होयसल विष्णुवर्धन
क्षात्र परम्परा के अन्य शिखर होयसल सम्राट बिट्टीदेव अर्थात विष्णुवर्धन हुए हैं। उसने अपने साम्राज्य को तिरुचिरापल्ली से कृष्णा नदी तक विस्तारित किया था। उसने अनेक युद्ध जीते थे। उसने अनेक शिव, विष्णु तथा जैन मंदिरों का निर्माण करवाया था। बेलूर-हळेबीडु का आश्चर्य जनक अत्यंत मोहक स्थापत्य तथा शिल्पकला से युक्त मंदिर का निर्माण उसी के प्रोत्साहन का प्रतिफल है। कुछ लोगों के मत में वह ‘श्रीवैष्णव’ बना गया था किंतु यह तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है। विष्णुवर्धन उनका मूल नाम था[1]। तथापि यह सत्य है कि बिट्टीदेव अपने समकालीन रामानुजाचार्य का बहुत सम्मान करता था।
बिट्टी देव ने बडी दूरदृष्टि के साथ यह सुनिश्चित किया था कि उसके राज्य के सभी शहरों की आधारभूत अधोसंरचना सही रूप में स्थापित हो। अनजाने में ही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि बाद के वर्षों में स्थापित विजयनगर साम्राज्य की आवश्यक नींव उसके द्वारा ही निर्मित कर दी गई थी। आज भी हम सैकड़ों होयसल मंदिरों को उस क्षेत्र में देख सकते हैं जहां कभी होयसलों का आधिपत्य था। उन्होंने मंदिर निर्माण तथा सभी वैचारिक मतों के पवित्र केंद्रों के निर्माण कार्य को सहयोग किया था।
देवगिरि के सेवुण
बाद के काल में जो बड़ी शक्ति के रूप में उभरे वे सेवुण लोग थे। उन्हें देवगिरी यादवों के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने आज के महाराष्ट्र क्षेत्र पर शासन किया था। वे कन्नडिगा थे तथा सनातन धर्म को मानने वाले थे। वे ग्वाला तथा गडरिया जाति से थे । उनका उद्भव अत्यंत ही सामाजिक रूप से पिछड़ेपन की स्थिति से हुआ था। वास्तव में ऐसे ही लोग हमारे इतिहास में दृढ़ता के साथ बने रहे।
देवगिरि यादवों में सिंघण द्वितीय (तेरहवीं शताब्दी) सबसे प्रमुख है। सिंघण अर्थात सिंह के समान राजा। वह एक वीर नायक था। उसने शिलाहार भोज को हराया था तथा इस्लामिक लुटेरों को पीट पीट कर भगा दिया था। गुजरात से गोवा तक का पूरा पश्चिमी समुद्री तटवर्ती क्षेत्र उसके शासनाधीन था। उसने अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में शिवमोग्गा से लगाकर पूर्व में कर्नूल-कडप्पा तक किया था। उनके मुख्यमंत्री हेमाद्री ने धर्मशास्त्र संबंधी ग्रंथ “चतुर्वर्गचिंतामणि” की रचना की थी। जहां तक रचना की लम्बाई और आकार का प्रश्न है यह कृति वेदव्यास के महाभारत से भी बडी है[2]। विश्वकोश के समान हेमाद्री ने अनेक कृतियों की रचना की थी। उसने विद्वतापूर्ण तथा विस्तृत रूप से अनेक विषयों पर ग्रंथों का निर्माण किया जिसमें आयुर्वेद, अलंकारशास्त्र, व्याकरण, इतिहास और पुराण शामिल हैं।
हेमाद्री न केवल अनेक विषयों पर प्रचुर मात्रा में लेखन करने वाला एक विद्वान लेखक ही था किंतु साथ ही साथ उसने कई कुएं, बावड़ी, तालाब तथा धर्मशालाओं का निर्माण भी करवाया था। उसने राज्य में भूमि विकास, कराधान तथा राजस्व आय के लिए कई नई व्यवस्थाओं को स्थापित किया था। उसकी उदारता, करुणा तथा विवेक संबंधी अनेक कहानियॉ कही जाती है।
सिंघण का विद्वानों के प्रति आकर्षण तथा हेमाद्री की प्रतीक्षा युक्त असाधारण क्षमता ने मध्य भारतीय क्षेत्र को एक वैभव पूर्ण स्थिति प्रदान की जो स्वर्णिम काल के बाद उसके समकक्ष थी। यहां भी हम ब्राह्म तथा क्षात्र की युति का उत्कृष्ट समन्वय देखते हैं। भास्कराचार्य का पोता शारंगदेव भी सिंघण के दरबार का एक सदस्य था। एक प्रखर खगोलशास्त्री होने के साथ साथ उसने संगीत, नृत्य, साहित्य रचनाओं तथा संगीत वाद्यों पर मौलिक आधारभूत कृतियों की रचना की थी। उसने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘संगीतरत्नाकर’ की भी रचना की थी। भरत मुनि के पश्चात उसने ही इन विषयों पर सुनिश्चित सिद्धांत दिये है।
जब तक सिंघण जीवित रहा, दक्षिण भारत में इस्लामिक शक्तियॉ प्रवेश नहीं कर पाई। वह एक अभेद्य किले की भांति पूरे क्षेत्र की रक्षा करता रहा। किंतु उसके बाद आने वाले राजा दुर्बल तथा शक्ति हीन थे।
विजयनगर साम्राज्य का वैभव
अब हम विजयनगर साम्राज्य के विषय पर चर्चा करेंगे जिस पर चार राजवंशों ने शासन किया था – संगम, साळुव, तुळुव तथा आरविडु। इसमें भी संगम तथा तुळुव राजवंशों के समय में विजयनगर साम्राज्य अपने शिखर पर था। विजयनगर साम्राज्य का महत्व विशेष रूप से इसलिए भी है क्योंकि मुस्लिम शासकों से सीधे सीधे लड़ने और उनका विरोध करने का कार्य उनके शासकों द्वारा किया गया था। इसके पहले तक हिन्दू राजा परस्पर ही लड़ते रहते थे। किंतु मुस्लिमों से दक्षिण भारत में सीधी लड़ाई विजयनगर के शासकों द्वारा ही प्रारम्भ की गई[3]।
होयसल के क्षत्रप संगम के पांच पुत्रों में हरिहर (हक्क) और बुक्क प्रमुख है। वे हालुमत या कुरुबा (गडरिया) समुदाय के थे। उन्होंने अपने कुल पुरोहित तथा आध्यात्मिक गुरु माधवाचार्य[4] की प्रेरणा तथा मार्गदर्शन में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की थी । माधवाचार्य बाद में सन्यास ग्रहण कर विद्यारण्य स्वामी के नाम से जाने गये।
अद्यतन शोध से ज्ञात होता है कि रानी श्रीवीरकेक्कायी (बल्लाल तृतीय की पत्नी) ने होसवूरु (आज का होसपेट) में होयसल साम्राज्य का सर्वाधिकार अपने सेनापति संगम को प्रदान कर दिया था। विजयनगर के संगम शासकों ने मुस्लिम हमलों को रोकने के लिए छिपे तौर पर धन, शक्ति तथा संसाधनों का संचय किया। और फिर पूरे दक्षिण भारत के लोगों में सामूहिक मनोबल को जागृत कर इस एक लक्ष्य के लिए सभी आपसी मतभेद भुलाकर मुस्लिमों को हटाया जा सका। किंतु एकता और शक्ति का यह भाव संगम के बाद हल्का पड़ गया। इसका एक कारण यह भी था कि उनके सैन्य बल का आधुनिकीकरण नही किया जा सका था। साथ ही उत्तराधिकारियों की पतनोन्मुख जीवन चर्या के कारण सतत सुरक्षा की सतर्कता कमजोर होती गई।
पांचो संगम भाइयों में, मुद्दप्पा साम्राज्य के केन्द्र में शक्ति स्रोत था, मारप्पा समुद्र तट का प्रहरी था। उसका मार्गदर्शन उसका योग्य विद्वान मंत्री अंगीरस माधव कर रहा था जिसने गहन शास्त्र अध्ययन कर ‘सूतसंहिता’ पर टीका लिखी थी। सायणाचार्य के नेतृत्व में बड़े भाई कंपण तथा उसके पुत्र संगम द्वितीय ने आंध्र में भुवनगिरि क्षेत्र को अपने कार्यों का केंद्र बनाकर पूर्वी समुद्री तट को सुरक्षित रखा। सायणाचार्य विद्यारण्य का अनुज था तथा अनेक विषयों के अतिदक्ष विद्वान थे। विद्वाता के साथ साथ वे एक कुशल प्रशासक और अजेय योद्धा भी थे। दोनों भाई सायण-माधव में क्षात्र और ब्राह्म का अद्वितीय समागम का एक आदर्श उदाहरण हमें देखने को मिलता है।
हरिहर की मृत्यु के उपरांत उसके छोटे भाई बुक्कराय के शासन काल में विजयनगर साम्राज्य की समृद्धि में और बढ़त हुई। बुक्कराय का पुत्र कंपण द्वितीय (जो हरिहर द्वितीय के नाम से भी जाना जाता है) ने पूरे दक्षिण भारत को मुस्लिम अत्याचारों से मुक्त करवाकर सनातन धर्म को वहां पुनर्जीवन प्रदान किया। इस संबंध में पूरी विस्तृत जानकारियां हमें रानी गंगादेवी के महाकाव्य ‘मधुराविजय’ द्वारा प्राप्त होती है[5]।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]‘विष्णु’ शब्द ‘बिट्टी’ और ‘बिट्टीग’ शब्द का पर्यायवाची है जो मात्र ‘तद्भव’ रूप है। जिस प्रकार ‘कृष्ण’, किट्टी, किट्टा या किट्टू बनजाता है। यह पूरी कहानी कि बिट्टीदेव नामक जैन राजा ने श्रीवैष्णव बन कर विष्णुवर्धन नाम रख लिया, पूर्णतः आधारहीन है ।
[2]हेमाद्री के इस ग्रंथ में सन्दर्भ सूची की परास चकरा देने वाली है। उसने लगभग सभी धर्म ग्रंथों, पुराणों, वेद संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यक, और उनकी टीकाओं का संदर्भ दिया है। संभवतः प्रत्येक ज्ञात ग्रंथ का संदर्भ दिया गया है। शायद ही कोई ग्रंथ उसकी सूची में आने से बचा हो।
[3]विजयनगर साम्राज्य के संबंध में व्यापक जानकारी बी.ए. सलेतोर की अति श्रेष्ठ पुस्तक “सोशल एंड पॉलिटिकल लाइफ इन विजयनगर एम्पायर’ में दी गई है।
[4]मेरे द्वारा कन्नड भाषा मे लिखित पुस्तक ‘विभूतिपुरष विद्यारण्य’ में विस्तार से विद्यारण्य तथा उनके भाई सायणाचार्य की उपलब्धियों की जानकारी दी गई है।
[5]अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर, मोहम्मद बिन तुगलक (उलुग-खान) गियासुद्दीन मोहम्मद दमधनी तथा अन्य कई हिंसक मुस्लिम आक्रांताओं ने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया था। इसके पहले तक विंध्याचल के दक्षिण में हिंसा का ऐसा नंगा नाच कभी नहीं हुआ था। अंततः उन्होंने मदुरई सल्तनत की स्थापना कर ली थी। विद्यारण्य स्वामी की दूरदृष्टि ने दक्षिण भारत को बचाया। बुक्कराय की पुत्रवधू गंगादेवी जो संस्कृत की प्रतिभाशाली कवयित्री थी ने अपने महाकाव्य में अपने पति कुमार कंपण के साहसिक कार्यों को लिखा है। काव्य के आठवें सर्ग में आज के तमिलनाडु क्षेत्र में मुसलमानों द्वारा किये अत्याचारों का मार्मिक विस्तृत विवरण है । इसकी पुष्टि मुस्लिम यात्री इब्न बतूता के यात्रा विवरण से हो जाती है। यह रक्त रंजित कहानी हत्याओं, बलात्कारो, लूट, तोड़फोड़ तथा देवालयों और मठों को तोडने व नष्ट करने के हिंसात्मक और निर्दयी कृत्यों का वर्णन है जिसमें कला और संस्कृति को नष्ट करते हुए हिंदुओं को बलपूर्वक मुसलमान बना कर अपना गुलाम बनाया गया। कंपण ने मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध करते हुए उन्हें बाहर भगाया। इसके साथ ही उसने हिन्दू कला शिल्प और संस्कृति के पुनर्स्थापनार्थ अथक प्रयास भी किए।