प्राचीन आंध्र में हमें इस प्रकार के क्षात्र भाव के दर्शन नहीं होते हैं। वहां के प्रथम शासक सातवाहन लोग थे किंतु उन्होंने पूरे दक्षिण भारत पर शासन किया था। आंध्र में वही के स्थानीय शासकों में काकातीय वंश प्रमुख है गणपतिदेव (1198-1262) काकतीय राजवंश का मुख्य शासक रहा है। बाल्यावस्था में ही उसे यादवों ने बंदी बना लिया था किंतु उसने स्वयं को स्वतंत्र कर अपना एक अलग साम्राज्य खड़ा कर लिया। यह काकतीय साम्राज्य गणपतिदेव के प्रयासों के कारण लगभग सौ वर्षों के कुछ अधिक समय तक टिका रहा।
रुद्रमदेवी का महा पराक्रम
गणपतिदेव के उपरांत उसकी एकमात्र पुत्री रुद्रमदेवी (1262-96) ने शासन का कार्यभार ग्रहण किया। उसने अनवरत छत्तीस वर्षों तक साम्राज्य पर शासन किया। उसका पति चालुक्य वीरभद्रेश्वर था। गणपतिदेव का कोई पुत्र नहीं था। रुद्रमदेवी का भी कोई पुत्र नहीं था। रुद्रमदेवी की पुत्री मुम्मुडय्य का पुत्र प्रतापरुद्रदेव था। प्रतापरुद्रदेव के नाम को आगे रख कर रुद्रमदेवी ने शासन किया था। दक्षिण भारत में ऐसी महान रानियों का होना कोई असाधारण घटना नहीं थी।
रुद्रमदेवी को अपने विद्रोही पति के साथ भी युद्ध करना पड़ा था जिसमें उसने अपने पति पर मरणांतक वार किया था। जब उसके सौतेले पुत्रो मुरारीदेव तथा हरिहरदेव ने उसके नाति प्रतापरुद्रदेव को मारने का षड्यंत्र किया तो उसने स्वयं अपनी महिला सेना के साथ इन दोनों को भी मार डाला। उसने अपनी दूरदर्शिता तथा कूटनीतिक चातुर्य से अनेक पुरुष सेनापतियों को नियंत्रित किया जो स्वभाव से निरंकुश थे। जब चोल शासक कोप्परंजिंगा तथा जटावर्मा सुंदरपांड्या ने बड़ी सेना के साथ उस पर जल तथा थल मार्ग से आक्रमण किया तो उसने उन्हे परास्त कर भगा दिया । इन सभी युद्धों में उसके साथ दृढ़ता से सहयोग करने वाले सेनापतियों में अंबदेव, जन्निगदेव, कोलनिरुद्र तथा अन्नमंत्रिश्वर थे। यह सेनापति गण समाज के विभिन्न वर्णों तथा परिवेश से संबंध रखते थे फिर भी मातृभूमि की रक्षा तथा विजय हेतु बिना पौरुषीय श्रेष्ठता भाव वे सब एक होकर रुद्रमदेवी के नेतृत्व में युद्ध करते रहे।
रुद्रमदेवी स्वयं भी पुरुष सैन्य वेश में युद्ध भूमि में सब ओर घूम घूम कर निरीक्षण करती थी। उसने बड़ी दक्षता के साथ उत्तर के देव गिरी यादवों से अपने साम्राज्य की रक्षा की थी।
उसके समय में शैव तथा वैष्णवों के मध्य का विवाद चरम सीमा पर पहुंच गया था। ऐसे समय में आंध्र के ख्याति प्राप्त कविब्रह्मा तिक्कन सोमयाजी ने केवलाद्वैत दर्शन द्वारा हरि तथा हर को साथ लाकर दोनों समुदायों के मध्य समन्वय स्थापित कर रानी की मदद की थी।
रुद्रमदेवी ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। उसने कवियों तथा विद्वानों को प्रश्रय दिया था। प्रतापरुद्र के शासन काल के अंतिम वर्षों में महान विद्वान तथा टीकाकार ‘व्याख्यानशिरोमणि’ कोलाचल मल्लिनाथ सूरी इनके दरबार की शोभा थे। इनके दादा भी मल्लिनाथ थे जो एक शतावधानी थे[1]। रुद्रमदेवी ने इस मल्लिनाथ का कनकाभिषेक किया था। मल्लिनाथ के मामा विद्यानाथ ने अलंकारशास्त्र पर एक ग्रंथ ‘प्रतापरुद्रयशोभूषण’ की रचना की थी।
दक्षिण भारत में प्रारंभिक हिंसक इस्लामिक आक्रमण के प्रवाह को प्रतापरुद्र ने बडी वीरता के साथ रोक कर अपने साम्राज्य की सुरक्षा की थी। उसका मुख्यमंत्री बहुत बुद्धिमान युगंधर था। तेलगू की अनेक लोककथाऍ उसके शौर्य, बुद्धिमत्ता तथा चतुरता का बखान करती है।
एक बार प्रतापरुद्र को पकड़कर दिल्ली में बंदी बना लिया गया था तब युगंधर ने एक मांत्रिक के वेश में यमुना नदी में एक बड़ा सुन्दर जहाज खडा कर घोषणा की कि इसका मूल्यांकन केवल एक राजा ही कर सकता है। तब प्रतापरुद्र को सुरक्षा सेवकों के साथ इस कार्य हेतु भेजा गया । जैसे ही प्रतापरुद्र जहाज पर आया, सुरक्षा सेवकों को दूर कर तत्काल जहाज को बड़ी तेजी से ले जाते हुए प्रतापरुद्र को मुक्त करा लिया गया।
पराक्रमी योद्धा महिलाऍ
रुद्रमदेवी जैसी कर्नाटक में अनेक वीर रानियॉ हो गई है। ऐसी ही एक योद्धा बेलवडी मल्लम्मा थी। तीन सौ पचास गांवों का एक स्वतंत्र स्थापना वासा बेलवडी आज के बैलहोंगल (बेळगावी जिले में) के निकट बसा था। मल्लमा का पति ईशप्रभु था। उसने बीजापुर सल्तनत का विरोध कर शिवाजी के साथ मैत्री संबंध बनाने का निश्चय किया था। परन्तु मराठाओं ने उसकी सीमा में घुस कर पशुओं की चोरी कर ली। इससे क्रोधित होकर उसने मराठों से युद्ध किया और मारा गया। अपने पति के शव के रणभूमि में पड़े रहने से भी अप्रभावित रहते हुए मल्लमा युद्ध करती रही।
यद्यपि मल्लमा युद्ध हार गई फिर भी उसके शौर्य, साहस और सहनशीलता से प्रभावित होकर शिवाजी ने उसका राज्य उसे वापस लौटा दिया। बाद में उसने अपने पति के सम्मान में अनेक प्रशंसात्मक शिलालेख खडे किये। किंतु वह अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकी।
यादवगढ के देवालय में एक सुन्दर शिल्प है जिसमे शिवाजी मल्लमा के पुत्र को दूध पिला रहा है। शिवाजी मल्लमा को अपना सहोदरी मानते थे और उसकी मरणोपरांत उसका पुत्र को पोषण किया ।
रणभैरवी ऐसी ही एक और योद्धा महिला थी जो अपनी वृद्धावस्था में युद्ध भूमि पर गई थी। चालुक्य वंशी अक्कादेवी का शौर्य भी उसे श्रेष्ठ योद्धा का श्रेय प्रदान करता है। चेन्नभैरादेवी जो गेरुसोप्पा की एक जैन रानी थी वह भी पुर्तगालियों के विरुद्ध बड़ी वीरता के साथ लड़ी थी और उसी प्रकार मैंगलोर की बंट रानी अब्बक्का थी।
औरंगजेब के हमलों को सहन न कर पाने के कारण शिवाजी के दूसरे बेटे राजाराम ने बिदनूर की चेन्नम्माजी की शरण प्राप्त की थी। सन 1671 में उसका पति अपने दुर्गुणों में फसकर मारा गया था। उसने मैसूर के चिक्कदेवराय वडेयर के साथ युद्ध किया था तथा हार गई थी। फिर भी वह राजाराम के लिए औरंगजेब के साथ युद्ध कर जीत गई थी। उसने वह उपलब्ध किया था जो भारत का कोई भी पुरुष योद्धा भी प्राप्त नहीं कर पाया था।
यूरोप में ऐसी वीर योद्धा महिलाओं के उदाहरण कम ही देखने में आते हैं। जोन आफ आर्क तथा एलिजाबेथ प्रथम मात्र अपवाद है। यहां भी हमें यह याद रखना होगा कि इनमे से किसी ने भी हथियार उठाकर रणभूमि में संग्राम नही किया था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]प्रारंभिक ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार वे संस्कृत के पहले शतावधानी थे