अरब के यात्री सुलेमान अत्ताज़िर और अल मसूदी ने भोज की सेना की सदा युद्ध के लिए तैयार रहने वाले गुणों की तथा उसके राज्य की समृद्धि और बाहुल्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। उन्होंने इस बात पर दुःख भी व्यक्त किया है कि वह इस्लाम का अजेय शत्रु है। भोज का पुत्र महेन्द्रपाल उसका सुयोग्य उत्तराधिकारी था और उसने साम्राज्य का और भी विस्तार किया था। उसने प्रसिद्ध विद्वान, कवि तथा गुणी राजशेखर को प्रश्रय दिया था। उसके शासन काल में कला, साहित्य, शिल्प, मूर्तिकला, नृत्य, संगीत तथा शास्त्र परम्परा में अभूतपूर्व प्रगति के साथ साथ व्यापार व्यवसाय में भी अत्यधिक प्रगति हुई थी।
गुर्जर प्रतिहारों द्वारा सनातन धर्म के पोषण में बहुत सहयोग दिया गया। उदारतापूर्वक दान देकर उन्होने अनगिनत मन्दिरों के निर्माण कराये। मुस्लिमों द्वारा नष्ट किये गये मंदिरों के प्रत्युत्तर में उन्होंने अनेक मंदिरों की संरचनाऍ, निर्माण, अग्रहार (मंदिर के निकट पुजारियों का निवास स्थल), शिक्षण केंद्र आदि बनवाये। उसकी राजधानी कान्यकुब्ज लगभग दो सौ वर्षों तक अक्षुण्ण रूप से सुंदरता तथा भारतीय संस्कृति का केंद्र बनी रही। उसका दुर्भाग्यपूर्ण विनाश मोहम्मद गजनवी द्वारा किया गया ।
महेन्द्रपाल का पुत्र महिपाल भी अपनी प्रतिभा संपन्न पिता के ही पथ चिन्हों का अनुगमन करते हुए साम्राज्य को पोषित करता रहा। उसका साम्राज्य पश्चिम में द्वारका से पूर्व में वाराणसी तक फैला था किंतु राष्ट्रकूटों के सतत आक्रमणों का सामना करते हुए अंततः वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।
राष्ट्रकूटों के राजाओं जैसे कृष्णा द्वितीय, इन्द्र तृतीय, तथा कृष्णा तृतीय के सतत आक्रमणों, चंदेल, कलचुरी और परमार जैसे अपने ही राज्य के क्षत्रपों के विद्रोह के कारण अंततः प्रतिहारों को निष्प्रभावी कर दिया गया। तथापि इस राजवंश का वैभव, प्रसिद्धि अद्वितीय रूप से प्रशंसनीय और स्मरणीय है।
सनातन धर्म ने जो वैभव शिखर गुप्त साम्राज्य काल में प्राप्त किया था वह प्रतिहार साम्राज्य काल में भी सतत रूप से बना रहा। पुराणों आगम, धर्मशास्त्र, साहित्य तथा कला क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति हुई थी। इस महान राजवंश ने इस्लामिक आक्रमणों के तूफानों को रोकने तथा उन्हें उखाड़ फेंकने में अकथनीय प्रयास किये और सनातन धर्म की सुरक्षा संरक्षण करते हुए उसकी वृद्धि की थी। इसी के साथ साथ उन्होंने अपने सैन्य बल को संगठित और सशक्त करते हुए अपने शस्त्रागार को बढ़ाया और अपने राज्य में चहुँ और उद्योग, कृषि, संस्कृति तथा विपणन द्वारा समृद्धि प्राप्त की।
उपर्युक्त सभी पक्षों की अनुगूंज हमें उस काल के विद्वान मेधातिथि द्वारा लिखित मनुस्मृति की टीका में प्रथम बार सुनाई देती है। उसकी टीका में आर्यावर्त तथा ब्रह्मावर्त जैसे सभी क्षेत्रों में प्रचलित यज्ञ परम्परा का वर्णन है जिससे एक बृहत भारत की सांस्कृतिक एकता की वृद्धि तथा विकास का संकेत प्राप्त होता है[1]।
मेधातिथि आदर्श तथा व्यावहारिकता का एक आदर्श समागम है। यदि मेधातिथि के विचारों को विकसित कर उनका अनुसरण इस्लामिक आक्रमणों को रोकने में किया जाता तो हमारे देश का अतीत बहुत भिन्न होता ! इससे हमें प्रतिहारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझने में भी आसानी होती है जिसने ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण किया तथा यह महान सम्राट मिहिर भोज (वृद्ध भोज) के श्रेष्ठतम योग्यता को भी दर्शाता है।
पाल योद्धा :- सनातन धर्म के रक्षक
महाराजा शशांक के एक सौ वर्षों बाद तक बंगाल में कोई शासक नही रहा। जनता जनार्दन के कल्याण को दृष्टिगत रखते हुए तथा परिस्थितियों के अनुरूप वहां के स्थानीय प्रमुखों ने एक होकर अपने में से ही किसी एक को सर्वप्रमुख नायक के रूप में चुनना स्वीकार किया। इसके फलस्वरूप पाल राजवंश का उदय हुआ। वास्तव में यह प्रक्रिया भारतीय क्षात्र परंपरा के आदर्श मानदण्ड़ों के व्यवहार रूप का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। पाल राजवंश का शिखर काल धर्मपाल (सन् 770-810) तथा उसके पुत्र देवपाल (सन् 810-850) तक अर्थात कुल अस्सी वर्ष का माना जाता है।
धर्मपाल को राष्ट्रकूटों तथा प्रतिहारों के मध्य होते रहे युद्धों का अत्यधिक लाभ प्राप्त हुआ। उसने प्रतिहार सम्राट वत्सराज के आक्रमण से बचते हुए कान्यकुब्ज पर अंततः अपना आधिपत्य स्थापित कर अपनी इस उपलब्धि द्वारा अपने राजनैतिक कौशल को सिद्ध कर दिया।
यद्यपि पाल साम्राज्य मूलतः बंगाल और बिहार क्षेत्र में केंद्रित था तथापि उन्होंने कुछ समय के लिए उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मालवा तथा पंजाब के बड़े भूभाग पर भी शासन किया था। पाल सम्राटों के ‘उत्तर-पथेश्वर’ अर्थात उत्तरी भूभाग के स्वामी कहा जाता था। धर्मपाल की कीर्ति सौ युद्ध जीतने वाले राजा के रूप में थी। उसकी नौसेना की शक्ति तथा क्षमता असीम थी। उसका हाथियों तथा घुड़सवारों युक्त सैन्य बल बड़ा विशाल तथा शक्तिशाली था। दूर दृष्टि युक्त दृष्टिकोण द्वारा उसने विक्रमशिला तथा ओदंतपुरी जैसे विश्वविद्यालयों को भी स्थापित किया था।
अपने पिता की ही तरह देवपाल भी एक साहसिक योद्धा था। उसने अपने पिता द्वारा स्थापित साम्राज्य का विस्तार कर उन भूभागों पर शासन किया। उसके साम्राज्य की सीमा पश्चिम में कम्बोज (आज के पाकिस्तान में स्थित है), दक्षिण में विन्ध्य पर्वतमाला, उत्तर में हिमालय तथा पूर्व में समुद्र तक फैली थी। यद्यपि वह प्रतिहार राजाओं की तीन पीढ़ियों से युद्ध कर उन्हें हराता रहा तथापि वह राष्ट्रकूटों को परास्त नही कर पाया जो अत्यधिक शक्ति संपन्न थे। यह भी सत्य है कि देवपाल के समय तक राष्ट्रकूटों ने भी उत्तर भारत के क्षेत्रीय राज्यों को जीतने की आशा छोड़ दी थी।
देवपाल बहुत बड़े सैन्य बल के प्रबंधन में अति कुशल था और वह अपने रणनीतिक युद्ध कौशल के कारण ही विजयी होता रहा था। अरब यात्री सुलेमान कहता है कि देवपाल की सेना का अनुशासन और शक्ति अति प्रशंसनीय थी, उसके सैनिकों की वर्दी धोने के लिए लगभग पन्द्रह हजार धोबियों को नियुक्त किया गया था, तथा उसकी सेना में पचास हजार हाथियों को शामिल किया गया था।
पाल राजा यद्यपि बौद्ध धर्म के अनुयायी रहे किंतु अपने शासन के प्रारंभिक वर्षों में उन्होंने सनातन धर्म की ही आधारभूत मान्यताओं को विश्व में प्रसारित किया था। उन्होंने क्षात्र के महत्व को जान लिया था। उन्होंने बौद्ध शिक्षा केन्द्रों जैसे नालन्दा विश्वविद्यालय आदि में उदारतापूर्वक दान दिया। उन्होंने अपने देश तथा विदेश के बौद्ध राजाओं तथा विद्वानों को प्रोत्साहित कर उनसे मैत्री संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। फिर भी वे सनातन धर्म को मानने वाले व्यापक जनसंख्या क्षेत्र पर शासन करते रहे। उन्होंने न तो किसी का बौद्ध धर्म में धर्मांतरण किया न किसी पर बौद्ध धर्म की मान्यताओं को थोपने का प्रयास किया। ऐसा प्रतीत होता है कि पाल राजाओं ने विभिन्न हिन्दू देवी देवताओं के अनेक पूजा केन्द्रो को स्थापित किया था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]मेधातिथि की इस टीका की विशेषता यह है कि इसमें उसने – वर्णाश्रम व्यवस्था की आंतरिक गतिशीलता और उदारता, बलपूर्वक धर्मान्तरित हिन्दुओं के पुनः सनातन धर्म में प्रवेश, महिलाओं की गरिमा के रक्षणार्थ उपायों, म्लेच्छों द्वारा बलात्कार की शिकार महिलाओं के सम्मान के पुनर्स्थापनार्थ उपायों, सतीप्रथा का तीव्र विरोध आदि विषयों पर स्पष्ट वर्णन किया है। मेधातिथि ने क्षात्र का विशेष महत्व दर्शाते हुए अपने दुश्मनों के प्रति किस चतुराई अथवा औदार्य के साथ लोहसंकल्पित विवेक की आवश्यकता पर जो विचार रखे है वे हर समय के लिए यथावत रूप से महत्वपूर्ण है।