करने में स्वयं को अति गौरवान्वित मानते थे कि वे लिच्छवियों के वंशज है। गुप्त कालीन सिक्को में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को लिच्छवियों का नाती दर्शाया गया है। गुप्त लोग अपने ममेरे समुदाय के गुणगान बडे उत्साह से करते थे।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.