भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 55

This article is part 55 of 75 in the series Kshatra Parampare in Hindi

चन्देलों की उपलब्धियां

कालिंजर को राजधानी बनाकर बुंदेलखंड पर शासन करने वाले चंदेल मूलतः शूद्र थे। वे अपने शौर्य के कारण क्षत्रिय बन गये। चंदेलों में हर्षपुत्र यशोवर्मा ने अपनी उपलब्धियों द्वारा स्वयं को एक विशिष्ट पहचान प्रदान की थी। उसने सीयक परमार, पालवंशी विग्रहपाल तथा कलचुरी के राजकुमार को परास्त किया था। खर्जुरवाट (खजुराहो) की विशाल मंदिर – श्रृंखला तथा चतुर्भुज नारायण देवालय आज भी इस राजा के शौर्य के साथ साथ उसकी धर्म परायणता तथा कलात्मक संवेदना का साक्ष्य दे रहे है। यशोवर्मा का पुत्र धंग (सन् 950-1004) चंदेलों में श्रेष्ठतम शासक था। उसने अपने साम्राज्य का इतना विस्तार कर लिया कि वह गुर्जर प्रतिहार सम्राटों के समकक्ष स्थिति में आ गया। इस स्वाभिमानी सनातनी साहसी योद्धा ने सबुक्तिगिन और महमूद गजनवी के हिंसक प्रवाह को रोक दिया। जिन मंदिरों का निर्माण कार्य यशोवर्मा ने प्रारम्भ किया था उसे पूरा करने का श्रेय भी धंग को जाता है। उनके पौत्र विद्याधर ने भी महमूद गजनवी से युद्ध किया था किंतु हार गया और संधि करने को विवश हुआ जिसमें उसे भारी संपदा की क्षति झेलना पड़ा। फिर भी उसकी राज्य सीमाएं सुरक्षित रही। इसके पश्चातवर्ती चंदेल राजाओं में परमर्धि (सन् 1165-1202) एक अत्यंत साहसी सेनानायक के रूप में पहचाना गया। दुर्भाग्य से उसे भी कुतुबुद्दीन ऐबक के आक्रमण में हार कर अपमानजनक संधि करनी पड़ी थी। उसके शासन के अधीन ऐसी अपमानजनक स्थिति से क्रोधित हो कर उसी के एक मंत्री अजय देव ने अपने सम्राट का वध कर दिया। बाद में परमर्धि के पुत्र त्रैलोक्यमल्ल ने कुतुबुद्दीन ऐबक से युद्ध कर उसे परास्त किया तथा अपने साम्राज्य की राजधानी कालिंजर को पुनः प्राप्त कर लिया। ऐसे अनेक उदाहरण है जहां राजाओं ने भव्य क्षात्र भाव का प्रदर्शन किया था। बाद के समय में यद्यपि चंदेल अपना राज्य तो सुरक्षित रख सके फिर भी वे इस्लाम के हिंसक आक्रमाणों के निरंतर प्रवाह के समक्ष असहाय से हो गये। किंतु चंदेलों की वैभवपूर्ण सनातन धर्म आधारित क्षात्र चेतना की धरोहर वस्तुतः प्रशंसनीय है जिसने बाद के समय में छत्रसाल जैसे वीर योद्धा शासकों को जन्म दिया। यह चंदेलों का इस भारत भूमि को उनका सर्वश्रेष्ठ योगदान कहा जा सकता है।

चौहानों की सर्वोच्चता

चौहान (चाहमान) मध्यकालीन भारतीय राजपूत राजवंशों में सबसे अधिक विस्तार में प्रभावशाली रहे थे। उनका उदय राजस्थान के शाकम्बरी, रणथम्भौर नाडोल और जालौर क्षेत्र में दसवीं से तेरहवी शताब्दी के मध्य हुआ और शनैः शनैः वे सब ओर फैलते चले गये। वे सतत रूप से इस्लाम आक्रमणकारियों से लडते रहे। इनमें शाकम्बरी शाखा सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही है।

इसमें दुर्लभराज प्रथम का असाधारण शक्ति प्रदर्शन प्रशंसनीय रहा। प्रतिहार सम्राट वत्सराज के एक क्षत्रप के रूप में उसने धर्मपाल के विरुद्ध युद्ध किया था। दुर्लभ का पुत्र गोविन्द राज प्रथम प्रतिहार सम्राट नागभट्ट द्वितीय के समर्थन में सहयोगी बन कर अरबों को सिंध से बाहर भगाने में सफल हुआ था। इसी वंश परम्परा से वाकपतिराज का पुत्र सिंहराज आता है जिसने अपने शौर्य से ‘महाराजाधिराज’ (राजाओं का राजा) की उपाधि प्राप्त की थी।

इस समय तक चौहानों ने आज के राजस्थान के पूर्वी तथा उत्तरी सीमा क्षेत्रों तक अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। इसी राजवंश के राजा अजयराज ने आज का अजमेर (मूलतः अजयमेरु) बसाया था। इसके उत्तराधिकारी विग्रहराज ने अनेक बार इस्लामिक आक्रमणों को परास्त करते हुए दिल्ली-पंजाब क्षेत्र पर विजय प्राप्त करने का सम्मान प्राप्त किया।

इस राजवंश का अंतिम राजा पृथ्वीराज चौहान तृतीय था। यद्यपि वह एक अत्यंत वीर योद्धा था किंतु वह मोहम्मद गौरी के षड्यंत्रकारी जाल में फंस कर अंततः विनाश को प्राप्त हुआ। अपनी अपूरदर्शिता, दुश्मन के रणकौशल तथा उसकी हार की नासमझी तथा अपनी अनुचित सहृदयता के कारण उसका अंत हुआ। पृथ्वीराज तृतीय के पुत्र गोविंद ने रणथम्भौर साम्राज्य की स्थापना की थी।

गोविन्द के उपरांत जिस राजा ने इस्लामिक आक्रमणों का सफलता पूर्वक सामना किया था उसमें वीरनारायण का नाम उल्लेखनीय है। किंतु वह भी दिल्ली के धोखे बाज बादशाह इल्तुतमिश के जाल में फंस गया जिसने उसे सम्मान प्रदान करने के बहाने से दिल्ली आमंत्रित किया और रहस्यात्मक ढंग से उसकी हत्या करके रणथम्भौर पर अपना अधिकार जमा लिया। तथापि वीरनारायण के ममेरे संबंधी प्रसिद्ध योद्धा वाग्भट्ट ने इल्तुतमिश का पीछा कर उसे भगा दिया और रणथम्भौर वापस प्राप्त कर लिया। सन 1248 से 1253 तक जितने भी सैन्यदल सुल्तान ने रणथम्भौर भेजे थे उन सबको हार का सामना करना पड़ा।
वाग्भट्ट का पुत्र जैत्रसिंह था जो अपने पिता के समान ही क्षात्र चेतना का आदर्श उदाहरण था। उसने इस्लामिक आक्रमणों को परास्त कर सदैव अपना सम्मान बनाए रखा। जैत्रसिंह का पुत्र हमीर एक सर्वश्रेष्ठ योद्धा था जिसमें हम ब्रह्म तथा क्षात्र का श्रेष्ठतम संगम देख सकते है। अन्य वेदिक परम्पराओ के निर्वहन के साथ साथ उसने सफलता पूर्वक ‘कोटि-यज्ञ’ का समापन किया था। जलालुद्दीन खिलजी से वह बहुत बहादुरी के साथ लड़ा। लगभग सन् 1300 में दुष्ट जलालुद्दीन खिलजी के कपट पूर्ण षड्यंत्र द्वारा हमीर के विश्वस्त साथी भोज, रतिपाल और जयमल आदि देशद्रोही बन गये और रणथम्भौर की स्वतंत्रता सदा के लिए संकट ग्रस्त हो गई। जलालुद्दीन खिलजी की कुदृष्टि न केवल हमीर की पुत्री देवलदेवी पर थी अपितु उसने संधि के लिए ऐसी शर्ते रखी जो अत्यंत अपमानजनक थी। इससे सम्पूर्ण राजपूत समाज जलालुद्दीन खिलजी के अति नीच चरित्र के प्रति घृणा भाव से भर गया और उन्होंने मृत्युपर्यन्त युद्ध करते रहने का निश्चय कर लिया। इसी के साथ उन्होंने अपनी समस्त महिलाओं को सनातन धर्म की रक्षार्थ ‘जौहर’ करने का आह्वान किया। उन्होने राक्षसी वृत्ति वाले सुल्तान के विरुद्ध असाधारण शौर्य का परिचय देते हुए युद्ध किया तथा अन्ततः ‘वीरस्वर्ग[1]’ को प्राप्त हुए। सेनानायक स्वाभिमानी योद्धा हमीर की मृत्यु के साथ चौहान राजवंश की एक और शाखा समाप्त हो गई।

नाडोल शाखा के चौहान राजवंश में अश्वपाल का पुत्र अणहिल एक बड़ा शासक था। उसने न केवल परमार भोज को और गुजरात के भीमदेव को हराया था अपितु इस्लामिक घुसपैठियों को निरंतर हराकर उन्हें भगाता रहा यह वास्तव में बड़ा दुर्भाग्य पूर्ण रहा कि उसका साम्राज्य कुतुबुद्दीन ऐबक के अनियंत्रित आक्रमण के कारण समाप्त हो गया।

जालोर शाखा के चौहान राजवंश के शासकों में कीर्तिपाल का नाम प्रमुख है। यद्यपि वह एक पक्का सनातनी था फिर भी उसने जैन तथा अन्य धार्मिक पंथों को उदारता पूर्वक शरण दी। कीर्तिपाल के पुत्र समरसिंह ने मंदिरों के निर्माण, धर्म चेतना के प्रसार तथा ज्ञान प्रसार के साथ सहृदयता पूर्ण दान कर्म से बडी ख्याति अर्जित की थी। वह राजनीति का एक चतुर खिलाड़ी था। उसने अभेद्य किलों और शहरों का निर्माण करवाया। उसके समय में राज्य में शांति और समृद्धि बनी रही। उसका पुत्र उदयसिंह भी एक योग्य उत्तराधिकारी था। उसने न केवल अपने राज्य की सीमा में अभिवृद्धि की किंतु इल्तुतमिश के आक्रमणों को भी झेला। यद्यपि वह इल्तुतमिश के बडे सैन्य बल और कौशल के कारण हार गया फिर भी उसने एक वीर योद्धा का सम्मान अर्जित किया था। इल्तुतमिश का हिन्दू द्वेष यहीं तक सीमित नहीं रहा और उसने गुजरात पर आक्रमण कर वहां के राजा वीरधवल वाघेला को घेर लिया। इस स्थिति को सहन न कर पाने के कारण उदयसिंह तत्काल राजा वीरधवल की सहायतार्थ पहुंचा और उसने इस मुस्लिम आक्रमण को विफल कर वापस लौटा दिया।

उदयसिंह की सैन्य शक्ति के समान ही उसका कलाप्रेम भी था। यह वास्तव में अत्यंत दुखद स्थिति रही कि यह प्रतिष्ठित राजवंश भी अन्ततः अलाउद्दीन खिलजी के अमानवीय आक्रमण के कारण समाप्त हो गया।

To be continued...

The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.

Footnotes

[1] युद्ध भूमि मे वीरगति प्राप्त करने वाले योद्धाओं हेतु आरक्षित देवीय स्वर्ग

Author(s)

About:

Dr. Ganesh is a 'shatavadhani' and one of India’s foremost Sanskrit poets and scholars. He writes and lectures extensively on various subjects pertaining to India and Indian cultural heritage. He is a master of the ancient art of avadhana and is credited with reviving the art in Kannada. He is a recipient of the Badarayana-Vyasa Puraskar from the President of India for his contribution to the Sanskrit language.

Translator(s)

About:

Prof. Dharmaraj Singh Vaghela served as the Head of the Department of Physics at the Government Arts and Science College, Ratlam of the MP Govt. Higher Education Department, until his retirement in 2004. He has published a number of papers in Plasma Physics in international journals. His papers have also appeared in the research journal of the Hindi Science Academy. Among other books, he has translated Fritjof Capra's best-selling work "The Tao of Physics" into Hindi. He has written a monograph in Hindi which explains the philosophical aspects of modern physics.

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