स्कंदगुप्त का सामर्थ्य
कुमारगुप्त के पश्चात उसके पुत्र स्कंदगुप्त ने हूणों से युद्ध कर उन्हे हराया। के.एम.मुंशी के अनुसार चौथी शताब्दी के मध्यकाल में मानव इतिहास में पहली बार एक अनदेखा महा विनाशक हिंसा का ज्वालामुखी फूट पड़ा था। कंगालों से और क्या अपेक्षा की जा सकती है[1]? हूण लोग जंहा भी गये उन्होने दमनात्मक हिंसा का ताण्ड़व करते हुए सभ्य समाज के लोगों को भयभीत कर दिया। उन्होने विश्व की सभी सभ्यताओं के विरुद्ध विनाशकारी युद्ध किया। हर अवसर पर उन्होने हत्या, आगजनी, विनाश तथा दुर्भावना युक्त कार्यों का प्रदर्शन किया और अपनी परपीड़क वृत्ति को दर्शाया।
यूरोप में शक्ति शाली रोमन साम्राज्य का पतन हूण सरदार अट्टिला के कारण हुआ। यंहा तक कि रोमन साम्राज्य की पूर्व राजधानी कान्स्टानटिनोपॉल भी हूणों के आक्रमणों से थर्रा डठी। एक क्षण के लिए इस स्थिति पर विचार कीजिए – जिस रोमन साम्राज्य का पूरे यूरोप में चुनौती विहीन अत्यंत शक्तिशाली वर्चस्व था उसे हूणों ने अपने आक्रमण द्वारा अन्ततः समाप्त ही कर दिया। यह उस समय की घटना है जब न तो अमेरीका, आस्ट्रेलिया और न अन्टार्कटिका के नाम को भी कोई जानता था। उस समय मात्र तीन महाद्वीपों को लोग जानते थे – अफ्रिका, एशिया और यूरोप।
स्कंदगुप्त, हूणों को नष्ट करने में सफल हुआ और उसने यह सुनिश्चित किया कि हूण लोग पुनः भारत में प्रवेश न कर सके। भारत पर हूणों ने लगभग 455 ईसवी सन में आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया था। जो समस्या चन्द्रगुप्त या कुमारगुप्त के समय नहीं थी उसने अपना कुरुप चेहरा दिखाना प्रारम्भ कर दिया था। पांचवी शताब्दी में मध्यकाल में स्कंदगुप्त ने असाधारण साहस के साथ हूणों का सामना किया तथा बाद में हूण लोग यदि भारत में पुनः नही आये तो इसका सम्पूर्ण श्रेय स्कंदगुप्त के शौर्य को जाता है। इससे जो शांति तथा सुव्यवस्था स्थापित हुई उससे कान्यकुब्ज (कन्नौज) साम्राज्य का उदय हुआ। जूनागढ़ में प्रसिद्ध गिरनार शिलालेख पर उत्कीर्ण स्कंदगुप्त का हूणों को हरा कर विजय प्राप्त करने की गाथा हम आज भी देख सकते हैं। स्कंदगुप्त ने शपथ ली थी कि “जबतक मै हूणों को हराकर उन्हे मेरे देश से निष्काषित नही कर दुंगा तब तक मै न तो शैय्या पर सोऊंगा और न थाली मे भोजन करूंगा, मै जमीन पर सोऊंगा तथा पत्तल में भोजन करूंगा[2]”
अत्यधिक प्रयासो से स्कंदगुप्त ने हूणों के साथ संघर्ष करते हुए उन्हे समाप्त किया। यद्यपि रोमन तथा तुर्क लोग भी कम हिंसक नही थे तथापि वे भी हूणों के समक्ष टिक नहीं पाये। वस्तुतः हूण तथा मंगोल लोग इतने निर्दयी तथा संवेदना विहीन थे कि वे पूरे इस्लाम को ही नष्ट करना चाहते थे, अरब लोगों का अस्तित्त्व ही खतरे में आ गया था किंतु घटनाओं के आश्चर्यजनक परिवर्तन के कारण अरब लोग उन्हे अपने इस्लाम पंथ में लाने में सफल हो गये और इस प्रकार विजयी बने रहे। सारांश में यह कहा जा सकता है कि जो मुस्लिम स्वयं हिंसा में विश्वास रखते थे उन्हे भी मंगोलों की क्रूरता और हिंसा के समक्ष कांपना पडा था।
स्कंदगुप्त ने ऐसे लोगों का पीछा कर उन्हे अपने देश की सीमा से बाहर किया। बाद में जब मुस्लिमों ने भारत पर आक्रमण किया तो पृथ्वीराज चौहान और जयचंद्र ने इस शौर्य गाथा को भुला दिया और फिर इसकी भारी कीमत चुकाई। गुप्तकाल की राजनीति धर्म को केन्द्र में रख कर चलती थी न कि किसी के मत, पंथ अथवा संप्रदाय पर आधारित थी। उनके शौर्य की महिमा उनके वैदिक विचारधारा पर निर्भर रहने तथा सभी विभिन्न वैचारिक दर्शनों का आदर करने में थी न कि परस्पर लड़नें में। चाहे शैव हो या वैष्णव, चाहे जैन हो या बौद्ध सभी में सहिष्णुता पूर्ण समन्वय के कारण ही गुप्त शासक सदैव विजेता बने रहे।
दक्षिण भारत में क्षात्र
भारतीय क्षात्र परम्परा की महागाथा प्रत्येक कदम पर कभी चढ़ती तो कभी उतरती, कभी आगे बढ़ती तो कभी पीछे हटती रही है। मेरा प्रयास रहा है कि इसके सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों को अनौपचारिक किंतु सार संक्षेप में स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया जा सके। परिणाम स्वरुप हमने अनेक राजाओं की वंश परम्परा का परिचय प्राप्त किया जिसमें प्रमुख रुप से इतिहास को उन महत्त्वपूर्ण घटनाओं को प्राथमिकता दी गई है जंहा क्षात्र परम्परा का निर्वहन किया गया है। किंतु बहुत कुछ वर्णन करने को रह गया है भूतकाल से संबंधित तथा भविष्य की दृष्टि से भी। उदाहरणार्थ क्षात्र परम्परा का परिचय हमने उत्तर भारत के मगध साम्राज्य के साथ किया था, तत्पश्चात हमने शुंगों का कुछ विवरण दिया किंतु दक्षिण भारत में क्षात्र के इतिहास को नहीं दिया जा सका। तमिल देश में तीन इन्द्रों का मूवेन्दिरर् अर्थात् तीन राजवंशों का संदर्भ इतिहास में आता है – पाण्ड्या, चोल तथा चेर । यद्यपि इतिहास में उनके संंबंध में बहुत सारी जानकारियां उपलब्ध है तथापि अब तक इस संबंध में कुछ भी विवरण नहीं दिया जा सका है । यह तीनों वंश परम्पराऍ वैदिक संस्कृति को दृढ़ता से माननेवाली तथा सनातन धर्म की प्रखर धारक रही है। उनकी प्राचीनता इतिहास में सुविख्यात है। पाण्ड्याओं का संदर्भ तो महाभारत में भी आता है। हमारे अनुमान से इन मुवन्दिररों का काल खण्ड लगभग ढाईहजार वर्ष पूर्व से हमारी संस्कृति को पोषित करता आ रहा है। हम निसन्देह रुप से कह सकते है कि इनके साम्राज्यों का स्थायित्त्व कम से कम मौर्यकाल तक स्थापित हो चुका था। द्रविड देश अर्थात् तमिल नाडु में वेदिक परम्पराऍ तथा क्षात्र प्रखरता ने लोगों के मन मस्तिष्क को प्रभावित किया था इसके हजारों उदाहरण ‘संगम’ साहित्य में उपलब्ध हैं। प्रचलित काल गणना में कर्नाटक क्षेत्र में अनेक साम्राज्यों का शासन रहा है – वे बाण थे, कालभद्र थे, कदम्ब थे या राष्ट्रकूट थे। कर्नाटक में घाट क्षेत्र के कूट तथा अलूप तथा उत्तरीघाट में नोलम्ब लोगों का वर्चस्व भी पाते हैं। आंध्र के भी साम्राज्य समान रुप से प्रसिद्ध हैं। इनमें से कुछ विष्णु कुण्डिन, आंध्रभृत्य तथा रेड्डी लोग है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]भ्रष्टस्य कान्या गतिः |
[2]कुछ इतिहासकारों के मत में यह मात्र के काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। किंतु मेरे मत में इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं है। राणा प्रताप ने भी चितोडगढ हारने के बाद ऐसी ही प्रतिज्ञा की थी कि जब तक वे चितोड गढ वापस नही ले लेंगे तब तक वे जमीन पर सोयेंगे तथा पत्तल पर भोजन करेंगे।
श्रीराम ने भी समुद्र को पराजीत करने के लिए आमरण उपवास तथा भूशयन का व्रत तीन दिनों तक धारण किया था।
हमारे अपने समय में देशहित में तात्कालिन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने भी सप्ताह में एक समय निराहार रहने का व्रत लेकर पूरे देश के लाखों लोगों को सोमवार का व्रत करवाया था और उस दिन संध्या को अनेक भोजनालय तक बन्द रहते थे। जब तक भारत आहार के विषय मे आत्मनिर्भर न हुआ तब तक अनेक लोग इस व्रत का पालन कर रहे थे | वाजपेयी के समय मे हम आहार के विषय मे आत्मनिर्भर हुआ | मे ने पत्रिकाओ मे पडा था कि उस समय मे लोग उपवास व्रत को त्याग दिया |