History

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 17

जितनी स्वतंत्रता की आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता हमें संयम और आत्मानुशासन की भी है। जब हम नियंत्रणों का सम्मान करना जान लेंगे तब ही हमे अधिकार और सुविधाएँ प्राप्त हो सकती है। निरंकुश स्वतंत्रता, अनियंत्रित इच्छाविलास, मनमौजी सनक लम्बेसमय तक उपयोगी सिद्ध नही हो सकती है। इसका अनुभव हम भारत पर सिकंदर के आक्रमण के प्रसंग में देख चुके हैं। पौरव (ग्रीक वर्णनानुसार पोरस) सिकंदर से हार गया था। ऐसा कहा जाता है कि पौरव एक गणतंत्र का अधिपति था यद्यपि इसमें कुछ अनिश्चितता है। ऐसी कहानियॉ है कि सिकंदर ने उसके साथ मित्रवत व्यवहार किया था। ग्रीक वर्णन पर कितना भरोसा किया जाय य

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 16

यत्र तत्र इस बात के भी संदर्भ मिलते हैं कि ग्रीक महिलाओं को भारत में काम पर रखा जाता था। श्यामिलक की पुस्तक ‘पाद-ताडितक-भाण’ में कुसुमपुरा में रहने वाले ग्रीक व्यापारियों का वर्णन है। ’मालविकाग्निमित्र’ में कालिदास ने लिखा है – “सिंधु नदी के दूर छोर पर पुष्यमित्र शुंग के पौत्र वसुमित्र ने ग्रीक सेना के विरुद्ध संघर्ष किया था”, किन्तु इन सब में कहीं भी सिकंदर का सन्दर्भ नहीं है। यह आक्रमण सिकंदर के उत्तराधिकारियों द्वारा उसकी मृत्यु के लगभग 150-200 वर्षों बाद किया गया था। हमारे कवियों तथा नाटककारों ने सिकंदर के आक्रमण को हीं भी एक बडे आक्रमण की मान्यता नहीं दी है

ದೇಶೀಯ ಸಂಸ್ಥಾನಗಳನ್ನು ಕುರಿತ ಡಿ.ವಿ.ಜಿ. ಅವರ ಚಿಂತನೆಗಳು - 6

ನರೇಂದ್ರ ಮಂಡಲದ ಅವಾಂತರಗಳು

ಇದರ ಇನ್ನೊಂದು ಪಾರ್ಶ್ವವನ್ನು ಡಿ.ವಿ.ಜಿ. ಅವರ Chamber of Princes (ನರೇಂದ್ರ ಮಂಡಳ) ಕುರಿತಾದ ಸಮಗ್ರ ಲೇಖನಗಳಲ್ಲಿ ಕಾಣಬಹುದು. ಅದರ ತಾತ್ಪರ್ಯವನ್ನು ಈ ರೀತಿ ನಿರೂಪಿಸಬಹುದು.

೧೯೨೦ರಲ್ಲಿ ಆರಂಭಗೊಂಡ ನರೇಂದ್ರ ಮಂಡಲ್ ಸಂಸ್ಥೆಯು ಪ್ರತಿವರ್ಷ ದೆಹೆಲಿಯಲ್ಲಿ ಸೇರುತಿತ್ತು. ಈ ಹೊತ್ತು ನಮ್ಮ ದೇಶದ ಸಂಸದಭವನದ ಗ್ರಂಥಾಲಯ (Parliament Library) ಇರುವ ಕಟ್ಟಡದಲ್ಲಿ ಅದರ ವಾರ್ಷಿಕ ಕಲಾಪ ನಡೆಯುತ್ತಿತ್ತು.

ಅದರ ಧ್ಯೇಯ ಸರಳವಾಗಿಯೇ ಇತ್ತು: ದೇಶೀಯ ಸಂಸ್ಥಾನಗಳ ಆಗುಹೋಗುಗಳನ್ನು, ಸಮಸ್ಯೆಗಳನ್ನು ಬ್ರಿಟಿಷ್ ಸರಕಾರದೊಂದಿಗೆ ಚರ್ಚಿಸುವುದು.

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 13

इन सबमें अद्धितीय भार्गववंशी परशुराम थे। वे ब्राह्म-क्षात्र समन्वय के श्रेष्ठ प्रतीक है। परशुराम द्वारा दुष्ट क्षत्रियों की सुव्यवस्थित विनाश लीला का वर्णन पुराणों में दिया गया है। शास्त्रानुसार आपद्धर्म[1] के रुप में हर कोई क्षात्र धर्म धारण कर सकता है।

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 12

कालिदास की क्षात्र चेतना

कवि शिरोमणि महाकवि कालिदास ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति ‘रघुवंश’ में यह पूर्णतः स्पष्ट किया है कि किस प्रकार एक साम्राज्य में क्षात्र को पोषित किया जाना चाहिए और साम्राज्य की समृद्धि हेतु किस तेजस्विता की आवश्यकता है। कालिदास ने दिलिप तथा रघु जैसे महान राजाओं और अग्निवर्ण जैसे चरित्र हीन तथा अयोग्य राजाओं की तुलना करते हुए स्पष्ट किया कि किन नैतिक सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है।

The Villainous Role of Marxist ‘Historians’ in the Rāma-janma-bhūmi Saga

It is now a foregone conclusion that Ayodhyā was the birthplace of Śrī-rāma and a grand devālaya of Rāma adorned ‘the undefeated city’ until it was broken down during Babur’s reign and a mosque was constructed upon it by his commander Mir Baqi (c. 1528 CE). This was widely known among Hindus for over four centuries. The 9th November 2019 verdict of the honourable Supreme Court of India finally brought an end to the morbid saga and paved the way for the construction of a grand Rāma-mandira.

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 11

इसी शौर्य भाव को हम ऋषि विश्वामित्र में भी देखते हैं जिन्होने राम को क्षात्र दीक्षा प्रदान की थी। एक महर्षि बनने से पूर्व विश्वामित्र ने ब्राह्म के साथ संघर्ष करते हुए ब्राह्म के कठिन पथ के महत्व का अनुभव कर, ब्राह्म क्षात्र समन्वय की महत्ता को समझा। अपने इस अनुभव के उपरांत वे सदैव सत्य के पथ पर चलते हुए अन्ततः आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुए। परशुराम जो स्वयं एक ब्राह्मण थे, क्षत्रियों से लड़ते हुए क्षात्र में गहराई से सराबोर थे। वे भी अपने इस कृत्य की व्यर्थता को समझ कर आत्मबोध के मार्ग पर अग्रसर हुए। विश्वामित्र को वशिष्ठ ने तथा परशुराम को राम ने यथार्थ का मार