History

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 36

अतः उस समय क्या किया जा सकता था जब विदेशी आक्रांताओ ने युद्ध के सारे नैतिक मूल्यों (अर्थात् धर्म) की परवाह किये बिना हिंसात्मक आक्रमण किये। इस्लाम के रक्त रंजित आक्रमणों के समक्ष हमारी सभी युद्ध कौशल की योजनाऍ तथा राजनैतिक अनुमान अनुपयुक्त सिद्ध हुए। अनेक भागों की अपनी विशाल सर्वश्रेष्ठ कृति ‘इंडियन काव्य लिटरेचर’ में विशाखादत्त के मुद्राराक्षस के संबंध में लिखते हुए ए.के.वार्डर कहते हैं –

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 35

कालिदास ने अश्वघोष के कथ्य का रचनात्मक तथा सकारात्मक सुधारण किया था। समुद्रगुप्त ने भी यही सुधारण अशोक के संबंध में किया। हर किसी को इसे रचनात्मक सुधारण के रुप में समझने की आवश्यकता है। अशोक-कानिष्क – अश्वघोष की त्रयी तथा समुद्रगुप्त – चन्द्रगुप्त द्वितीय – कालिदास की तुलना से लाभान्वित हो सकते है। जिस प्रकार अश्वघोष अपने पश्चातवर्त्ती कवियों के लिए आदर्श न बन सके वैसे ही अशोक और कानिष्क भी अपने बाद के किसी बडे सम्राट के आदर्श नहीं बन पाये। जब कि कालिदास अपने पश्चातवर्त्ती प्रत्येक कवि के लिए ‘गुरु’ एवं ‘कवि- कुलगुरु’ सम पूज्य रहे है। उसी प्रकार समुद्रगुप्त तथा

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 34

जब नाग वंश के लोग अत्यंत शक्ति शाली हो गये थे तथा सनातन धर्म के लिए संकट उपस्थित कर रहे थे तो समुद्रगुप्त ने उन्हे ठण्ड़ा कर सौम्य प्रत्यायन द्वारा प्रभावित करते हुए उन्हे सनातन धर्म के महत्त्व को समझाया जिसके फलस्वरुप नागर ब्राह्मणों का उदय हुआ।

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 33

अनेक विद्वानो के निर्णायक लेखन से युक्त, अनेक भाग वाले विशाल ग्रंथ ‘द हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ इंडिन पिपल’ में गुप्तकाल का वास्तविक तथा सुस्पष्ट इतिहास दिया गया है। इसके प्रमुख संपादक आर.सी. मजूमदार का ‘द क्लासिकल एज’ नामक आलेख तथा इस ग्रंथ के प्राक्कथन में के.एम.मुंशी ने गुप्त काल की अत्यधिक प्रशंसा की है। मुंशी ने इस असाधारण वैभव का कारण धर्म का आधार निरुपित किया है। 

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 32

क्षात्र की आवश्यकता समुचित रुप से युद्ध तथा शांति, दोनो समय में होती है। इसके अनेक उदाहरण हम अपने देश के भूतकाल में देख सकते है। इसी क्षात्र के दर्शन महाभारत काल में कृष्ण और अर्जुन में होते है। युद्ध तथा शांति काल मे इसी प्रकार के क्षात्र संतुलन के दर्शन हम चन्द्रगुप्त मौर्य, पुष्यमित्र शुंग, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमारगुप्त, स्कंदगुप्त, पुलकेशी, शीलादित्य हर्षवर्धन, भोज, राजराज चोल, राजेन्द्र चोल, बुक्कराय, प्रौढ़देवराय, कृष्णदेवराय तथा छत्रपति शिवाजी में पाते हैं। इसे एक उच्च आदर्श माना गया है। हर किसी ने इस आदर्श के अनुसार जीवन को ढालने का प

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 31

गुप्त वंश का स्वर्णिम युग

यह पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि क्षत्रियता के गुण में आनुवांशिकता का अधिक महत्त्व नहीं है। तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी इतिहासकारोने इतिहास के इस तथ्य को जानबूझ कर छिपाते हुए यह षडयंत्रकारी प्रचार किया कि ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों ने मिलकर अन्य वर्णों के प्रति भेदभाव करते हुए उनका दमन किया। इसका सत्य से दूर का भी संबंध नही है तथा इस आरोप का कोई आधार नहीं है।

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 30

भारतीय क्षात्र परम्परा में हम मुख्य रुप से सभी संप्रदायों के सुन्दर समावेशन के दर्शन करते है । संप्रदायवाद से ऊपर उठना ही सनातन धर्म की आन्तरिक रुपरेखा है। इस व्यापक दृष्टिकोण के अभाव में क्षात्र भाव केवल क्रूरता का पर्याय बन जावेगा। इस्लाम में यही तो हुआ है। और यही ईसाइयत की संघर्षगायाओं से ज्ञात होता है। ऐसा क्या था कि ऐसी कोई घटना भारत में नही हुई?

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 29

यह स्थिति सनातन धर्म में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य तथा कुमारगुप्त के समय तक भी बनी रही। ऐतिहासिक ग्रंथों तथा अभिलेखों से ज्ञात होता है कि ईसा की पांचवी तथा छठी शाताब्दी तक इस प्रकार का सांस्कृतिक समायोजन तथा समावेश सफलता पूर्वक होता रहा था। अन्य देश, समुदाय तथा संस्कृति के लोग भारत में आये और उन्होने अपनी पसंद के अनुसार वर्ण धारण कर लिया चाहे वह ब्राह्मण, वैश्य अथवा अन्य वर्ण हो। उदाहरण स्वरुप उत्तर भारत के नागर-ब्राह्मण जिनके उपनाम नागर, भटनागर आदि है मूलरुप से ब्राह्मण जाति से संबंध नही रखते थे और यही बात चितपावन ब्राह्मणों पर भी समान रुप से लागू होती है। और इस

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 28

उस समय में वेदों का अनुसरण करने वालों ने भी बौद्ध धर्म का बहिष्कार नहीं किया था। सातवाहनों ने न केवल सांची स्तूप के द्वारों का निर्माण करवाया अपितु अमरावती ने एक पूरे स्तूप का निर्माण भी करवाया। उसके कुछ अंश चेन्नई, एगमोर के शासकीय संग्रहालय तथा ब्रिटिश संग्रहालय में प्रदर्शनार्थ रखे हैं[1]। दिखाई दे रहा है वैसा तो उस समय राजगुरुओं के मध्य भी नहीं था। संभवतः संप्रदाय विशेष की भावना से प्रेरित कुछ मतावलम्बी रचनाकारों की कृतियों ने अन्य पंथो के प्रति इस प्रकार घृणा भाव को जन्म दिया ह

भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 27

भगवान बुद्ध के जीवन की इस घटना को देखें। एक दिन बुद्ध के विश्वास पात्र तथा संबंधी (गृहस्थजीवनका) विख्यात आनन्द अपने साथ यशोधरा (बुद्ध के पूर्वाश्रम मे की पत्नी) को लेकर बुद्ध के समक्ष उपस्थित होकर कहने लगा “गुरुजी! महिलाओं को भी सन्यास की दीक्षा प्रदान कीजिए!” । जब बुद्ध ने उत्तर दिया ‘नही! यह नही हो सकता है’ तब आनन्द ने पूछा ‘आप महिलाओं को सन्यास की दीक्षा क्यों नहीं दे सकते है ? क्या आप ही नहीं कहते हैं कि सब लोग समान? तब बुद्ध बोले ‘नही !