विदेशी यात्रियों के पूर्वाग्रह
चीनी यात्री ह्वेन त्सांग, जिसे हर्षवर्धन का बड़ा सहयोग प्राप्त हुआ था, ने अपनी यात्रा गाथा में सम्राट की अत्यधिक प्रशंसा की है। उसने हर्षवर्धन को ‘शिलादित्य’ की उपाधि से महिमा मंडित किया है। उसके वर्णन में बौद्ध धर्म के प्रति उसके अति विश्वास से ऐसा प्रकट होता है मानों भारत में बिना बुद्ध के कुछ भी अस्तित्व में नही था। यह बौद्ध यात्री अपने धार्मिक मतान्धता में किसी से कम नहीं थे। ह्वेन त्सांग ने तो हर कदम पर सनातन धर्म को नीचा दिखाने का ही प्रयास किया था, उसने ब्राह्मणों और शैव, वैष्णवों की कटु आलोचना की है, वह कहता है कि काशी पूर्णतया नास्तिकों से भरी है। चूंकि सनातन धर्म के लोग जैन और बौद्धों को नास्तिक[1] कहते है अतः उन्होंने हिंदुओं को नास्तिक कहा। हर्षवर्धन ने ह्वेन त्सांग को महान ‘वाक्यार्थ गोष्ठी[2]’ में आमंत्रित कर अपने विचार प्रस्तुत करने का अवसर दिया था। उस घटना के विषय में ह्वेन त्सांग लिखता है “राजा ने मेरी उपस्थिति में किसी अन्य को बोलने का अवसर नहीं दिया” ऐसी स्थिती में शास्त्रविमर्श कैसे हुआ होगा? वह सुदूर चीन से नालन्दा में अध्ययन करने आया था क्या वह उस विश्वविद्यालय के समस्त विद्वानों से भी अधिक ज्ञान प्राप्त कर पाया था जिन्होने इसी भूमि में जन्म से लेकर तब तक ज्ञान साधना की थी? विदेशी भाषाओं का हम कितना भी गहन अध्ययन कर ले किंतु हम उस भाषा की मातृभूमि के पारंगत विद्वानों की बराबरी नही कर सकते है जिनकी रग रग में भाषा की आत्मा समाई हुई है[3]। विशेष कर तब जब वह समय विद्वत्ता का शिखर काल था। ऐसे में ह्वेन त्सांग का यह दावा कितना सत्य हो सकता है? यह विचारणीय है।
ह्वेन त्सांग यही नहीं रुकता है। वह महायान बौद्ध है। अतः वह हीनयान बौद्धों की चुने हुए शब्दों में कठोर आलोचना करता है और दावा करता है कि उसने ‘उन सबको शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था’ । हमारी परम्परा में भी ‘यतिराज विजय’, ‘शंकर विजय’ अथवा ‘मध्व विजय’ में भी हमें इसी प्रकार की वैचारिक दृष्टि के दर्शन होते है। वे कहते है कि उनके आचार्य के समक्ष उस समय के सारे के सारे विद्वान हार मान चुके थे। इतना ही नही वे उस समय के पांच सौ वर्ष पूर्व तथा एक हजार वर्ष बाद के लोगों की सूची बना कर कहते है कि यह सब उनके आचार्य से पराजित हो गये थे। क्या ऐसे विद्वान नही रहे होंगे जो उन्हें हराने योग्य न रहे होंगे ? किंतु वे ऐसे विद्वानों को महत्व नहीं देते है। अतः ऐसी कृतियों का मात्र सांप्रदायिक ही कहा जा सकता है न कि ऐतिहासिक।
चीनी यात्रीगण मुख्य रूप से अपने अनुवाद कार्य के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। इस क्षेत्र में उन्होंने प्रशंसनीय कार्य किया किंतु किसी भी चीनी विद्वान ने संस्कुत या पाली भाषा में एक भी बौद्ध या व्याकरण या अन्य शास्त्रीय ग्रंथ की कोई भी रचना नही की है। वे अपनी विद्वत्ता के लिए नहीं जाने जाते है। उन्होने मात्र अनुवाद कार्य किया था न कि कोई नवीन रचना द्वारा परम्परा में योगदान किया। इन चीनी यात्रियों के लेखन भी पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रहे है। अन्य प्रकरणों को छोड दे किंतु अपने धार्मिक विश्वास तथा आत्मप्रशंसा के प्रकरणों में वे पूरी तरह से अनावृत हो चुके हैं। किसी भी यात्री को अतिशयोक्तिपूर्ण यात्रा विवरण लिखने से रोका नहीं जा सकता है, चीनी यात्रियों के लिए भी ऐसा ही हुआ है। वे बडी दूर से भारत में अध्ययन के लक्ष्य से आये थे और उन्होंने अत्यधिक परेशानियों को झेला तो क्या पुरस्कार मिला? अपने देश में तथा विद्वानों की सभाओं में सम्मान और सामान्य लोगों के मध्य प्रशंसा तथा प्रतिष्ठा !! यद्यपि उनका कार्य प्रशंसनीय था फिर भी पुरस्कार को दृष्टिगत रखते हुए उन्होंने अपने कुछ विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से लिखे। अनेक विद्वानों तथा इतिहासकारों ने उनके विवरणों में पाये जाने वाले स्पष्टतः झूठ को पकड़ा है। डा. एच.एल. नागेगौड़ा ने अपने विशाल बहुभागी ग्रंथ जो कन्नड भाषा में है – ‘प्रवासी कंड इंडिया’ (विदेशी यात्रियों की दृष्टि में भारत) में इन यात्रियों के लेखन से चुन चुन कर ऐसे विवरणों को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया है। उन्होने अनेक पाद टिप्पणियों द्वारा उस काल की वास्तविक घटनाओं का विवरण दे कर इन यात्रियों के झूठ को स्पष्ट किया है[4]। कोई भी समझदार पाठक इन यात्रा विवरणों में दिये गये झूठ और गलतियों को जान सकता है।
जिस प्रकार चीन से तथा अन्य स्थानों से यात्रीगण भारत में आये और उन्होंने बौद्ध धर्म का अध्ययन कर, बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद किया उसी प्रकार से यूरोप से भी क्रिश्चियन विद्वान भारत में आये, उन्होंने संस्कृत सीखी और शोध कार्य किया कुछ दृष्टि से बौद्ध यात्री इन युरोपियन विद्वानों की तुलना में अधिक ईमानदार तथा दुर्भावनामुक्त प्रतीत होते है। बौद्ध लोगों में भारत के प्रति सम्मान तथा श्रद्धा भाव था, वे भारतीय लोगों तथा यहाँ की संस्कृति का आदर करते थे किंतु कुछ अपवादों को छोड दें तो युरोपियन ईसाई विद्वानों का दृष्टिकोण इससे बिल्कुल भिन्न था। वे रंग भेद तथा अपने राजनैतिक प्रभुत्व से ग्रसित रहे, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी तथा स्वयं के धार्मिक आग्रहों के कारण भारतीय संस्कृति तथा यहां की ज्ञान परंपरा को घृणा की दृष्टि से देखते थे। अपने पूर्वाग्रहों, सर्वोच्चता भाव के कारण उन्हें सदैव भारतीय मूल्यों को तुच्छ भाव ही देखा यहां तक कि आज भी स्वतंत्रता प्राप्ति के अनेक दशको के उपरांत भी एक औसत पाश्चात्य विद्वान का दृष्टिकोण नही बदला है। जबकि इनमे से किसी ने भी संस्कृत, प्राकृत अथवा किसी भी भारतीय भाषा में कोई भी महत्त्वपूर्ण काव्य या ग्रंथ नहीं लिखा है[5] । निसंदेह कुछ पाश्चात्य शोधकर्त्ताओं अध्ययन प्रणालियों का हमें बहुत लाभ प्राप्त हुआ है। कुछ सत्यान्वेषी पाश्चात्य विद्वानों ने ईमानदारी के साथ सत्य को स्थापित करने का प्रयास अवश्य किया है किंतु इस छोटे से लाभ की तुलना में हमें गलत जानकारियों द्वारा अन्य पाश्चात्य विद्वानों ने अत्यधिक क्षति, दुःख पहुचाया है तथा हमारे इतिहास को नुकसान पहुंचाया है[6]। पश्चिम से हमें उसी क्षेत्र में लाभ प्राप्त हुआ है जो धार्मिक मान्यताओं से मुक्त रहे है जैसे कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी का क्षेत्र । राजनीति तथा धार्मिक क्षेत्र में उन्होने हमें नष्ट करने का ही कार्य किया है तथा इस्लामिक आक्रमणों के हिंसक प्रवाह में इसने हमारे दुःख तथा कठिनाइयों को हजारो गुणा बढ़ा दिया है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]उस के बारे मे कुच विवाद तो है लेकिन यहा मे केवल एक मूलभूत तथ्य पर प्रकाश डालन चाहत हुं |
[2]शास्त्रार्थ
[3]हम फ्रेंच या जर्मन या ग्रीक भाषा मे प्रयत्न से कुछ प्रवीणता पा सकते है किन्तु उसी देशों में जन्म लेकर वह सालों से अध्ययन किया विद्वानों से हम कभी बेहतर हो सकते है?
[4]इस विषय पर आंग्लभाषा में पूर्व लिखित पुस्तकों के सहारे
[5]गांधी नेहरू काल के भारत में जहां ब्रह्म तथा क्षात्र दोनों का अभाव रहा है, बौद्धिक चिंतन का प्रतिनिधित्व दुर्भावना से भरे साम्यवादियों द्वारा किया गया था और उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों की पूर्वाग्रहों से युक्त शोधों को जो तथ्यात्मक नहीं थी, उन्हें बिना अवरोध प्रोत्साहित करने का ही कार्य किया है |
[6]ब्राह्मण-विरोधी भावनाएं, वर्ण तथा जातियों के बीच सामाजिक विभाजन, आर्य-द्रविड़ विभाजन आदि सभी दुर्भावनापूर्ण झूठ और गलत जानकारियां युरोपियन विद्वानों का भेट है |