अपने छोटे भाई की सफलता के कारण रामगुप्त में ईर्ष्याभाव बढ़ने लगता है और वह अपने भाई को विभिन्न तरीकों से क्रूरता पूर्ण व्यवहार करता है। उसने अपने भाई की हत्या करने का षडयंत्र भी किया। एक रात अंधकार में छिपकर जब उसने चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य पर आक्रमण किया तो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने जिसे आक्रमणकर्त्ता की पहचान न होने से, पलटवार करते हुए रामगुप्त को मार डाला। बाद में उसने ध्रुवदेवी से विवाह कर सिंहासनासीन हो गया। यही सार संक्षेप में देवीचन्द्रगुप्त नाटक की कहानी है[1]।
अनेक इतिहासज्ञ तथा विद्वान रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की उक्त वर्णित कहानी से सहमत नहीं है – वे ऐतिहासिक सत्य के रुप में इसे अस्वीकार करते हैं। यहा तक कि महाग्रंथ ‘द हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ द इंडियन पिपल’ के प्रमुख संपादक भी विशाखादत्त के इस नाटकीय कथ्य को महत्व नही देते है। किंतु यह भी सत्य है कि विशाखादत्त जैसा गंभीर कवि कभी भी मात्र बनावटी कहानी पर नाटक नहीं लिख सकता है। मुझे प्रतीत होता है कि उक्त इतिहासकार इस बात से पूर्ण परिचित नहीं है कि नाटक भी हमारी साहित्य परम्परा का ही अंग है। परम्परानुसार किसी भी नाटक का वस्तु-विषय आवश्यक रुप से किसी ऐतिहासिक घटना अथवा पुराण आधारित होना चाहिए। नाटक में कुछ भागों में यंहा वंहा कवि अपनी कल्पनानुसार परिवर्तन तो ला सकता है किंतु वह प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं के साथ छेडछाड़ नही कर सकता है। उदाहरणार्थ कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल में दुष्यंत की कहानी मूल महाभारत में वर्णित कहानी से भिन्न है। दुष्यंत द्वारा शकुंतला को अंगुठी देना और फिर ऋषि दुर्वासा का श्राप आदि कालिदास की स्वरचना है तथापि दुष्यंत और शकुन्तला का अस्तित्त्व, दुष्यंत का शकुंतला पर संदेह करना एवं भरत को स्वयं का पुत्र मानने में संकोच करना आदि सभी तथ्य हम महाभारत में पढते है और उसे अपना इतिहास मानते है।
जब हम इस पृष्ठभूमि के प्रकाश में देवीचन्द्रगुप्त नाटक की समीक्षा करते हैं तो हमें शक राजा, रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के व्यवहार और चरित्र को तथ्याधारित रखना आवश्यक है और इससे यह यह तर्क संगत लगता है कि इस नाटक का मुख्य विषयवास्तु ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। बाणभट्ट ने भी अपनी कृति ‘हर्षचरित’ में इस घटना को दोहराया है। इन सब आधारो से कहा जा सकता है कि ‘देवीचन्द्रगुप्त’ नाटक ऐतिहासिक घटना पर आधारित है।
कुछ लोग चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा रामगुप्त की पत्नी के साथ विवाह करने को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं। संस्कृत में पति के भाई को देवर कहते हैं। ‘निरुक्त’ में इस शब्द को ‘दूसरा पति’ (द्वितीय वरः देवरः) कहा गया है। क्षत्रियों में यह प्रथा रही है कि विधवा अपने देवर से विवाह कर लेती है। आज भी पंजाब में जाट समुदाय में यह प्रथा ‘चद्दर डालना’ के रुप में प्रचलित है। प्राचीनकाल में पुरुष वर्ग मुख्य रुप में सैन्य सेवा में रहते थे जंहा उनकी जान सदैव संकट में रहती थी। ऐसी स्थिति में जब पति की मृत्यु हो जाती थी तो उसकी दुर्भाग्यशाली विधवा को पुनः वैवाहिक जीवन का एक अवसर इस प्रथा से मिल जाता था। हमारी परम्परा में विधवा विवाह के अनेक प्रमाण मिलते है – जैसे ऋगवेद संहिता के दसवें मण्डल का मृत्यसुक्त, अर्थशास्त्र, पुराणस्मृति, बृहत्संहिता, तथा अन्य ग्रंथ
राहुल सांकृत्यायन जैसे लोग जो हमारी परम्परा में नारी को पुरुषों से कमतर माने जाने को लेकर बहुत हो हल्ला मचाते है वे भी चन्द्रगुप्त का ध्रुवदेवी से विवाह करना तिरस्कार पूर्ण समझते हैं। किंतु उनका यह विवाह क्षात्र प्रथा के अनुरुप था। ऐसी स्थिति में राहुल सांकृत्यायन के दृष्टिकोण को क्या समझा जावे ? इससे यह सुस्पष्ट हो जाता है कि ऐसे लोग केवल अपने पूर्वाग्रहों के अतिरिक्त सत्य की भी चिंता नही करते !!
कुमारगुप्त चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और ध्रुवदेवी का पुत्र था। कुबेरनाग, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की दूसरी पत्नी थी जो नाग वंश से संबंध रखती थी। उस समय में यदि राजा को स्थायित्त्व रखना होता था तो इस प्रकार के विवाह आवश्यक हो जाते थे। आज भी हम इस प्रकार के वैवाहिक संबंधों को बडे व्यापरिक घरानों में, शक्ति संपन्न राजनैतिक परिवारो में, प्रसिद्ध सिनेमा अभिनेताओं में तथा प्रसिद्ध खिलाडियों में देख सकते हैं जंहा प्रेम संबंधों से ज्यादा ऐसे वैवाहिक संबंधों की आवश्यकता ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इस प्रकार के विवाह समाचारों में अब अक्सर ही सुनने में आते रहते थे और तब भी ऐसे संबंधों में भी प्रामाणिक प्रेम संबंध के अस्तित्त्व को अस्वीकृत नही किया जा सकता है।
सार यह है कि – जैसा कि संस्कृत कहावत है ‘नदी सदैव समुद्र की ओर ही बहती है[2]’, धनाढ्य तथा शक्ति संपन्न लोगों के वैवाहिक संबंध अपने समकक्ष लोगों के मध्य ही होते है। ऐसे विवाह की सफलता और समस्याओं के प्रबंधन का दायित्त्व वैवाहिक युगल द्वारा ही किया जाता है। ऐसे में हमें ऐसे संबंधों के प्रति तिरस्कार करने का क्या औचित्य है ? यदि दो राज्यों के मध्य ऐसे संबंधों से शांति स्थापित होती है और उनकी प्रजा सुख चैन से रह सकती है तो हमें इसमें विरोध क्यों करना चाहिए ?
चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस निकटर की पुत्री हेलन से विवाह किया था, परिणाम स्वरुप बेक्ट्रीया में ग्रीक तथा उनके पूर्वीय सीमा वर्त्ती भारतीय भूभाग पर भारतीय लोग शांति से रह सके। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की पुत्री प्रभावतीगुप्त[3] का विवाह वाकाटक के रुद्रसेन द्वितीय से हुआ था जो उस समय आजके तेलंगाना कहे जाने वाले क्षेत्र का शासक था। यह क्षेत्र नर्मदा के दक्षिण और गोदावरी नदी के उत्तर में स्थित था। गोदावरी तथा कावेरी नदी का मध्यवर्ती क्षेत्र कर्णाटक था । उस समय में यंहा का शासक काकुत्स्थवर्मा था जो तालगुण्डा के अभिलेखानुसार सुप्रसिद्ध कदम्ब राजा था।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने पुत्र कुमारगुप्त का वैवाहिक संबंध काकुत्स्थवर्मा की पुत्री के साथ जोडा। उस समय में कर्णाटक को कुन्तल प्रदेश कहा जाता था। प्रकटतः इस संबंध को जोडने स्वयं कवि कालिदास को व्यक्तिगत रुप से यंहा आना पडा था। विद्वानो का यह मत है कि कालिदास की आज अनुपलब्ध कृति ‘कुन्तलेश्वरदौत्य’ या तो उनका कविता संग्रह है या एक कविता है। वह चाहे जो हो, इस कृति का संदर्भ भोजराज ने अपने ‘शृङ्गारप्रकाश’ में तथा क्षेमेन्द्र ने ‘औचित्यविचारचर्चा’ में दिया है। कर्णाटक की यह कन्या कुमारगुप्त की पत्नी बनकर स्कंधगुप्त की माता बनी। अब इसे आप राजनीति कहें या कुछ और, किंतु जबतक ऐसे विवेकी वयोवृद्ध लोग रहेंगे तब तक राज्य में शांति का वातावरण बना रहेगा।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान, कवि, नाटककार जयशंकर प्रसाद ने भी इसी विषय पर ‘ध्रुवस्वमिनी’ नामक नाटक लिखा है।
[2]नदीनां सागरो गतिः ।
[3]उसका तीसरा पुत्र प्रवरसेन बहुत बडा प्राकृत कवि था | उसने सेतुबन्धकाव्य कि रचना किया |