भगवान बुद्ध के जीवन की इस घटना को देखें। एक दिन बुद्ध के विश्वास पात्र तथा संबंधी (गृहस्थजीवनका) विख्यात आनन्द अपने साथ यशोधरा (बुद्ध के पूर्वाश्रम मे की पत्नी) को लेकर बुद्ध के समक्ष उपस्थित होकर कहने लगा “गुरुजी! महिलाओं को भी सन्यास की दीक्षा प्रदान कीजिए!” । जब बुद्ध ने उत्तर दिया ‘नही! यह नही हो सकता है’ तब आनन्द ने पूछा ‘आप महिलाओं को सन्यास की दीक्षा क्यों नहीं दे सकते है ? क्या आप ही नहीं कहते हैं कि सब लोग समान? तब बुद्ध बोले ‘नही ! इससे संघ पथभृष्ट हो जायेगा !’ फिर भी आनन्द ने बुद्ध के इस सुझाव को स्वीकार नही किया कि संघ में महिलाओं के आने से संघ का अनुशासन नष्ट हो जायेगा। वह अपने तर्क पर अडा रहा तब अन्ततः बुद्ध को कहना पड़ा “मैने सोचा था संघ हजार वर्षो तक विकसित होता रहेगा किंतु तुम्हारे सुझाव के अनुसार यह पांच सौ वर्षों में नष्ट हो जायेगा”। बुद्ध के बाद लगभग दो सौ पचास वर्ष उपरांत अशोक के शासन काल तक संघ में अत्यधिक शिथिलता आ गई थी।
चाहे कितनी भी वरिष्ठ हो भिक्षुणियों को कनिष्टतम भिक्षु को भी खडे होकर सम्मान देना होगा तथा हर समय भिक्षुणियों को उनकी निगरानी में रहना होगा।
विनयपिटक में ऐसे नियम बुद्ध द्वारा दिये गये हैं। ऐसे नियमों से कोई यह निष्कर्ष न निकाले कि वे लिंगभेद के समर्थक थे। यह केवल अनुशासन बनाये रखने हेतु मार्गदर्शक सिद्धांत थे न कि बाध्यता और न महिलाओं की अवमानना करने का साधन। वास्तव में बुद्ध ने इन सब सूक्ष्म स्थितियों का आकलन पहले ही कर लिया था।
क्या इन सब की जानकारी अशोक को नहीं थी? अशोक के समय तक बौद्ध धर्म कमजोर हो चुका था। पारम्परिक नियमों का पालन ठण्डा पड चुका था। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के उपरांत उनके प्रमुख शिष्य आनन्द, उपालि और महाकाश्यप ने उनके उपदेशों को तीन ‘पिटकों’ में संग्रहित कर पहली ‘संगीति’ के समक्ष रखा। किंतु कुछ लोगो ने इसका विरोध करते हुए कहा “आप जो कह रहे है उससे हम सहमत नहीं है, हम आप के संग्रहित उपदेशों को नही मानते, जंहातक हमारी जानकारी है बुद्ध ने ऐसा उपदेश नही दिया था” । बाद में यह लोग ‘थेरवादी’ (स्थविरवादी) के रुप में जाने गये और शेष लोग महासंघी कहलाये। संघ का यह विभाजन अन्ततः अठारह शाखाओं में बांट गया। इससे स्पष्ट है कि किस प्रकार एक महान सिद्धांत अत्यंत आसानी के साथ शीघ्रता से भ्रष्ट हो सकता है। शायद इसी कारण से अशोक के समय तक भक्ति तथा कर्मकाण्ड ने जिज्ञासा और बौद्धिक सजगता से अधिक महत्त्व प्राप्त कर लिया था।
संप्रति चन्द्रगुप्त क पुत्र बृहद्रथ मौर्य वंश के आखरी राजा थे | उसके शासन मे यवनों ने मगध पर आक्रमण किया | इससे हम् उस समय का सामरिक क्षमता का अनुमान लगा सकते है | बाणभट्ट हर्षचरित – जो इस विषय मे मुख्य स्रोत है – मे इसका उल्लेखन करता है |
इस समय तक महान सेनानायक पुष्यमित्र परिदृश्य पर छा गया था। बाद में शुंग साम्राज्य के संस्थापक के रुप में उसने बहुत ख्याति प्राप्त की। कुछ लोग उन्हे काश्यप गोत्र का मानते है और कुछ लोग उन्हे भारद्वाज गोत्र का मानते है। कुछ भी हो, उसके समकालीन पतंजलि ने पाणिनी सूत्रों की टीका ‘महाभाष्य’ नाम से लिखी थी। पुष्यमित्र ने सफलता पूर्वक विदेशी आक्रमणों को नियंत्रित किया। उस समय मगध साम्राज्य इतना अशक्त हो चुका था कि बेक्ट्रिया के ग्रीक विदिशा और विदर्भ तक घुस आये थे। ऐसे समय में पुष्यमित्र जो एक ब्राह्मण था उसने पुनः पूर्व स्थिति को ला कर लोगों की सुरक्षा करते हुए शांति स्थापित की थी और इस प्रकार उसने क्षात्र में विश्वास रखते हुए हमारे पूर्वजों की मान्यताओं बनाये रखा।
पुष्यमित्र शुंग का शौर्य
मार्क्सवादी साम्यवादी इतिहासकार दावा करते हैं कि क्यूंकि पुष्यमित्र एक ब्राह्मण था अतः उसके काल में घटित सभी घटनाऍ केवल ब्राह्मणों का विद्रोह था जो अशोक तथा उसकी विरासत के प्रति ब्राह्मणों में संजात शत्रुता भाव के कारण हुआ था। किंतु इस दावे के विपरीत इस प्रकरण में ‘वर्ण’ का कुछ भी महत्त्व नही था।
लम्बे समय तक शुंग शक्ति केन्द्र नही रहे। शुंगो के उपरांत काण्वों ने सत्ता सम्हाली और वे भी ब्राह्मण थे। यदि शुंग शासन वास्तव में ब्राह्मणों का विद्रोह मात्र होता तो काण्व लोग उनका विरोध क्यों करते? पद तथा अधिकार प्राप्ति के संघर्ष में वर्ण और नैतिकता, मानवीय स्वार्थ के आवेग के समक्ष गौण स्थिति प्राप्त कर लेते है। सभी सामाजिक पृष्टभूमि के लोग धनलोलुपता के जाल में आसानी से फॅस जाते है। उस समय की सबसे बडी चुनौती राष्ट्रीय सुरक्षा को संरक्षित करने की थी और इसे पुष्यमित्र ने समझा था और इसी कारण उसने शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली।
कुछ लोग पुष्यमित्र को बौद्ध लोगों का शत्रु बतलाते है, कहते हैं कि उसने बौद्ध धर्म के आधारभूत ग्रंथों का नष्ट कर दिया और बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला। वे यह भूल जाते है कि प्राचीन भारत का सबसे सुन्दर स्तूप – ‘भरहुत स्तूप’ जिसकी स्थापत्य कलात्मकता असाधारण है, वह पूर्णरुपेण पुष्यमित्र के मार्ग निर्देशन मे ही उद्घाटित और निर्मित हुआ था। सांची स्तूप को चारो ओर से घेरने वाली अन्यतम जालीदार चहारदीवार जो आज भी सदृढ खडी है इसी पुष्यमित्र द्वारा निर्मित है
इस चहारदीवार के बाहरी चार अत्यधिक अलंकृत द्वारों का निर्माण सातवाहनों द्वारा किया गया था। उन्होने अश्वमेध तथा वाजपेय यज्ञ जैसे बडे बडे यज्ञों का आयोजन किया था। इन्ही सातवाहनों ने नागार्जुन कोण्डा के स्तूप का निर्माण करवाया था। जब हम सातवाहन राजाओं के प्रवरों पर ध्यान देते है – गौतमीपुत्र सातकर्णी, वाशिष्ठीपुत्र सातकर्णी आदि – तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी माताऍ भी क्षत्राणी थीं तथा उन्होने अपने वेदिक ऋषि परम्परा की गोत्र को संरक्षित रखा। उनके द्वारा किये गये यज्ञ हेतु बनाई गई वेदिकाओं के पुरातत्त्वीय साक्ष्य आज भी उपलब्ध हैं[1] ।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]वर्तमान समय के कुछ दुर्भावना ग्रस्त लोगों ने प्रचारित किया है कि शंकराचार्य ने नागारजुन कोण्डा के स्तूपों का नाश किया। इस लोकवाद ग्रस्त कहानी द्वारा उन्होने विकृत इतिहास की एक भद्दी इमारत खडी की है तथापि कुछ वर्षों पहले ही प्रसिद्ध विद्वान भारत रत्न पाण्डुरंग वामन काणे और गोविन्द् चन्द्र पाण्डे ने ऐसे नग्न असत्यों को ध्वस्त कर दिया है। इसके अतिरिक्त वंहा की यज्ञ वेदिकाओ और चैत्यों को नष्ट किया गाया है वह निस्देह इन्ही साम्यवादी इतिहासकारों के अतिप्रिय मित्र हिंसक इस्लामिक भीडतंत्र द्वारा किया गया कृत्य है।