गुप्तकाल का वास्तुशिल्प तथा मूर्तिकला
वास्तु शिल्प तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में गुप्तकाल में असाधारण कार्य हुआ था। आज भी गुप्तकालीन उपहार के रुप में अनेक गुफा मंदिर पाये जाते है [1]।
हमारी परम्परा में ‘शील’ – एक व्यक्ति विशेष के चरित्र का द्योतक है, ‘शील’ से ही ‘शैली’ का उद्भव हुआ है। गुप्तकाल में स्थापित सुन्दरता तथा सौन्दर्यपरक मानदण्ड़ों की संवेदनशीलता हमें आज भी प्रभावित करती आ रही है। इसके सौन्दर्य में कुछ भी कमतर संशोधन के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके सौन्दर्य में असाधारण आन्तरिक शक्ति समाई है। गुप्तकाल शास्त्रीयता का पर्याय है। इसे हम गुप्तकाल के हर क्षेत्र में देख सकते हैं चाहे वह साहित्य हो, नृत्य हो, चित्रकला हो, मूर्तिकला या शिल्पकला हो अथवा विज्ञान हो[2]।
हमारे पुराणों में वर्णित देवताओं को भौतिक मूर्ति रुप भले ही गुप्तकाल से पहले का रहा हो तथापि उन्होने इसको परिष्कृत करने में जिन वैचारिक कुशलता का उपयोग किया था वह आज तक अपखिर्तनीय है। इसका साक्षात भव्य उदाहरण उत्तरप्रदेश में बेतवा नदी के तट पर बना देवगढ़ का ‘दशावतार देवालय’ है। यंहा महाविष्णु आदिशेष पर सोये है और महालक्ष्मी उनकी चरणसेवा कर रही है, विष्णु की नाभि से निकले कमल पर ब्रह्म जी विराजमान है तथा इन्द्र, रुद्र, स्कंद तथा अन्य देवतागण अपने अपने विमानों से आकर भगवान विष्णु का दर्शन प्राप्त कर रहे हैं। यह सभी विवरण इन मूर्तिकला में प्रथम बार व्यक्त किये गये। स्कंद का वाहन मोर है, शिव का वाहन नंदी है, पार्वती सिंह पर सवार है। आदिशेष नाग के फनों की संख्या, ब्रह्म का विष्णु की नाभि से आये कमलनाल पर आसीन होने का तरीका आदि विस्तृत रुप से इस मूर्ति की कला में हम देख पाते है।
यह मूर्तिकला रवि वर्मा की चित्रकला की मूल प्रेरणा स्त्रोत रही है। अबनिन्द्रनाथ टेगोर के आरेखन, चन्दामामा तथा अमरचित्रकथा नामक पत्रिकाओं के चित्रांकन आदि का भी आदि स्त्रोत और प्रेरणा यही मूर्त शिल्प है। यह स्पष्ट है कि कला का यह प्रवाह सतत रुप से 1600-1700 वर्षों से बहता आ रहा है।
इस मूर्तिकला ने बुद्ध को भी गांधार कला शैली से भिन्न रुप में दर्शाया है। गुप्तकाल में गांधार शैली के कुछ मूल्यवान तत्वों का समावेश करते हुए उसे आदर्श कलात्मकता के साथ शुद्ध भारतीय मूल्यों के साथ प्रस्तुत करने का कार्य हुआ था। यह हर दृष्टि से एक अद्वितीय योगदान है। उस काल में शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध आदि मतपंथों के कभी न सुलइने वाले मतभेद नही थे।
गुप्तकाल के उदारवादी चरित्र का श्रेष्ठतम उदाहरण युनेस्को वैश्विक धरोहर स्थल ‘बादामी’ है जंहा एक साथ शिव गुफा, विष्णु गुफा, जैन गुफा स्थित है। यह बादामी चालुक्यों का जीवन दर्शन था जो पॉचवीं से आठवीं शताब्दी तक फलता फूलता रहा क्योंकि यह गुप्त काल से प्रेरणा तथा ज्ञान प्राप्त करता रहा था। इसी प्रकार से एलोरा की लगभग चालीस गुफाओं में भी हम बौद्ध, जैन, शैव तथा वैष्णवों से संबंधित गुफाऍ देखते है। वे सभी समान रुप से सम्मानित रही। तथापि सूक्ष्म निरीक्षण पर यह स्पष्ट हो जाता है कि शिव – विष्णु की गुफा का सौन्दर्य तथा वैभव अत्यधिक प्रभावशील है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि जैन तथा बौद्ध कथानक में विविधताओं की संभावना तुलनात्मक रुप से कम है। निर्वाण-दीक्षा में बैटे जैन मुनि अथवा हीनयान पन्थ के निराकार स्वरुप को प्रदर्शित करने में किस प्रकार के दृश्यवैभव की कल्पना की जा सकती है ? तथा महायान पंथ में बोधिसत्व की उर्ध्व चेतना को दर्शानेवाली गुफा में एक रसता ते अवश्यम्भावी है। वास्तव में कला तथा सौन्दर्य भिन्नता के लिए उन्हे भी उत्कीर्णन हेतु अन्य साधनों का सहारा लेना पडा। कुछ स्थानों पर उन्होने यक्षों, गन्धर्वों, अप्सराओं, सिद्धों तथा जातक कथाओं से गुफा में उत्कीर्णन किया है। इससे करुण रस तो अवश्य जागता है किंतु कितने समय तक कोई इसका आनन्द ले सकता है ? अन्ततः प्रत्येक को शृङ्गार रस में आवश्यक रुप से लौटना होता है। इन सच्चाइयों की आवश्यकताओं को समझते हुए सनातन धर्म ने सभी को स्वीकार किया है [3]।
कुमारगुप्त
कुछ तथा कथित ‘प्रख्यात’ इतिहास कारों ने गुप्त वंश को कलंकित करने के ध्येय से यह अनुचित दावा किया है – “कुमारगुप्त में शासन करने की कोई योग्यता नही थी, उसने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया था” किंतु कुमारगुप्त द्वारा चलाये गये सिक्के उसकी प्रशासकीय क्षमता और योग्यता के स्पष्ट प्रमाण है।
इसकी तुलना में मुहम्मद बिन तुगलक का उदाहरण है जिसने चमड़े के सिक्के चलाये थे और इसी से उसके शासनकाल की आर्थिक स्थिति का पता चल जाता है विशेष कर उसके साम्राज्य पर मंगोलों के आक्रमण के उपरांत [4]!
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]मेरे वैयक्तिक मत में एलोरा मंदिर भारत का महान आश्चर्य है। यद्यपि इनका निर्माण राष्ट्रकूटों के शासन काल में हुआ था तथापि इसकी आवश्यक तकनीक, कौशल, कलात्मक कल्पना गुप्तकाल की विरासत है। इसी प्रकार अजन्ता, कर्ल, एलिफेन्टा और अन्य स्थानों पर भी हम भारतीय मूर्तिकला और शिल्प का मौलिक स्वरुप देख सकते है जिसका बीजारोपन गुप्तकाल में हुआ था।
[2]किंतु संभवतः ऐसा संगीत के क्षेत्र में नही था ऐसा उपलब्ध जानकारियों के आधार पर कहा जा सकता है।
[3]सनातन धर्म की यह स्वीकृति उसके सभी पक्षों में देखी जा सकती है। मै निरंतर रुप से यह कहता आ रहा हूं कि ब्रह्म का क्रिया क्षेत्र आदर्श दुरदृष्टि युक्त यथार्थ है। किंतु सांसारिक यथार्थ वैश्य का क्रिया क्षेत्र है। क्षात्र का कार्य आदर्श और व्यावहारिक यथार्थ को समन्वित करना है। सामान्य मनुष्य एक वैश्य है। वह क्या चाहता है ? जो कुछ भी हमारे पास है उसमें हंसी खुशी रहना, अच्छा खाना, अच्छा पहनना-बडे उच्च आदर्श उसकी समझ के बाहर है फिर भी वह आदर्श जीवन जीने वाले महापुरुषों के समक्ष – नतमस्तक होता है – उन्हे अपने प्राप्त संसाधनों की सीमा में मदद भी करता है और यही उसके जीवन का विशिष्ट मंत्र है।
ब्रह्म के क्षेत्र में निर्धारित उच्च आदर्शों की प्राप्ति हेतु निरंतर प्रयासों तथा आंतरिक संघर्षों के दौर से सामना होता है। मानव निर्मित समाज में इसे इसकी स्वाभाविक स्थिति में रख पाना दुष्कर है। यद्यपि यह स्वतंत्रता की स्थिति को प्राप्त करना चाहता है किंतु सामाजिक परिवेश उसे यह सुविधा प्रदान नही करता । बिना उचित व्यवस्था के एक अति उत्साही साधक भी अपने अस्तित्त्व को बना कर नहीं रख सकता। हम आसानी से कह देते हैं कि हम अपने आप से जी लेंगे किंतु इसके लिए भी अनेक प्रकार की व्यवस्थाओं को क्रियाशील होना पड़ता है। यदि कोई मात्र एक कप कॉफी पर जीवन यापन कर सकता है तो भी उसके कॉफी के बीज, उन्हे पीसने की मशीन, दूध, शक्कर, चूल्हा, बर्तन तथा पूरी प्रक्रिया संपन्न करपाने की व्यवस्था की आवश्यकत होती है। अतः विवेक पूर्ण तर्क संगत आदर्शवाद यह है कि हम अव्यावहारिक आदर्श तथा कटु यथार्थ के मध्य समन्वय तथा संतुलन की स्थिति बनाये रखें। क्षात्र ही यह विवेक पूर्ण तर्क संगत आदर्शवाद है। जिस क्षण हम इस सत्य की उपेक्षा करते है हम नष्ट हो जाते हैं। कोई भी देश या संस्कृति लम्बे समय तक इस सिद्धांत की उपेक्षा कर जीवित नही रह सकता है। पाश्चात्य विश्व चतुराई तथा धूर्तता से भरा है जंहा आदर्शवाद का कोई स्थान नहीं है । इस चतुराई की एक स्थिति पूंजीवाद है तथा दूसरी स्थिति हिंसक साम्यवादी चेहरा है। ऐसे में सनातन धर्म ही एक मात्र विकल्प है जिसमें ब्रह्म के प्रकाश में क्षात्र भाव के पथ का अनुगमन किया जाता है। हमारे पूर्वजों ने सूत्र दिया था ‘राजा प्रत्यक्ष-देवता’ – राजा ही प्रत्यक्ष देव है। किंतु आधुनिक कथित बुद्धि जीवियों तथा तर्क वादियों ने इसकी यह कह कर आलोचना की है कि ‘आप राजा को देवता कह कर धोखा दे रहे है तथा षड्यंत्र कर रहे हैं’ इस प्रकार का भ्रामक विवेचन पूर्ण तथा पथभ्रष्ट करने वाला है। हमने उस शासक को जो अपनी प्रजा को शांति, सुरक्षा, व्यवस्था, सुख साधन देते हुए आदर्श प्रशासन का संचालन करता है – उसे देवत्त्व प्रदान किया है – तो इसमें क्या भूल की है?
[4]कन्नड भाषी प्रसिद्ध नाटककार गिरीश कर्नाड़ ने इस मूर्ख तथा हिंसक सुल्तान पर एक भव्य नाटक की रचना करते हुए उसे एक आदर्श तथा अलौकिकता का प्रतीक बतलाया है। नाट्य कला की दृष्टि से यह एक अच्छा नाटक हो सकता है तथापि इसका कथानक अपने आप में पूर्वग्रहों से ग्रस्त तथा दागदार है। अतः इसका परिणाम क्या होगा ? बारहवीं शताब्दी के कन्नड कवि नागचंद्र ने कहा है – “यदि कवि अपनी रचना में एक साधारण व्यक्ति को मुख्यपात्र अर्थात नायक के रुप में महिमा मंडित करता है तो वह काव्य अथवा नाटक महत्ता प्राप्त नही कर सकता है किंतु वहीं दूसरी ओर श्रीराम जैसे महान उदारमना महापुरुष जैसा व्यक्ति यदि उसकी रचना का नायक है तो उसकी रचना को ख्याति तथा प्रशंसा मिलती है। सोने का हास गले की शोभा है किंतु लोहे की जंजीर ? मात्र कला कौशल ही पर्याप्त नही है, कथानक भी समान रुप से महत्त्व पूर्ण है ” (रामचन्द्र चरित पुराण 1.37)