आज हमें पाल राजवंश द्वारा निर्मित कोई भी बडा पूजा केन्द्र अथवा देवालय दिखाई नहीं देता इसका एकमात्र कारण बख्तियार खिलजी तथा उसी के समान अन्य मुस्लिम आक्रांताओं के द्वारा किये गये रक्तरंजित द्वेषयुक्त विनाश लीला में निहित है जिसमें हजारों हिंदू मंदिरों को सतत रूप से नष्ट किया था। पालों से संबंधित आज हमें जो भी उपलब्ध है वे वास्तुशिल्प का कुछ भग्नावशेष है, कुछ तस्वीरें तथा आरेखन है जो विभिन्न म्यूसियमों में संरक्षित किये गये है – उदाहरणार्थ गरुड़ पर आसीन विष्णु की मूर्ति, अर्धनारीश्वर, कल्याणसुन्दर, तथा गंगा – यमुना का शिल्पाकार । यह सभी सनातन धर्म के प्रतीक चिन्ह है।
यह भी ज्ञात होता है कि पाल राजाओं ने अनेक संस्कृत कवियों की प्रतिभाओं को पोषित किया था जैसे कि अभिनन्द[1], योगेश्वर, वसुकल्प और केषट। इन कवियों के उत्कृष्ट काव्य सृजन से पाल राजाओं की उदारता तथा सहिष्णुता ही प्रमाणित होती है। चूंकि प्रारम्भ में पाल राजा सनातन धर्म के अनुयायी थे अतः सम्राट धर्मपाल और देवपाल के साम्राज्य में दृढ़ स्थायित्व के साथ चहुँमुखी समृद्धि स्थापित हो सकी थी।
किंतु उनके वंशज – विग्रहपाल, नारायणपाल आदि शक्ति हीन तथा शिथिल हो गये। उन्होंने आत्म रोधी, विकृत तथा भ्रष्ट पथगामी चुकी बौद्ध शाखाओं जिसमें सहजयान, वज्रयान तथा महाचीन सम्मिलित है का अनुगमन किया। इन पंथों में सनातन धर्म की सकारात्मकता का पूर्ण अभाव था। इन पंथों ने ‘निराशावाद’ का प्रचार किया, अहिंसा का अनुपयुक्त अर्थ समझा, लोगों में उदासीनता फैला कर पूरे क्षेत्र को एक भयावह संकट में डाल दिया। परिणामतः पूरे साम्राज्य में क्षात्र चेतना के पराभव के कारण त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) विकास रुक गया और समृद्धि में सतत स्खलन होता गया जिससे अनेकानेक संकट उपस्थित होते गये। यह आत्मघाती कहानी सभी पीढ़ियों के लिए एक शिक्षाप्रद चेतावनी है।
तीन से चार वर्ष शासन करने के उपरांत विग्रहपाल एक बौद्ध भिक्षु बन गया। और नारायणपाल अपने संपूर्ण पचास वर्षीय लम्बे शासनकाल में बौद्ध दर्शन के मनन में डूबा रहा तथा शासन के प्रति पूर्णतः उदासीन तथा निष्क्रिय बना रहा। उसने पाल साम्राज्य के भविष्य को पूर्णतः अंधकार में धकेल दिया। वह स्वयं अपने प्रजाजनों के लिए एक बाधा बन गया था और उनके त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) विकास के प्रयासों असफल कर रहा था। इसी के शासन काल में प्रतिहारों ने पालों को परास्त कर राज्य का बडा भूभाग छीन लिया। उत्तरी बंगाल जो कभी पाल लोगों का केन्द्र था तथा उनका मूलस्थान था वह भी प्रतिहार सम्राट महेन्द्रपाल के अधीन हो गया। जो क्षत्रप कभी पाल शासन के अधीन थे – जैसे – कामरूप (आसाम), कलिंग (उड़ीसा), मणिपुर आदि ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया।
यह पाल शासन द्वारा क्षात्र भाव के त्याग का अति दुःखद दुष्परिणाम था। यद्यपि राष्ट्रकूटों की सहायता से नारायणपाल कुछ स्थायित्व प्राप्त कर सका किंतु यह उसका राष्ट्रकूटों के समक्ष एक समर्पण तथा दास्य भाव था। नारायणपाल के उत्तराधिकारी राज्यपाल तथा गोपाल द्वितीय थे जिन्हे चंदेलों ने तथा कलचुरियों ने युद्ध में परास्त कर दिया। कुछ समय बाद विग्रहपाल द्वितीय के पुत्र महिपाल ने क्षात्र चेतना को पुनर्जीवित करते हुए बंगाल पर अपना प्रभुत्व पुनः प्राप्त कर अपनी मातृभूमि में स्थायित्व तथा दृढ़ शासन स्थापित किया। कालांतर में पूर्वी भारत में सेन लोगों का प्रभुत्व हो गया। क्षात्र भाव को त्यागने का पाल लोगों को नुकसान हुआ। पालों के पतन का इतिहास न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण विश्व की राजनीति के लिए एक अमूल्य शिक्षाप्रद संदेश है।
सेना राजाओं का रक्षाकवच
कर्नाटक के क्षत्रिय सेनों के उदय के साथ ही पाल राजवंश का अंतिम राजा रामपाल सिंहासन से च्युत कर दिया गया। सेन राजवंश कर्नाटक के चालुक्य राजवंश परिवार के वंशज थे। इनके प्रमुख सम्राट विजयसेन तथा लक्ष्मणसेन थे जो सनातन धर्म तथा क्षात्र भाव का पूर्ण सम्मान करते थे। उन्होंने कला और साहित्य को भी प्रोत्साहित किया था। उमापतिधर, शरण, गोवर्धन, श्रुतिधर, धोई, वटुदास, श्रीधरदास, हलायुध तथा अन्य संस्कृत के कविगण सेन साम्राज्य में पोषित होते रहे। वास्तव में बल्लालसेन और उसका पुत्र लक्ष्मणसेन स्वयं संस्कृत के विद्वान तथा कवि थे। बल्लालसेन धर्म शास्त्रों का ज्ञाता था। उसने ‘दान सागर’ तथा ‘अद्भुत-सागर’ जैसी कृतियों की रचना की थी। लक्ष्मणसेन की कविता को श्रीधरदास की ‘सदुक्तिकर्णामृत’ में समाविष्ट किया गया है।
विद्याकर द्वारा संकलित कविता संग्रह ग्रंथ ‘सुभाषितरत्नकोश’, ‘सदुक्तिकर्णामृत’ से भी पहले का संस्कृत में प्राचीनतम ग्रंथ है जो आज उपलब्ध है। इन दोनों ग्रंथों में तीन सौ से भी अधिक उन कवियों की कविताएं संग्रहित है जिन्हे या तो पाल या सेन साम्राज्य में सहयोग प्राप्त होता रहा था। इन कवियों में कुछ शैव, कुछ वैष्णव, कुछ शाक्त, कुछ बौद्ध पंथ के अनुगामी थे अर्थात विभिन्न धार्मिक आस्थाओं और मान्यताओं को मानने वाले थे। उन सबने अपनी प्रकृति प्रेम के साथ अपने आसपास के लोगों के दैनिक जीवन का चित्रण अत्यंत मनोहारी ढंग से किया है। उनकी कविताऍ वास्तव में धर्म निरपेक्षता का सही उदाहरण है। सम्भवतः इनमें से अनेक कवियों ने और भी बृहत्काव्य कृतिया सृजित की हो किंतु इनमें से कोई भी आज उपलब्ध नहीं है। विद्वानों के अभिमत में नालंदा तथा विक्रमशिला विश्वविद्यालय का अत्याचारी मोहम्मद बख्तियार खिलजी द्वारा विनाश करने के साथ हमने अपने अनेक अमूल्य ग्रंथ खो दिये।
इस युग की उपलब्ध कृतियों में जयदेव की सर्वश्रेष्ठ कृति ‘गीतगोविन्द’ वस्तुतः एक आदर्श रचना है तथा उत्तरकालीन भारत में साहित्य तथा संगीत का एक उच्च मानक स्थापित करती है[2]। इस महान कृति के अस्तित्व को पोषित करने में सेन राजाओं की क्षात्र चेतना द्वारा निर्मित परिवेश का बहुत महत्त्व रहा है।
अपनी शक्ति और कौशल के साथ लक्ष्मणसेन ने भी दुष्ट मोहम्मद बख्तियार खिलजी से संघर्ष किया तथा बिहार और बंगाल में धर्मान्तरण नहीं होने दिया[3] फिर भी बख्तियार खिलजी की निर्दयी आक्रामकता ने विक्रमशिला, ओदंतपुरी तथा नालंदा जैसे बौद्ध विश्व विख्यात शिक्षा केन्द्रों को पूर्णतः नष्ट कर डाला। इसके साथ ही अनेक हिंदू देवस्थान भी नष्ट किये गये। लक्ष्मणसेन का पुत्र केशवसेन भी इस्लामिक आक्रांताओं से लड़ता रहा, मलिक सैफुद्दीन जैसे आक्रमणकारियों के विरुद्ध लड़े और उसके हाथों मारे गये।
सेन राजाओं ने शैव, शाक्त तथा वैष्णव दर्शन को महत्व प्रदान करते हुए अपनी पूर्ण क्षमता के साथ ब्राह्म और क्षात्र के समन्वय का संतुलन बनाये रखा। प्रतिहारों के पतन के उपरांत उत्तर भारत में अनेक राजपूत राजा एक दूसरे के निकटवर्ती क्षेत्र में शासन करते रहे। इनमें से मुख्यतः चन्देल, परमार, चहमाण, चालुक्य, गुर्जर और मेवाड़ के गोहिल थे। भारतीय क्षात्र परम्परा की दृष्टि से हमें इनमे से कुछ का अध्ययन करना चाहिए। इनमे से एक प्रमुख
चंदेल राजवंश है जिसका बुंदेलखंड में साम्राज्य था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]वैदिक परम्परा पर आधारित एक लम्बी तथा सुन्दर ‘रामचरित’ नामक कविता के तथा ‘लघुयोगवशिष्ठ’ नामक वेदांत ग्रंथ के रचयिता हैं
[2]भारत के स्वर्णिम काल में जिस प्रकार कालिदास की काव्य रचनाएँ कला, साहित्य, नृत्य, शिल्प, संस्कृति तथा सनातन धर्म के लिए प्रेरणा स्त्रोत बनी रही उसी प्रकार इस्लामिक आक्रमण के दुर्दिनों में जयदेव की कृति संगीत, नृत्य, चित्रकला, शिल्प, तथा भक्ति के क्षेत्र में प्रेरणा प्रदान करती रही। विशेष रूप से अपने ‘मधुरभाव’ के कारण ‘गीतगोविन्द’ पीढ़ी दर पीढ़ी साधुओं, संतों और भक्तों के लिए अमरकोश बन पथ प्रदर्शन करता रहा। सिखों के गुरुग्रंथसाहेब में भी उसने स्थान पाया और महान योद्धा सिखों को भी भावनात्मक भक्ति रस का पान कराया।
जब भारत धर्मान्ध निर्दयी इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा छिन्न भिन्न किया जा रहा था और उसकी संस्कृति, मंदिरों के विनाश के साथ उसके कथाशिल्प और भावशिल्प को नष्ट किया जा रहा था इस्लाम के अमानवीय मूर्तिपूजा विरोध के कारण समाज में उत्पन्न शून्यता फैल और रही थी तब जयदेव के गीत गोविन्द ने अपनी भाव प्रधान प्रेरणा से भारतीय चित्रकला की परम्परा को नया जीवनदान दिया। गीत गोविन्द ने हमारे देवी देवताओं के प्रति श्रद्धाभाव संरक्षित रखा तथा पौराणिक कथाओं, प्रकृति की एकता भाव को तथा संस्कृति को उनके व्यापक प्राकट्य के साथ सामान्य जन समुदायों तक पहुंचाने का अद्वितीय कार्य किया।
कांगड़ा, पहाड़ी, मेवाड़ी, मधुबनी, दख्खिनी, पटचित्र, राजपूतानी और अन्य अनेक शास्त्रीय चित्रकला की भारतीय शैलियों पर गीत गोविन्द का प्रभाव स्पष्टतः प्रेरणा रुप रहा है। उन्होने नायक – नायिका भाव तथा राग–रागिनी भाव के साथ राम, कृष्ण, शिव तथा शक्ति की कथाओं का चिक्षण किया है।
यह भारतीय इतिहास का अन्धकार पूर्ण समय था। स्थावर तीर्थ-अर्थात् देवालय बनाने का समय नहीं था अतः लोगों के हृदय में सनातन धर्म का संचार जंगम – अर्थात गतिमान चित्रकला, आलेखन आदि सरल, सस्ते तथा सुगम साधनों द्वारा किया गया। इन सबका श्रेय जयदेव के गीत गोविन्द को दिया जा सकता है।
[3]इस संबंध में इस्लामिक विवरण यह झूठ लिख रहे है कि लक्ष्मणसेन युद्ध भूमि से भाग गया था।