भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 45

This article is part 45 of 75 in the series Kshatra Parampare in Hindi

कलिंग देश का सम्राट खारवेल यद्यपि जैन धर्म का अनुयायी था जो अहिंसा की परम्परा व विचारों के लिए विश्वविख्यात है, किंतु वह क्षात्र के सिद्धान्त को मानने वाला महान योद्धा के रुप में प्रसिद्ध हुआ जिसके बारे में बहुत कुछ जानना शेष है। वह उन प्राचीन शासकों में से या जिन पर हम गर्व कर सकत हैं। खारवेल के बारे में सबसे बडा साक्ष्य हाथीगुम्फ काशिलालेख है जो भुवनेश्वर के निकट उदयगिरी गुफा में स्थित है। भुवनेश्वर उडिसा की राजधानी है।

खारवेल ने कलिंग पर शासन करते हुए ‘दिग्विजय’ करने की दृष्टि से युद्ध में मौर्य लोगों का सामना किया, सातवाहनों से युद्धकर प्रसिद्धि प्राप्त की, शातकर्णी जैसे राजा को हराया। खारवेल का शौर्य इतना प्रसिद्ध था कि बाह्लीक देश के रहने वाले ग्रीक लोग भी उससे डरते थे। गंगा तट पर मगध सम्राट को चुनौती देने के उपरांत वह दक्षिण में कृष्णा और कावेरी नदी क्षेत्र में आया और उसने तमिल राजाओं को हरा कर दक्षिण पूर्वी भारत पर अपना अधिपत्य स्थापित किया। उसने अपने प्रजाजनों के हितों का संरक्षण करते हुए व्यापक रुप से अच्छे काम किये। संगीत में प्रशिक्षित खारवेल की नृत्य में भी पूरी रुचि थी। उसने खेती तथा सिंचाई के कार्यों को प्रोत्साहित किया। शिलालेख की विशेषता यह है कि उसमें खारवेल द्वारा वर्ष प्रति वर्ष जो भी उपलब्धियां प्राप्त की गई उन्हे लिखा गया है। यह प्राकृत भाषा में लिखा एक लम्बा अभिलेख है। इसका एक छोटा सा भाग विलुप्त हो चुका है। उसने अनेक जैन तथा वेदिक देवालय बनवाये। उसने वेदिक जीवन पद्धति को प्रोत्साहित किया, सनातन धर्म को बढ़ाया तथा अनेक वेदिक यज्ञ कियें। वह अपने संप्रदाय के धार्मिक विश्वास में धर्मान्ध नही था। उसने भारत में उसी प्रकार के स्थायित्त्व को स्थापित किया जैसा कभी महापद्मनंद के काल में था। खारवेल, महामेघवाहन वंश परम्परा से संबंधित था जो ब्रह्म-क्षात्र समन्वय का एक अति उत्तम प्राचीन उदाहरण तथा प्रतिनिधित्त्व प्रस्तुत करता है। वह आज भी स्मरणीय है तथा हमारा प्रेरणा स्त्रोत है।

इस पुस्तक में भारत की क्षात्र परम्परा का पूरा इतिहास नही दिया जा रहा है, मैने मात्र कुछ विशिष्ठ प्रकरणों का उद्धरण यंहा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मेरा प्रयास रहा है कि भारत के गौरवशाली इतिहास को भारतीय परिप्रेक्ष्य में सत्य तथ्यों के आधार पर समझने के साधनों को समझा जा सके। भारतीय दृष्टिकोण मात्र घटना के विवरण तक सीमित नही है। इस कृति में मेरा यह प्रान्जल प्रयास रहा है कि इसमें उन महान नायकों का जिन्होने भूतकालीन इतिहास में चुनौतियों का दृढता से सामना करते हुए स्वयं के प्राकृतिक स्वभाव के द्वारा जिन उच्च मानदण्डों का प्रतिस्थापन किया था उन्हे भी समझा जा सके। इस कृति का प्राथमिक उद्देश्य भारतीय क्षात्र परम्परा को सूक्ष्मता के साथ समझना है जिसमें उसके उत्थान तथा पतन भी सम्मिलित है। अतः हमें केवल उन तथ्यों व साक्ष्यों का सहारा ही लेना पडता है। जिनकी सत्यता प्रमाणित है। इससे भूतकाल के केवल उन्ही नायकों तथा राजाओं का वर्णन किया जा सकता है जिनके प्रमाणित साक्ष्य उपलब्ध है। इसमें भी हमें केवल उन राजाओं और योद्धओं का सर्वाधिक सम्मान करना है जिन्हे सबसे अधिक चुनौतियों का सामना करना पडा और जो युद्ध और शांति काल दोनों में समान रुप से दुष्टों को दण्डित तथा सज्जनों की सुरक्षा करते हुए जन हितेषी कार्य करते रहे। ऐसा करते समय हमारा यह मन्तव्य कदापि नही है कि उन महान नायको, योद्धाओं तथा राजाओं की उपलब्धियों तथा उनके त्याग और प्रतिभा की अवमानना हो जिनका वर्णन यंहा नही किया गया है।

कृतयुग के महान सम्राट मान्धाता का वर्णन न वाल्मीकि ने, न व्यास ने और न कालीदास जैसे कवि ने किया है और अब वे केवल एक नाम रह गये है। वाल्मीकि ने यद्यपि उर्मिला को अपने काव्य में स्थान तो दिया है किंतु उनके जीवन का विस्तृत विवरण नही किया है[1] जबकि उसका पातिव्रत्य, अच्छाइयॉ तथा चरित्र सीता के समान ही था। किंतु सीता को जैसी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पडा उस वर्णन के साथ राम-सीता की उपलब्धियॉ अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है तथा सबका प्रेरणा स्त्रोत बनती है। किंतु इससे राजा मान्धाता अथवा उर्मिला का अनादर नही होता है। हमारे देश के इतिहास में अनेक राजवंशो में से हम मात्र कुछ ही साम्राज्यों तथा राजवंशो पर विमर्श कर पाते है तो इसका एकमात्र कारण यह है कि इन लोगों ने अधिक चुनौतियों का अधिक योग्यता तथा गुणवत्ता के साथ सामना करते हुए उच्च आदर्शों का सफल स्थापन किया था जो तुलनात्मक रुप से अन्य द्वारा नही किया जा सका था तथा इस सम्बन्ध में विवरण भी उपलब्ध थे।

हमारे इतिहास में चुटु, नोलम्ब, कलचुरी, पुन्नाड, बाण तथा सेन्द्रक जैसे साम्राज्यों को वह स्थान नही दिया गया है जो चालुक्य, राष्ट्रकूट तथा विजयनगर साम्राज्यों को प्राप्त है। यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि छोटे छोटे अनेक राजवंशों के संबंध में जिन्होने एक अति सीमित क्षेत्र में लम्बे समय तक शासन किया था, बहुत कम अर्थात लगभग नगण्य जानकारी उपलब्ध है। इन राजवंश के सम्बन्ध में मात्र कुछ खण्डित अभिलेख ही उपलब्ध है। इनके सम्बन्ध में न तो कोई ऐतिहासिक और न काव्यात्मक जानकारी प्राप्त है। हमें इस बात की शिकायत नही होना चाहिए कि सब लोगो ने मात्र महान योद्धाओ और राजाओं का ही वर्णन क्यों किया[2]? हमें प्राप्त जानकारी से ही सन्तुष्ट होना चाहिए आजकल इस बात पर बडा शोर मचाया जा रहा है कि हमारे अध्ययन के केन्द्र में सामान्य व्यक्ति को रखा जाना चाहिए । किंतु यह सदैव स्मरण रखना आवश्यक है कि विश्व तथा मानव विकास के लिए श्रेष्ठतम तथा महानतम आदर्श को ही लक्ष्यमान कर आगे बढ़ना आवश्यक होता है। उदाहरण स्वरुप हमारे सूर्यमण्डल का केन्द्र सूर्य है तथा पृथ्वी तथा अन्य गृह उसी से ऊर्जा प्राप्त कर उसकी चारो और परिक्रमा करते हैं। यह प्रकृति का शाश्वत नियम है, इसमें किसी को भी परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। प्रतिदिन सुबह के अखबारों के मुख्य समाचारों में हम बडे बडे राजनेताओं, प्रसिद्ध अभिनेताओं, ख्यात खिलाडियों, कलाकारों, वैज्ञानिको, अभियंताओं, अर्थशास्त्रियों, उद्योगपतियों आदि का ही विवरण पाते है। क्या यंहा सामान्य व्यक्ति को कोई महत्त्व दिया जाता है ? समाज की स्थिति उसके नायकों की अच्छाइयों अथवा बुराइयों व्दारा ही निर्धारित हो पाती है। अतः हमें समाज के उच्च स्थिति आसीन विभूतियों के प्रति सभी संभवानाओं सहित उनके छोटे से छोटे सात्विक कार्य को महत्ता के साथ देखना चाहिए।

ऐसी भी स्थितियॉ आती है जब परिवेश तथा पृष्ठभूमि सहायक नही होती है किंतु व्यक्ति के कार्य और उपलब्धियॉ अति उच्च तथा असाधारण होती है। उदाहरणार्थ, बुंदेलखण्ड के राजा छत्रशाल का भारतीय इतिहास में बडास्थान नही है किंतु युद्ध भूमि में उन्होने अपनी वीरता से प्रसिद्धि प्राप्त की। इसी प्रकार रानी दुर्गावती ने गोण्डवाना में अपना अद्वितीय शौर्य प्रदर्शित किया। कर्नाटक में मैसूर के वाडियार शासको ने लम्बे शासन काल में प्रजा का सम्मान प्राप्त किया और उनमें भी विशेष कर रणधीर-कण्ठीरव-नरसिंहराज वाडियार अपने शौर्य के कारण प्रख्यात रहे। बिदनूर की चिन्नम्माजी ऐसी बहादुर थी कि उसने शिवाजी के पुत्र को भी शरण दी थी। अतः ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो सामान्य परिवेश से उभर कर उच्च स्थिति तक पहुंचे। हमे ऐसे सभी लोगों का परिश्रम पूर्वक लेखा रखना चाहिए ताकि वे हमारे भविष्य की धरोहर बन सके।

To be continued...

The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.

Footnotes

[1]उस के बारे मे कुच विवाद तो है लेकिन यहा मे केवल एक मूलभूत तथ्य पर प्रकाश डालन चाहत हुं |

[2]एक छोटा पौधा यदि गिरा तो असंभव है के उसके नीचे हजारों जानवरों के मृत्यु हो, एक चींटी भी बच सकता है लेकिन यदि एक बडा पेड गिरा तो असंख्य जानवरों का विनाश होगा | यदि भूकंप हुआ तो अपार जनसंख्या का विनाश होगा किन्तु एक चट्टान के कंपन के कारण ऐसा बडा विनाश नहि होगा | इसका ये मन्तव्य नहि है कि केवल बडे लोगों के सुख दुःख ही महत्वपूर्ण है | असीम परिमाण भी एक गुण है | जो हमारे दृष्टि को प्रभाव करे उसका अभिज्ञान तथा परीक्षा अति अवश्यक है |

Author(s)

About:

Dr. Ganesh is a 'shatavadhani' and one of India’s foremost Sanskrit poets and scholars. He writes and lectures extensively on various subjects pertaining to India and Indian cultural heritage. He is a master of the ancient art of avadhana and is credited with reviving the art in Kannada. He is a recipient of the Badarayana-Vyasa Puraskar from the President of India for his contribution to the Sanskrit language.

Translator(s)

About:

Prof. Dharmaraj Singh Vaghela served as the Head of the Department of Physics at the Government Arts and Science College, Ratlam of the MP Govt. Higher Education Department, until his retirement in 2004. He has published a number of papers in Plasma Physics in international journals. His papers have also appeared in the research journal of the Hindi Science Academy. Among other books, he has translated Fritjof Capra's best-selling work "The Tao of Physics" into Hindi. He has written a monograph in Hindi which explains the philosophical aspects of modern physics.

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