उस समय में वेदों का अनुसरण करने वालों ने भी बौद्ध धर्म का बहिष्कार नहीं किया था। सातवाहनों ने न केवल सांची स्तूप के द्वारों का निर्माण करवाया अपितु अमरावती ने एक पूरे स्तूप का निर्माण भी करवाया। उसके कुछ अंश चेन्नई, एगमोर के शासकीय संग्रहालय तथा ब्रिटिश संग्रहालय में प्रदर्शनार्थ रखे हैं[1]। दिखाई दे रहा है वैसा तो उस समय राजगुरुओं के मध्य भी नहीं था। संभवतः संप्रदाय विशेष की भावना से प्रेरित कुछ मतावलम्बी रचनाकारों की कृतियों ने अन्य पंथो के प्रति इस प्रकार घृणा भाव को जन्म दिया हो। इस प्रकार के सांप्रदायिक उन्माद का आरोप सामान्य जन अथवा राजाओं पर लगाना त्रुटि पूर्ण होगा। इस संबंध में धर्मान्ध बौद्धों द्वारा रचित ‘अशोकावदान’ जैसे ग्रंथों को प्रामाणिक नही माना जा सकता है । इतना ही नही, इसी ग्रंथ में ही शुंगद्वेषियों ने अशोक द्वारा जैनों की सामुहिक हत्या के विवरण की चतुराई के साथ अनदेखी की है । इस प्रकार की चालाकियों को किस दृष्टि से देखा जाय ? अतः पंथप्रधान रचनाओं में वर्णित विवरणों पर विश्वास करने में हमे सावधान रहने की आवश्यकता है।
यंहा यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि पुष्यमित्र के समय में अनेक बौद्धों को विदेशी आक्रमणकारियो के साथ मिलकर देश द्रोह के आरोप में दण्ड़ित किया गया था। इसका परीक्षण हम विस्तार से करेंगे जब हम गुप्त काल की चर्चा करेंगे।
भारतीय क्षात्र परम्परा में धार्मिक सहिष्णुता
गुप्त वंश में सर्वाधिक प्रख्यात चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त द्वितीय) एक समर्पित भागवत (विष्णुभक्त) थे। उनका पुत्र कुमारगुप्त शिव तथा स्कंद की पूजा करता था। पिता और पुत्र दोनों के पूज्य देव भिन्न भिन्न थे। यह क्या दर्शाता है? यद्यपि उनकी वैयक्तिक रुचि शिव या स्कंद को पूजने की थी किंतु उन्होने इसे कभी अपनी प्रजा पर नहीं थोपा। अनेक अभिलेख यह प्रमाणित करते हैं कि परम शिवभक्त कविकुलगुरु कालिदास, विष्णुभक्त चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार की शोभा थे।
शैव, वैष्णव, शाक्त आदि से संबंधित जो कोलाहल सुनाई देता है वह उन कुछ लोगों की देन है जिन्होने पौराणिक दष्टांतों को शाब्दिक रुप से ग्रहण कर उन्हे वास्तविक घटनाओं के रुप मे प्रस्तुत किया। हिंदू, बौद्ध और जैन ग्रंथों में भी सांप्रदायिक वैमनस्य को देखा जा सकता है। इसका एक उदाहरण ‘माधवीय-शंकर-विजय’ नामक ग्रंथ है। यद्यपि इसके साथ विद्यारण्य का नाम जोड़ा जाता है किंतु यह एक अज्ञात कवि व्यासाचल द्वारा लिखा गया है। यद्यपि एक काव्य के रुप में यह एक अच्छी रचना है किंतु कईं स्थानों पर यह ऐतिहासिक रुप से अशुद्ध है तथा आचार्य शंकर तक की निंदा करती है। इसका एक उदाहरण देखें – ‘सुधन्वा नामका एक राजा था। उसके दरबार में मिमांसा विशेषज्ञ कुमारिलभट्ट नाम के विद्वान थे। उनका बौद्धों के साथ विवाद हुआ। शास्त्रार्थ में हारे बौद्धों को चूने मिले उबलते जल में तडपाया गया तथा उनसे तेल की निष्कर्षण में बैलों की तरह मजदूरी करवाई गई’।
इस प्रकार की अनेक विचित्र घटनाओं का वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। भारतीय इतिहास में चाहे वह मगध, विदर्भ, चोला, चेर, पाण्ड्या अथवा पल्लवों से संबंधित हो, सुधन्वा नाम का कोई राजा हुआ ही नही। आचार्यशंकर सन् 630 से 662 तक रहे यह तथ्य आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा प्रमाणित है। इससे स्पष्ट होता है कि ‘माधवीय–शंकर–विजय’ का रचनाकार सांप्रदायिक कट्टरता से उत्प्रेरित था।
ऐसा कहा गया है कि आचार्य रामानुज के गुरु यादवप्रकाश एक अद्वैतवादी थे किंतु एतिहासिक तथ्य यह है कि वे अद्वैतवादी नहीं थे। उनके ब्रह्मसूत्रभाष्य से यह स्वतः प्रमाणित हो जाता है। यादवप्रकाश ने वेदांत की भेदाभेद शाखा का अनुसरण किया था। यह रामानुज के विशिष्टाद्वैत से बहुत साम्य रखता है। पंथ सापेक्ष ग्रंथों में कहा गया है कि यादवप्रकाश ने रामानुज को कई तरह से यातनाऍ दी किंतु ऐसे आरोपों का कुछ ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्द नहीं है। ऐसी कथाऍ है कि कृमिकण्ठ चोल (करिकाल चोल) ने रामानुज की हत्या का षड़यंत्र रचा था, यह चोल राजा तथा रामानुज दोनो के लिए ही अपमान जनक है क्योंकि इतिहास में इस नाम का राजा नही हुआ। चोल लोग उन्मादी शिवभक्त नहीं थे। उन्होने सभी संप्रदायों का समान रुप से पोषण किया था। चोल काल में विष्णु की वंदना में अनेक स्त्रोत एवं कविताओं की रचना की गई है। भगवान शिव को समर्पित विशाल एवं भव्य चोल देवालयों में भी भगवान विष्णु के अनेक सुन्दर विग्रहों के दर्शन किये जा सकते है।
कोई भी हिन्दू राजा जो प्रत्यक्ष रुप से संप्रदायवादी है, लम्बे समय तक शासन करने की आशा नही रख सकता है। जनता पर अत्याचार करते हुए स्वयं अस्तित्त्व में रह पाना असंभव है। औरंगजेब के शासन काल में अकबर[2] के शासन की धार्मिक सहनशीलता का अभाव था इसी कारण उसे व्यापक रुप से विद्रोहों का सामना करना पड़ा।
यह सत्य है कि पुष्यमित्र शुंग एक उदार शासक था। वह सभी संप्रदायों का बहुत सम्मान करता था।
यह भी आरोप है कि गुप्तवंश बौद्धों के शत्रू थे किंतु इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि महान बौद्ध अनुयायी वसुबंधु सम्राट समुद्रगुप्त के दरबार में एक मंत्री था।
शुंगों में क्षात्र चेतना
पुष्य मित्र ने ग्रीक अधिपत्य वाले भारतीय भूभाग को मुक्त करने का प्रयास किया था। सिकंदर के द्वारा किये गये आक्रमण से प्रारम्भ ग्रीक आक्रमण मनेन्दर के समय तक होते रहे। बाद में बौद्ध ग्रंथों में इसे ही मिलिन्दर नाम से जाना गया। पाली भाषा के ग्रंथ ‘मिलिंद पन्हा’ में नागसेना तथा मनेन्दर के मध्य हुआ संवाद अभिलिखित है। लगभग तीन सौ वर्षों के लम्बे समयान्तराल तक युनानियों की अवाधित घुस पैठ होती रही। धीरे धीरे वे सभी भारतीय संस्कृति की मुख्यधारा में समाहित हो गये। उन्हे ‘शुद्धशूद्र’ अथवा ‘व्रात्य क्षात्र’ (जिसने क्षत्रिय की पवित्र परम्परा का त्याग कर दिया हो) कहा गया । सारांश में वे सभी सनातन धर्म के अंग बन गये।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]हिन्दुओ, बौद्धो तथा जैनों के मध्य आज जिस प्रकार का उग्र विरोध यह ध्यान देने योग्य है कि यह विरोध दार्शनिक स्तर पर केवल मौखिक स्तर तक सीमित था। शारीरिक हिंसा की न तो अनुमति थी और न व्यवहार में थी। अब्राहमिक संप्रदायों के विशोष लक्षणों से युक्त चरम हिंसा जो वे अन्य मतावलम्बियों अथवा स्वयं के बीच भी करते है उससे इन लोगो के अर्थात् हिन्दुओ, बौद्ध तथा जैन लोगों के मध्य के विरोध की तुलना नही की जा सकती है।
[2]अकबर के सहनशीलता और उदारता को हम सनातनधर्मी राजाओ तथा मुसलमान राजाओ के सान्दर्भिक तुलना करके समझना चाहिये | एक सामान्य मुसलमान राजा जो देहली सुलतानों से लेकर अकबर क पितामह बाबर तक यदि हम तुलना करते है तो हमे ये सत्य ज्ञात होत है कि उसकी सहनशीलता अपवाद थे और सनातनधर्मी राजाओ के तुलना मे बहुत कं थे