साम्राज्यों का युग
गुप्तकाल के अंतिम समय मे गंगा किनारे स्थानेश्वार (थानेश्वर) का उदय हुआ | यह कुरुक्षेत्र में अम्बाला तथा दिल्ली के मध्य स्थित है | यहाँ हर्षवर्धन नामक सम्राट हुआ | गुप्त लोगों के सामान वह भी वैश्य कुल का था | हर्षवर्धन के पिता का नाम प्रभाकरवर्धन तथा भाई का नाम राज्यवर्धन था | जब उनका साम्राज्य सुहृढ स्थिति में था तब भी उन्हें विभिन्न दिशाओं से दबाव तथा संकटों का सामना करना पड़ा था | यह स्वाभाविक भी था क्यूंकि प्रत्येक राज्य में वही के कुछ लोग विरोधी भी होते है | ऐसा बिना अपवाद हर देश मे, समाज मे, सम्प्रदाय मे होती हे भले ही उसके परिणाम मे अंतर हो | ऐसी कठिन परिस्थितियो में मात्र चौदह वर्षीया हर्षवर्धन को जीवन की कठोर सच्चाईयों से सामना करना पड़ा उसकी बहन राज्यश्री जिसका विवाह कन्नौज नरेश गृहवर्मा से हुआ था, वह मालवा के राजा द्वारा मारा गया जिससे राज्यश्री विधवा हो गयी थी तथा बाद में बंधी बना ली गयी थी | हर्षवर्धन के पिता की मृत्यु हो गयी तथा पिता का मृत्यु न सेह पाने के कारन राज्यवर्धन भी चल बस उसकी माता यशोमति अपने पति के साथ सहगमन करते हुए सती हो गयी | इस प्रकार की त्रासदियों को सब और से झेलते हुए भी हर्षवर्धन दृढ़ता पूर्वक खडा रहा तथा संकटों से बहादुरी के साथ जूझता रहा | एक और गौड़ देश के राजा शशांक से युद्ध कर रहा था वही दूसरी ओर उसे प्रत्यन्तदस्यु (पश्चिमी सीमा तथा समुद्रतटीय) आक्रमणों से भी लड़ना पड रहा था | इसके अतिरिक्त उसे अपने ही राज्य में आतंरिक विरोध पर भी नियंत्रण रखना था | उसे अपनी विधवा बंदी बहन को भी ढूंढ़ना था हर्षवर्धन यह सब सफलतापूर्वक कर सका | क्यूंकि उसकी बेहेन को कोई संतान नहीं था अतः उसका राज्य हर्षवर्धन को ही प्राप्त हुआ | इन सभी विषम स्थ्तियोँ के बाद भी आश्चर्यरूप से हर्षवर्धन ने विभिन्न दर्शन शास्त्रों को सीखने की अपनी अभिरुचि को बनाऐ रखा| वह साहित्य, नृत्य, संगीत, नाटक तथा अन्य कलाओं का बड़ा प्रशंसादाता था | इस प्रकार उसने अपनी प्रजा को शांति तथा सुखमय वातावरण देने का पूर्ण प्रयास किया |
इन सब अच्छाइयों के बाद भी वह कुछ सन्दर्भों में विफल रहा | अपने अनेक गुणों के साथ हर्षवर्धन में बहुत सारी कमियां भी थी | वस्तुनिष्ठता के साथ हमें व्यक्ति का अच्छाइयों और बुराइयों को समझना होगा जहां भावनात्मक रंग या संकोच का कोई स्थान न हो | केवल प्रशंसा में पीठ पर थपथपाना ही पर्याप्त नहीं है हमें पीठ पर चाबुक की मार के लिये भी तैयार रहना चाहिए | जिस साम्राज्य में ब्राह्म तथा क्षात्र का गतिशील संतुलन न रखा गया हो तो भले ही वह कितना हि शक्तिशाली या धार्मिक रहा हो, अपने सम्राट की मृत्यु के बाद उसका पतन होना अवश्यम्भावी है |
महान सम्राट अशोक, कानिष्क तथा हर्षवर्धन एसे शासक थे जो अपने सही उत्तराधिकारियों की पहचान नहीं कर सके | यद्यपि वे स्वयं महान थे फिर भी उनके साम्राज्य का पतन हो गया | कानिष्क के समय कुषाण साम्राज्य शिखर पर था किन्तु उसकी मृत्यु के बाद ही वह छिन्न भिन्न हो गया | उसके बाद हुविष्क जैसे लोग आये किन्तु वे टिक नहीं पाये |
इसी प्रकार अशोक के बाद अल्पकाल के लिए दशरथ, बृहद्रथ संप्रति चन्द्रगुप्त एवं अन्य लोग आये वे भी साम्राज्य को सम्हाल नहीं पाये |
बहादुर शाह जफर का ही उदाहरण ले तो उसे मुगल सल्तनत का अन्तिम ‘सम्राट’ कहना उचित नहीं है क्योंकि वह मात्र कहने भर का शासक था | दक्षिण में मराठा लोग सशक्त थे उत्तर में सिखों का वर्चस्व था | जफर के पास इनके अंश भर की शक्ति भी नहीं थी | एसी स्थिति में क्या हम उसके शासनकाल को मुगल साम्राज्य का शिखर बतला सकते है? जब की जफर के पहले औरंगजेब बहुत शक्तिशाली बादशाह रहा, वह रणनीति और दगाबाजी करने में अत्यंत कुशल था | यद्यपि उसके शासन के अन्तिम समय मे मुगल साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो चुका था जिसका मूल कारण उसकी निर्दयता और धर्मान्धता थी | औरंगजेब को दुष्ट, विश्वासघाती, परपीडक जैसे विशेषण भी हल्के लगते है | किन्तु अशोक, कानिष्क तथा हर्षवर्धन तो बडे उदार दृष्टिकोण वाले, दयालु तथा सर्वधर्म समभाव वाले ऐसे शासक थे जो अपनी प्रजा को प्रेम करते थे और फिर भी उनका साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया | यहा तो कोई निर्दयता या करुणा का पक्ष कोई महत्व ही नही रखता है | अपनी धार्मिक मान्यताओ के प्रति स्वयं का अमर्यादित आचरण सदैव विनाश का साधन बनता है |
क्षात्र में एक संतुलन की आवश्यकता होती है | ‘न अति कोमल और न अति कठोर‘ परिस्थितियों के अनुसार प्रतिक्रिया, इसे किसी अपरिवर्तनीय सूत्र या सिद्धान्त पर आधारित नहीं किया जा सकता है | बाणभट्ट ने अपने सम्राट हर्षवर्धन का जीवन चरित्र अपने काव्य ‘हर्षचरित’ में सुंदरता के साथ गाया है | बाणभट्ट के इस असाधारण काव्य में अद्वितीय कवित्व तथा जीवन मूल्यों की झलक है | हर्षवर्धन स्वयं एक अच्छे कविसंरक्षक तथा विद्वानों का सम्मान करने वाले थे तथा विदेशी यात्रियों जैसे इत्सिंग ह्युएनत्संग का आश्रय दाता भी था | वह बड़ा दानवीर था | उसकी उदारता इतनी अधिक थी कि प्रति पांच वर्षों में वह प्रयाग जाकर अपना पूरा कोश दान में रिक्त कर देता था | एक बार सब कुछ दान देकर उसे स्वयं का तन ढकने के लिए अपनी बहन से वस्त्र मांगना पड़ा था | ऐसा अनासक्त उदार मन होते हुए भी उसकी मृत्यु के उपरान्त उसका साम्राज्य ऐसे गिरा मानो कुत्तों के सुपर्द हो गया हो | ऐसा उससे कैसे हुआ? शायद यः उसके औदार्य प्रदर्शन तथा शान्ति और करुणा के अनचाहे अतिरेक का परिणाम था |
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.