यह स्थिति सनातन धर्म में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य तथा कुमारगुप्त के समय तक भी बनी रही। ऐतिहासिक ग्रंथों तथा अभिलेखों से ज्ञात होता है कि ईसा की पांचवी तथा छठी शाताब्दी तक इस प्रकार का सांस्कृतिक समायोजन तथा समावेश सफलता पूर्वक होता रहा था। अन्य देश, समुदाय तथा संस्कृति के लोग भारत में आये और उन्होने अपनी पसंद के अनुसार वर्ण धारण कर लिया चाहे वह ब्राह्मण, वैश्य अथवा अन्य वर्ण हो। उदाहरण स्वरुप उत्तर भारत के नागर-ब्राह्मण जिनके उपनाम नागर, भटनागर आदि है मूलरुप से ब्राह्मण जाति से संबंध नही रखते थे और यही बात चितपावन ब्राह्मणों पर भी समान रुप से लागू होती है। और इसी प्रकार के प्रकरण क्षत्रियों में भी घटित हुए।
सेनापति पुष्यमित्र जिसने शुंग साम्राज्य की स्थापना की थी, किसी भी जाति, पंथ अथवा संप्रदाय विशोष का समर्थक नही था और न उसने ऐसे किसी समुदाय या जाति को विशेष कृपा कर उन्हे आगे बढ़ाया और नही किसी को सताया या दबाया। साम्यवादी इतिहासज्ञों ने जानबूझ कर तथ्यों को तोडा मरोडा है तथा ऐतिहासिक विमर्श को प्रदुषित किया है। वे नही चाहते कि हमारा देश एक राष्ट्र के रुप में मजबूत हो।
सेनापति पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ किया था। महाभाष्य[1] इस बात की साक्षी देता है कि राष्ट्रीय भावजागरण के उद्देश्य से विदिशा में पुष्यमित्र ने पतंजलि के आध्यात्मिक मार्ग दर्शन में अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किया था।
वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग पचास किलोमीटर की दूरी पर सांची स्थित है जंहा से विदिशा मात्र पांच किलोमीटर दूर है। हेलियोडोरस नाम के ग्रीक ने भागवत दीक्षा ग्रहण कर विदिशा में एक विष्णु स्तंभ की स्थापना की थी। यह निर्माण ईसा की दूसरी सदी में हुआ था। शुंग लोगों की क्षमता उनकी उन उपलब्धियों में है जिसके द्वारा विदेशी लोगो ने सनातन धर्म में स्वयं को समाहित कर लिया। यह धर्मान्तर नही था। यंहा न बल का और न छल का प्रयोग किया गया। यंहा किसी अन्य धर्मदर्शन के मूल्यों की महत्ता को हृदय से स्वीकार कर अंगिकृत किया गया है। इस प्रकार अनेक लोगों ने सनातन धर्म को स्वीकार किया है। सनातन धर्म के किसी भी अनुयायी द्वारा कभी भी बल से या छल से किसी का धर्मान्तरण नही करवाया गया है। वे न तो इस लोक का और न परलोक का भय दिखाते है। सनातन धर्म में इस बेजोड़ समावेश का एक महत्त्वपूर्ण कारण है।
ग्रीक (यवन), पर्शियन (पहलवी), सिथियन (शक) आदि लोगों की धार्मिक आस्थाऍ सनातन धर्म के अनुगत रही। ईसाइयों तथा इस्लाम के प्रकरणों में ऐसा नही था। इन रेगिस्तनी संप्रदायों का सिर्फ एक ही गौड था अल्लाह था जो स्वघोषणानुसार अत्यंत ईर्ष्यालू है। वह ईर्ष्या तथा असहिष्णुता का ऐसा सम्मिश्रण है कि वह अपने अनुयायियों को किसी भी अन्य देवता की ओर देखने को भी कठोरता से प्रतिबंधित करता है। वह शक्ति संपन्नता का भूखा एक अनियंत्रित अत्याचारी है जो सतत रुप से जहन्नुम (नरक) का डर तथा जन्नत (स्वर्ग) का लालच देता रहता है।
किंतु ग्रीक, पर्शियन तथा सिथियन लोग इन अब्राहमिक संप्रदायों के मानने वोलों जैसे नही थे। वे वर्षों पूर्व भारत से पश्चिम में प्रवास कर गये पूर्वजों के ही वंशज थे। पर्शियन लोग वेदिक परम्परा के अति निकटवर्ती रहे है। वे अग्नि उपासक रहे है तथा आत्म-याजि (जो स्वयं का यज्ञ करता हो) रहे है जो सनातन धर्मानुयायियों के समान ही है। इसी प्रकार ग्रीक लोगो में भी अनेक देवों की पूजा की परम्परा रही है तथा वे भी यज्ञों में विश्वास करते थे तथा वे प्रकृति में परमात्मा के विविध रुपों का अनुभव कर पाने में सक्षम थे। ग्रीक का ‘ज्युस’ संस्कृत का ‘द्यू’ (आकाश), उसी प्रकार ‘गैअ’ और ज्या (पृथ्वी) आदि शब्दो का मूल एक ही है। ऐसे अनेक शब्द दोनों संस्कृतियों में है जो दर्शाते है कि वे प्राकृतिक देवताओं की पूजा करते थे। हमारे समरुप देव इन मूल शब्दो से प्रकट होते है - ‘द्यावा पृथ्वी’ – अफ्रोदिति अर्थात सौन्दर्य की देवी जो ग्रीक परम्परा में है उसकी समतुल्य संस्कृत में ‘अप्सुदिता’ (अर्थात् अप्सरा) है।
सनातन धर्म में ग्रीक लोगों का समावेश इसलिए हो गया क्यों कि उन्हे अपनी भाषा, परम्परात्मक कर्मकाण्ड और देवताओं के साम्य की पहचान हो गई थी। उसका कोई पेगम्बर नही था। उनके और देवताओं के मध्य कोई मध्यस्थ नही था। अतः उन्हे सनातन धर्म स्वीकार करने में कोई अवरोध या बाधा नहीं थी। अतः इसे धार्मिक मतान्तरण जैसा नही समझा जा सकता है। इसके अतिरिक्त ग्रीक लोगों ने वेदिक परम्परा के अतिरिक्त भी सनातन धर्म की अन्य शाखाओं जैसे बौद्ध धर्म का भी अनुसरण किया[2]।
उस समय का बौद्ध धर्म आज के समान नहीं था। आज का नव बौद्धवादी सनातन धर्म के प्रति वैमनस्य के अतिरिक्त कुछ भी जानता नहीं है। इन नव भिक्षुओं तथा इनके गृहस्थ अनुयायियों के लेखन से अनेक स्तब्ध कर देने वाली भूलें प्रसारित हो रही है। इन्होने संस्कृत का अध्ययन नही किया है। इन्होने सनातन धर्म को समझने का कभी कोई प्रयास नही किया है।उन्होने न पाली का ज्ञान पाया है और न इन्होने कभी बौद्ध धर्म के व्यापक दृष्टिकोण का अध्ययन किया है. इन्होने कुछ सीखा नही है अतः इनका लेखन भी निम्नस्तरीय है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]पुष्यमित्रं याजयामः | महाभाष्य 3.1.123
[2]जैसे मिलिन्द जो बौद्धधर्म को स्वीकार किया |