योद्धा राजवंशों का साहसिक प्रतिरोधक युग
यदि कोई साम्राज्य 220-250 वर्षों तक बना रह सकता है तो उसे एक सफल साम्राज्य कहा जा सकता है। आज के भारत के चार प्रदेशों के औसत क्षेत्रफल वाले विस्तार के भौगोलिक क्षेत्र में फैले सुरक्षित तथा सक्रिय शासन को एक शक्तिशाली साम्राज्य माना जा सकता है। इस पैमाने के अनुसार भारत के कुछ ही राजवंशों को श्रेष्ठता प्रदान की जा सकती है। इनमें मौर्य, गुप्त, चालुक्य, राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा विजयनगर के राजवंश सम्मिलित है।
गुप्त साम्राज्य के उपरांत अनेक सम्राटों ने उसी के समान वैभव प्राप्त करने का प्रयास किया था। इनमें मालवा सम्राट यशोधर्म, गौड़ देश के नरेश शशांक तथा कश्मीर के ललितादित्य मुख्य रूप से उल्लेखनीय है। किंतु इन शासकों के साम्राज्य उनकी मृत्यु के उपरांत शीघ्र ही छिन्न भिन्न हो गये थे। यशोधर्म ने हूण नायक तोरमाण के पुत्र मिहिराकुल को पराजित किया था। हूणों को मौखरी राजाओं ईशानवर्मा और सर्ववर्मा ने भी हराया था। किंतु इनमें से कोई भी स्कंदगुप्त के समान टिकाऊ ऐसी धरोहर नही छोड पाया कि जिसने हूणों को न केवल अपनी सीमा से निष्कासित किया था किंतु उनमें इतना भय भर दिया था कि वे पुनः लौटने का विचार भी न कर सके। गुप्त साम्राज्य का अंतिम सम्राट नरसिंहगुप्त बालादित्य को माना जाता है जिसने मिहिराकुल को अभिभूत कर दिया था, वह स्कंदगुप्त का ही वंशज था तथापि स्कंदगुप्त तथा बालादित्य के मध्य अनेक राजा आये जैसे कि – कुमारगुप्त द्वितीय, पुरगुप्त, बुधगुप्त इत्यादि। गुप्त साम्राज्य को वस्तुतः सिथियन तथा हूणों के बाह्य आक्रमणों से संकट नही था किंतु उसे अपने ही स्थानीय क्षत्रपों तथा यशोधर्म जैसे सैन्यनायकों से जूझना पड़ रहा था। इसमें सांत्वना पूर्ण स्थिति इतनी ही थी कि हमारे देश का शासन हमारे ही देशवासियों के अधिकार में रहा था। इससे सनातन धर्म तथा उसकी संस्कृति निरंतर रूप से पोषित होती रही जो एक बहुत बडी उपलब्धि मानी जा सकती है।
उत्तर भारत में जिस प्रकार शिलादित्य हर्षवर्धन का साम्राज्य उसकी मृत्यु के पूर्व ही पतनोन्मुख होना प्रारम्भ हो गया था उसी प्रकार यशोधर्म, शशांक तथा ललितादित्य के साम्राज्य भी उनकी मृत्यु के उपरांत नष्ट हो गये। किंतु दक्षिण भारत में चालुक्य, पल्लव, राष्ट्रकूट तथा अन्य राजवंश बारम्बार अपने वैभवपूर्ण शौर्य को जागृत रखते हुए उन्नत होते रहे।
सुस्पष्ट प्रमाणों को अनदेखा कर हमारी स्कूल और महाविद्यालय की इतिहास की पुस्तकों द्वारा यह पढ़ाया जा रहा है कि हर्षवर्धन के देहावसान के बाद संपूर्ण भारत में अराजकता फैल गई थी[1] तथा इस षड्यंत्रकारी झूठ को शिक्षित लोगों के माध्यम से सारे विश्व में फैलाया गया है जो आज भी हो रहा है इस दुष्प्रचार ने हमारी संस्कृति तथा क्षात्र भाव को अत्यधिक क्षति पहुंचाई है। उत्तर में गुर्जर प्रतिहार, चौहान, चंदेल, पाल और सेन लोगों ने वैभवपूर्ण साम्राज्यों को स्थापित कर सदियों तक शासन किया। दक्षिण के चालुक्यों तथा राष्ट्रकूटों का साम्राज्य उत्तर भारत तक भी विस्तारित हुआ था[2] । इनके अतिरिक्त कलचुरियों तथा कलिंग वासी गंग लोगों ने भी अपने साम्राज्यों का निर्माण कर उन्हें सफलतापूर्वक चलाया था। हर्ष की मृत्यु के उपरांत भारत में क्षात्र भाव के वैभव को कोई वास्तविक क्षति नहीं पहुंची थी – इस दृष्टि से यह उचित होगा कि हम कुछ राजवंशों के प्रतिभायुक्त क्षात्रभाव का परीक्षण करें जो उस काल में प्रमुख रूप से चर्चित रहे थे।
गुर्जर प्रतिहारों का शौर्य
कर्नाटक के कदम्बों की ही तरह मूलतः ब्रह्म से संबंध रखने वाले गुर्जर प्रतिहारों ने भी क्षात्र भाव को अपना लिया। उनके साम्राज्य का संस्थापक एक श्रोत्रिय ब्राह्मण हरिचन्द्र था। उसकी पत्नी भद्रा क्षत्रिय कुल की थी। यशोधर्म की मृत्यु के उपरांत मालवा में बढ़ती हुई अराजकता तथा संपूर्ण उत्तर पश्चिम भारतीय क्षेत्र की अव्यवस्था को समाप्त करने के लक्ष्य से एक ‘आपद्धर्म[3]’ के रूप में हरिचन्द्र को हथियार उठाना पड़े। उसने शीघ्र ही निर्णायक रूप में संपूर्ण क्षेत्र में अर्थात आज के पंजाब, राजस्थान, गुजरात तथा सिंध में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया तथा भारतीय सीमा पर एक दृढ़ सुरक्षा प्रहरी के रूप में स्वयं को स्थापित कर लिया। उनके इस सुकृत्य के फल स्वरूप उसे सम्मानार्थ ‘प्रतिहार’ (रक्षक) की उपाधि से विभूषित किया गया तथा वह प्रतिहार राजवंश का संस्थापक कहलाया। इस साम्राज्य के राजाओं ने अरबों के अनेक आक्रमणों को निष्फल कर दिया था। कुछ युद्ध वे जीते तथा कुछ हारे भी तथा समय चक्र के विपरीत प्रवाह में अन्ततः वे भी विलुप्त हो गये।
प्रतिहार साम्राज्य प्रारम्भ में आज के जोधपुर के निकटवर्ती क्षेत्र में पोषित हुआ था। अपने शिखर काल में इस राजवंश ने अनेक ‘राजपूत’ राजवंशों के बीजारोपण तथा उनके प्रशस्त होने का मार्ग तैयार कर दिया था। इतिहासकारों के मतानुसार मेवाड़ के गुहिल पुत्र, पाटन[4] के चापोत्कट और मोरिया आदि का उद्गम यहीं से हुआ था। वस्तुतः पूरे पंजाब, राजस्थान, गुजरात, सिंध क्षेत्र में विभिन्न जनजातियों को एक करने, संगठित करने तथा उनमें व्यवस्था स्थापित कर उन्हे युद्ध कौशल का प्रशिक्षण देकर योद्धा भाव से भरने में प्रतिहारों की ही मुख्य भूमिका रही है। इसी कारण से अगले हजार वर्षों तक कभी न हार मानने वाली एक ऐसी सैन्य शक्ति का विकास हुआ जिससे उस क्षेत्र में क्षात्र भाव को सुरक्षित रखा।
इसी प्रतिहार राजवंश की एक अन्य शाखा ने अवन्ति (उज्जैयनी) राजधानी से अपना शासन चलाया था। इस शाखा के प्रमुख राजाओं में नागभट्ट, वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, भोज, महेन्द्रपाल, महिपाल तथा अन्य के नाम आते हैं। यद्यपि नागभट्ट प्रथम राष्ट्रकूट के दन्तिदुर्ग द्वारा पराजित हो गया था फिर भी उसने अपनी सीमाओं को दृढ़ता पूर्वक सुरक्षित रखा था।
सन् 778 में वत्सराज सिंहासन पर बैठा जब उसने बंगाल के पालवंशी राजा धर्मपाल को जो एक सशक्त बौद्ध नायक भी था, को पराजित किया था। उसने संक्षिप्त काल तक अपना साम्राज्य कान्यकुब्ज (कन्नौज) क्षेत्र तक बढ़ा लिया था। उसे राष्ट्रकूट राजा इन्द्र से हार कर पीछे हटना पड़ा था।
नागभट्ट द्वितीय ने आंध्र, सैन्धव, विदर्भ और कलिंग पर विजय प्राप्त की थी। उसने आनर्त (द्वारका के पास), मालवा, किरात, वत्स, मत्स्य और तुरुष्क क्षेत्रों पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। उसने धर्मपाल से कान्यकुब्ज वापस छीन लिया तथा उसे राजधानी बनाकर अपने शासन द्वारा प्रसिद्धि प्राप्त की थी। दुर्भाग्य से वह राष्ट्रकूट गोविन्द द्वारा हरा दिया गया । राष्ट्रकूट लम्बे समय से प्रतिहारों के शत्रु रहे थे।
तार्किक रूप से प्रतिहारों का श्रेष्ठ सम्राट राजा भोज (यह परमार वंशी राजा भोज नहीं है) था। उसने 46 वर्ष के एक असाधारण रूप से लम्बे समय तक शासन किया। उसने युद्ध पिपासु अरबों को समाप्त किया, बंगाल के नारायणपाल को हराया, राष्ट्रकूट के कृष्ण को परास्त किया तथा अपना आधिपत्य पूरे गुजरात से अवध (अयोध्या) क्षेत्र तक स्थापित किया। उनका साम्राज्य कान्यकुब्ज राजधानी के साथ पंजाब से नर्मदा तक विस्तृत था। भोज के साम्राज्य का विस्तार गुप्त तथा हर्षवर्धन के साम्राज्यों से भी अधिक था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]इस झूठ का मूल इस विमर्श में है कि जब इस्लाम धर्मी आक्रमणकर्ता भारत में आये तब भारत टुकडों-टुकड़ों में बंटा हुआ था जिसे इन इस्लाम धर्मी शासकों ने दिल्ली की सल्तनत पर बैठ कर एक किया तथा जब इसके बाद ईसाई धर्मी ब्रिटिश शासक आये तो उन लोगों ने उदारमना होकर हमें एक राष्ट्रीयता प्रदान की।
[2]उत्तर भारत के सोलंकी तथा राठौड़ क्रमशः चालुक्यों तथा राष्ट्रकूटों से निकले उपनाम है
[3]विशेष धर्म जो आपत्ति काल में अपनाया जा सकता है
[4]आज का राजस्थान