गुप्त वंश का स्वर्णिम युग
यह पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि क्षत्रियता के गुण में आनुवांशिकता का अधिक महत्त्व नहीं है। तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी इतिहासकारोने इतिहास के इस तथ्य को जानबूझ कर छिपाते हुए यह षडयंत्रकारी प्रचार किया कि ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों ने मिलकर अन्य वर्णों के प्रति भेदभाव करते हुए उनका दमन किया। इसका सत्य से दूर का भी संबंध नही है तथा इस आरोप का कोई आधार नहीं है।
गुप्ता लोगों का संबंध वैश्य वर्ण से है। विश्व, वैश्य, वेश जैसे शब्दों का मूल ‘विश्’ है। इस मूल शब्द के अनेक अर्थ निकलते है जैसे – ‘अन्तरगमन’, ‘उलझजाना’, ‘एकाकार होना’, ‘सर्व समाहितकारी’ आदि । वेद के नारायणोपनिषद के अनुसार ‘यह विश्व एक पंछी के घोंसले के सदृश्य है[1]’। इस कथन का तात्पर्य यह है कि सबको एक साथ, प्रेमभाव, स्नेह और समरसता के साथ रहना चाहिए। आधुनिक समय में इसका पर्याय ‘वैश्विक ग्राम’ की अवधारणा में है। समाज के सामान्य जन का दृष्टिकोण सभी प्रकार के देवताओं के प्रति आदर युक्त रहता है यह हम सबके देखने में आता है[2]।
खेती, पशुपालन और व्यापार जैसे कार्य आम जन द्वारा ही संपन्न होते है। कुछ सदियों पूर्व तक जीवन यापन के लिए खेती, व्यापार, विपणन, पशुपालन और इनसे जुडे काम-धन्धे ही उपलब्ध थे। गांव में सुतार हल बनाते, मूलस, कुल्हाडी, बैलगाडी के चक्के आदि बनाते थे। कुम्हार मिट्टी के बरतन, नांद, तसले, पानी के घड़े आदि का निर्माण करते थे। यह ग्रामिण जीवन यापन का सहयोगी धन्धा था।
वेदो में हम ऐसे पच्चीस से अधिक व्यवसायों का संदर्भ पाते हैं। बाद के ग्रंथों में हमें पूग, श्रेणी तथा निगम आदि संगठनात्मक व्यवस्थाओं का संदर्भ भी मिलता है। यह उस समय के व्यापार – विपणन से संबंधित प्रचलित संगठन थे जैसे कि आजकल की कला समितियॉ, चेम्बर ऑफ कामर्स, आदि है। यह सब वैश्यों के गतिविधियों के अन्तर्गत आती हैं। अमरकोश के द्वितीय अध्याय का नाम ‘वैश्य वर्ग’ है। यह तथा इसका पश्चातवर्त्ती अध्याय ‘शूद्रवर्ग’ प्राचीन भारत में सामान्य जन के जीवन पर प्रकाश डालता है।
गुप्त राजवंश अधिष्ठाता श्रीगुप्त था। उसके बाद घटोत्कचगुप्त हुआ। आज भी वैश्य जाति में गुप्ता उपनाम अत्यधिक प्रचलित है। मनुस्मृति तथा अन्य ग्रंथों में इसे वैश्यों के उपनाम के रुप में ही प्रयुक्त किया गया है गुप्ता शब्द का अर्थ ‘जो सुरक्षा देते है’ । आम आदमी को संसार अतिप्यारा लगता है और संसार के लिए आम आदमी की बडी आवश्यकता है। गुप्ता समुदाय विश्व के ‘ट्रस्टी’ (विश्वस्त) के रुप में जाने जाते है। गुप्ता लोग इसी परम्परा से आये थे । वे असाधारण क्षात्र भाव से युक्त रहे थे । अतः स्वभाव से वे क्षत्रिय थे ।
गुप्त – साम्राज्य
गुप्त राजवंश में चन्द्रगुप्त प्रथम का नाम प्रमुख है। वह घटोत्कचगुप्त का पुत्र था। उसने लिच्छवि वंश की कुमारदेवी से विवाह किया था। तदुपरांत समुद्रगुप्त तथा अन्य राजा दावा करते रहे कि वे लिच्छवि राजवंश के वंशज है। लिच्छवियों को गौरवान्वित करने का क्या कारण हो सकता है?
बुद्ध के समय में जो सोलह जनपद अस्तित्त्व में थे उन मे से एक वज्जीगण था जिसकी शासकीय राजधानी वैशाली थी। वे लोग अंत्यत शूरवीर थे किंतु उनके शौर्य में असभ्यता भी थी अतः अन्य गणतंत्रों ने उन्हे व्रात्यक्षत्रिय[3] (पतित क्षत्रिय) कहकर उनका उपहास किया था। एक रुप में लिच्छविगण निपुण सैनिक और योद्धा थे जिन्होने अपने शौर्य को चरमोत्कर्ण तक पहुंचाया था। ऐसी उग्रता से किसी भी समुदाय में अनुशासन में क्षीणता आजाती है। चन्द्रगुप्त प्रथम ने इसी समुदाय की प्रेरणा और सहयोग से एक बृहत्साम्राज्य के निर्माण के प्रयास में सफलता प्राप्त की थी। तथापि उसके संबंध में विस्तृत विवरण का अभाव है।
सौभाग्य से चन्द्रगुप्त प्रथम के पुत्र समुद्रगुप्त के बारे में विस्तृत जानकारियॉ उपलब्ध है। समुद्रगुप्त भारत के महानतम सम्राटों में से एक था। भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने वाले उच्चतम शिखरपुरुषों में से वह एक था। वह चन्द्रगुप्त प्रथम और कुमारदेवी का ज्येष्ठपुत्र नही था। उसके अनेक बडे तथा छोटे भाई थे। फिर भी उसके पिता ने उसकी योग्यता को पहचान कर उसे राजा घोषित कर दिया। इस तथ्य की जानकारी प्रयाग में हरिषेण द्वारा लिखित अभिलेख से मिलती है –
चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने पुत्र को बुला कर कहा "मेरे बच्चे! तुम्हे ही अब शासन की बागडोर सम्हालना चाहिए क्योंकि तुम ही इसके योग्य हो, तुम्हे इस धरा की रक्षा करना है"। यह सुन कर वंहा उपस्थित सभी दूरदर्शी तथा श्रेष्ठजनों ने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की और उन्होने संतोष की सांस ली। उसके अन्य भाई राजकुमारों में इस से द्वेष भाव जागृत हुआ और वे निराश हो गये। धर्म के प्रति अपने पिता के समर्पण को देख समुद्रगुप्त की ऑखे भर आई। उसके पिता ने हर्ष युक्त होकर अपने अश्रुओं से उसके मस्तक को धोते हुए आशीर्वाद दिया[4]।
यह शब्द मात्र काव्यात्मक अलंकरण नही है अपितु क्षात्र के आदर्श को यथार्थ रुप में परिपूर्ण करने के प्रति है जिसकी योग्यता समुद्रगुप्त में थी।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]यत्र विश्वं भवति एक नीळम् (महानारायणोपनिषद् 1.1)
[2]यदि भ्रामक धार्मिक प्रवक्ताओं, ढोंगी पुजारियों, धर्मांध पादरियों, कट्टरपंथी मुल्लाओं और काज़ियों, चर्च प्रचारकों और उनकी साध्वियों आदि का हस्तक्षेप न हो तो हमारे देश का एक सामान्य नागरीक सब धर्मों का समान रुप से सम्मान करता है। इसे मैने अपने जन्मस्थल वाले ग्राम में स्वयं निम्नानुसार होते देखा है – ऊर्स के समय ब्राह्मणों सहित सभी हिन्दू दरगाह पर जाकर अगरबत्ती लगाते थे और प्रसाद लेकर लौटते थे। क्रिसमस की पूर्व संध्या पर जब क्रिश्चियन लोग समूह में सभी घरों पर जाते थे तो हिन्दू लोग जागकर उनकी प्रतीक्षा करते थे और उन्हे त्योहार मनाने हेतु दान देते थे और वे लोग चलते हुए ‘केरोल’ गाते थे। मुहर्रम के समय क्रिश्चियन लोग मुसलमानों को पैसा देते थे। मुस्लिम लोग विभिन्न मंदिरों के समक्ष नाचते थे। वे होली की टोपियॉ सिलाई करते थे। वे ‘काली’ तथा ‘मेरी’ माता के मन्दिर जाते थे और वंहा से ‘ताबीज’ बंधवा कर आते थे। क्रिश्चियन लोग भी होली तथा गणेश उत्सव पर नाचते थे।
बेङ्गलुरु के गाळि आञ्जनेय मन्दिर तथा कॉटन पेट के काली मंदिर में बुर्का पहने मुस्लिम महिलाओं की लम्बी कतारों को देख सकते है जो वंहा ‘यंत्र’ अथवा ‘ताबीज’ प्राप्त करने आती है। कितने ही हिंदू है जो बाल ईसा चर्च में मोमबत्तियॉ जलाते है। लोगों को अपनी समस्या के समाधान से मतलब है फिर चाहे वह किसी भी धर्म का आराध्य हो। सामान्य लोगों में पारस्परिक वैमनस्य नहीं है। जिन्होने स्वयं के ऊपर महानता थोप रखी है वे ही अतिवादी दृष्टिकोण से ग्रस्त हैं। यही कारण है कि विश्व में सभी कलाऍ तथा रुचि संपन्नता शांतिपूर्व तरीके से सह अस्तित्त्व में है। विश्व के वैविध्य के संरक्षक जनसाधारण लोग है न कि स्वघोषित बुद्धिजीवीगण। इन प्रतिष्ठितों को विविधता नही चाहिए। वे अपने अतिवादी पूर्वाग्रहों से ही व्यथित है। सामान्य जन ने हमेशा मुक्त हृदय से हर नई और भिन्न वस्तू का स्वागत किया है।
[3]यद्यपि वेदो में व्रात शब्द को क्षत्रिय (योद्धा) और समूह कहा गया है
[4]एह्येहीत्युपगुह्य भावपिशुनैरुत्कर्णितै रोमभिः सभ्येषूच्छ्वासितेषु तुल्यकुलजम्लानाननोद्वीक्षितः स्नेहव्याकुलितेन बाष्पगुरुणा तत्त्वेक्षिणा चक्षुशायः पित्राभिहितो निरीक्ष्य निखिलां पाहि त्वमुर्वीमिति (अभिलेख संग्रह पृष्ठ 2.)