कालिदास ने अश्वघोष के कथ्य का रचनात्मक तथा सकारात्मक सुधारण किया था। समुद्रगुप्त ने भी यही सुधारण अशोक के संबंध में किया। हर किसी को इसे रचनात्मक सुधारण के रुप में समझने की आवश्यकता है। अशोक-कानिष्क – अश्वघोष की त्रयी तथा समुद्रगुप्त – चन्द्रगुप्त द्वितीय – कालिदास की तुलना से लाभान्वित हो सकते है। जिस प्रकार अश्वघोष अपने पश्चातवर्त्ती कवियों के लिए आदर्श न बन सके वैसे ही अशोक और कानिष्क भी अपने बाद के किसी बडे सम्राट के आदर्श नहीं बन पाये। जब कि कालिदास अपने पश्चातवर्त्ती प्रत्येक कवि के लिए ‘गुरु’ एवं ‘कवि- कुलगुरु’ सम पूज्य रहे है। उसी प्रकार समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने पश्चाचवर्त्ती प्रत्येक सम्राट के प्रेरणा पुरुष रहे। उनका वराह मानक सर्वमान्य स्वीकृति प्राप्तकर बादामी चालुक्यों, कल्याणी चालुक्यों और वेंगी चालुक्यों का गौरवशाली विजयध्वज का प्रतीक चिन्ह बना और फिर विजयनगर साम्राज्य का भी। इस प्रकार वह सभी प्रकार के विकास और समृद्धियों का दिग्दर्शक बन गया।
पश्चिम के लोगों ने भारत के अपने प्रारम्भिक ज्ञान के दिनों में समुद्रगुप्त को ‘भारत का नेपोलियन’ कहा था। महान योद्धा समुद्रगुप्त, नेपोलियन बोनापार्ट (1769-1821) से कम से कम बारह शताब्दियों पूर्व हुआ था। उसी प्रकार कालिदास को ‘भारत का शेक्सपीयर’ कहा गया। इस प्रकार की तुलना उनका उपनिवेशवादी उद्दण्ड़ता की झलक देता है। यद्यपि अपरिचितों को लोग अपनी ही भाषा और कहावतो द्वारा पहचान देते हैं तथापि तुलना करते समय हमें यह बौद्धिक सतर्कता रखना आवश्यक हे कि कहीं हम श्रेष्ठता अथवा हीन भाव से ग्रस्त तो नही है !
गणतंत्रों का सामर्थ्य तथा दौर्बल्य
समुद्रगुप्त की एक पत्नी का नाम दत्तादेवी था। उनके दो पुत्र रामगुप्त और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य थे। यह नाम विवरण हमें उसकाल के सिक्कों द्वारा प्राप्त होता है। उस गुप्तकाल में व्यापक रुप से आर्थिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक उत्थान-क्रांति हुई। गुप्त साम्राज्य के लम्बे समय काल में एक बडे विस्तृत भूभाग के प्रजाजनों का सभी स्तरोंपर, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संरक्षण किया गया।
कुछ लोग समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य व्दारा गणतंत्रों पर किये गये आक्रमणों की निंदा करते है। वे पिता-पुत्र जो लिच्छवियों के वंशज थे पर न केवल लिच्छविगण को समाप्त करने का आरोप लगाते है अपितु योधेयगण, मद्रगण, मालवगण तथा अन्य को भी समाप्त कर देने का आरोप लगाते है[1]।
गणतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बडी त्रुटि यह है कि इसमें प्रत्येक नागरीक को हर समय सतर्क रहना आवश्यक है जो बहुत कठिन है। हम कहते है कि प्रजातंत्र में सतत सतर्कता आवश्यक है जिसका एक पक्ष गणतंत्र व्यवस्था भी है। तथापि गणतंत्र एक शुद्ध प्रजातंत्र नही है क्योकि इसमें केवल कुछ ही राज्य प्रमुखों तथा अधिकारियों को ‘शलाका ग्रहण’ अर्थात् मताधिकार प्राप्त होता है।
गणतंत्र की सभा को संस्थागार कहा जाता है। इसके सभी सदस्य प्रतिष्ठित समुदायों तथा परिवारों के लोग होते हैं। यदि उन सभी को किसी विषय पर विमर्श, वार्त्ता कर अन्ततः विर्णय लेना होता था तो वे ‘सन्नीपात’ में भाग लेते थे। जिसमें प्रत्येक सदस्य को ‘शलाका ग्रहण’ करना होता था अर्थात् उन्हे एक लाल तथा एक काली शलाका (लकडी की छोटी छड़) द्वारा अपना मत व्यक्त करना होता था। लाल शलाका ‘हां’ तथा काली शलाका ‘ना’ की प्रतीक थी। यदि कोई विषय के संबंध में ‘हां’ और ‘ना’ दोनो को व्यक्त करना चाहता था तो उसे दोनो शलाकाऍ ग्रहण करना होता था। यदि कोई ‘हां’ या ‘ना’ कोई भी मत व्यक्त नहीं करना चाहता था वो वह कोई भी शलाका ग्रहण नहीं करता था। कितने लोगों ने कितनी और किस प्रकार की शलाका ली है तथा कितने लोगो ने दोनो प्रकार की शलाकाऍ ली है इसकी गणना के आधार पर निर्णय लिया जाता था। इन सभाओं में पुरुष तथा महिला सेवक उपस्थित रहते थे तथा अन्य लोग भी उपस्थित रह सकते थे किंतु उनको ‘सन्नीपात’ में भाग लेने का अधिकार अर्थात् मताधिकार नहीं होता था।
यह सब प्राचीन काल के प्रजातंत्र की एक व्यवस्था का रुप है । हमे यह ज्ञात होता है कि भिन्न मतों के लोगों का पूर्ण एकत्त्व के साथ सह अस्तित्त्व में रहना बडा कठिन था। सौ मूर्खों को पढ़ाने के बजाय एक बुद्धिमान तथा परिश्रमी छात्र को पढ़ाना कहीं ज्यादा अच्छा होता है। यदि राजा विवेकवान हो तो उसके शासन में निकम्में लोगों के भी अनुशासित जीवन जीने की संभावना बन जाती है तथा समाज में एक संरचनात्मक भाव जाग जाता है। चूंकि गणतंत्र स्वयं की सीमित भौगोलिक तथा सांस्कृतिक सीमाओं में ही आबद्ध रहे तथा स्वयं के अभिमान तथा अशिष्टता के कारण उन्होने परस्पर मेलजोल को भी स्वीकार नही किया, इसी कारण से सिकन्दर के आक्रमण के समक्ष वे सभी गणतंत्र धराशायी होकर अनुपयोगी सिद्ध हुए।
उस युगमें पश्चिमी भारत में गणतंत्रिक व्यवस्था का बोलबाला था। पूर्व में मगध साम्राज्य के बाहर कुछ ही गणतंत्र थे। पश्चिम भारत में गांधार, तक्षशिला, मालव आदि गणतंत्र थे। चाणक्य ने समझ लिया था कि गणतांत्रिक व्यवस्था एक मजबूत राजनैतिक व्यवस्था नही है। यह तब ही तक ठीक है जब तक कि कोई बाह्य आक्रमण अथवा बाह्य प्रदेश से कोई हिंसक प्रहार नही होता है। यह तब भी काम कर सकते है यदि युद्ध को सनातन धर्म के निर्देशानुसार नैतिक आचरण के साथ लड़ा जावे। वेदो में हमे इसी प्रकार के गणतंत्रों का वर्णन मिलता है। यह सभी गणतंत्र लम्बे समय तक बने रहे क्योंकि उस काल में न तो कोई विदेशी आक्रमण हुआ और न पाशविक हिंसात्मक प्रहार तथा उस समय लोगों में धर्म के प्रति सम्मान भाव था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]‘जय योधेय’ उपन्यास के अन्त में राहुल सांस्कृत्यायन ने कालिदास पर एक अध्याय लिखा है। यद्यपि वे कालिदास कवि रुप के प्रशंसक रहे फिर भी इस अध्याय में योधेय गण प्रमुख जय कालिदास पर आरोप लगाता है कि यद्यपि तुम्हारे मेघदूत का मेध हमारे योधेय गण राज्य से गुजरा फिर भी उसने हमारी उपेक्षा की। यह मात्र वैयक्तिक पुर्वाग्रह है क्यों कि कालिदास ने केवल अपने क्षेत्र विदर्भ का ही वर्णन कर सीधे कहानी को आगे बढ़ादिया है इसमें उनका कोई राजनैतिक दुर्भव नहीं था।