भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 42

This article is part 42 of 56 in the series Kshatra Parampare in Hindi

यदि नवीन तथा नवीनतम शस्त्रों को विकसित किया जाता रहा जिससे सततरुप से शस्त्र भण्डार बढ़ता रहे तो लम्बे समय तक शांति-स्थापना की संभावना कहॉ रह जाती है ? सभी लोगों की आकांक्षा है कि पूरे विश्व में सब लोग उत्तम आचरण के साथ शांति पूर्ण जीवन व्यतीत करें किंतु क्या यह मात्र दिवास्वप्न नहीं है ? मात्र मौखिक रुप से शांति की घोषणाओं के दोहराने से तो सर्वव्यापी सर्वनाश को रोका नहीं जा सकता है। इससे तो विश्वनाश के उपरांत ही सब कुछ ठीक हो सकेगा !! जब सभी कुछ नष्ट हो जावेगा तब ही पूरा विश्व समान रुप से पूर्णतः समता प्राप्त कर सकेगा[1]!!

राग और द्वेष की मूल वृतियों से हर मनुष्य ग्रसित है। यह लगभग असम्भव सा है कि एक आमजन इससे पूर्णतः मुक्त हो सके। किंतु प्रत्येक को सतत रुप से इसे नियंत्रित करना आवश्यक है । यह ऐसा ही जैसे हमारे घर की बगिया में अवांछित घास ऊग आती है जिसे हमें निरंतर हटाते रहना पड़ता है। यदि कोई इस घास से हमेशा के लिए मुक्ति चाहता है तो उसे वंहा सीमेंटक्रांक्रिट की तह बिछा कर उसे पक्का करना होगा किंतु तब वंहा एक भी पौधा पनप नहीं सकता है और न एक बूंद पानी जमीन में जा सकता है। यह विच्छेदक स्थिति है। यदि हम ऐसा नही चाहते है तो संतुलित अवस्था के लिए हमे सदैव तत्परता से लड़ते रहना होगा, और जब हम लड़ें तो जीत के लिए ही लड़े और विजय के लिए एक निर्णायक योजना आवश्यक है। यदि कोई पूछता है कि हमें जीतना क्यों आवश्यक है ? तो हमें अपने सुखी जीवन के लिए यह आवश्यक है, मुझे मेरे स्वत्व की पहचान तथा मेरी तथा मेरे लोगों के खुशहाल जीवन के लिए लड़ते रहना होगा क्योंकि तब ही धर्म की स्थापना संभव हो सकती है।

विज्ञान और प्रौद्यौगिकी का विकास

खगोल विज्ञान तथा गणित की आकाश गंगा की लगभग सभी प्रतिभाऍ गुप्तकाल से ही संबंधित रही है जैसे कि ब्रह्मगुप्त, वराहमिहिर, आर्यभट एवं भास्कराचार्य प्रथम। खगोल विज्ञान की प्रगति के परिणाम स्वरुप सामुद्रिक व्यापार एवं व्यवसाय फलता फूलता रहा। वर्षा तथा खेती संबंधी पूर्वानुमान अधिक शुद्धता से किये जाते रहे। उस समय तक समुद्र यात्रा के दिशा सूचकों का आविष्कार नहीं हुआ था। संभवतः यह चीनियों की खोज रही है[2]। पूर्व काल में जब लोग रात्री में यात्रा करते थे तो वे तारों की स्थिति देख कर दिशा निर्धारण करते थे[3]

गुप्तकाल के अंत समय तक (विशुद्ध रुप से प्रतिहारों तथा राष्ट्रकूटों के समय के अंत तक ) भारत में विज्ञान तथा प्रौद्यौगिकी का विकास ठीक तरह से होता रहा। मिरिरावली (आज का महरौली) का लोह स्तंभ जो कुतुब मीनार के निकट नई दिल्ली में स्थित है वह गुप्तकाल में धातु विज्ञान की बुलन्दियों को दर्शानेवाला श्रेष्ठ साक्ष्य है । उस पर ब्राह्मी लिपि में एक अभिलेख उत्कीर्ण है, उसका देवनागरी में रुपांतरित अभिलेख स्तंभ के पास रखा हुआ है। उसमें दो प्यारे श्लोक है जो राजा चन्द्र से संबंधित है[4]। इतिहासकार इस चन्द्र को चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के रुप में स्वीकार करते है। यह लोह स्तंभ कितने वर्षों पूर्व निर्मित किया गया था फिर भी आजतक उस पर जंग नही लगा है – इसी से गुप्तकाल की वैज्ञानिक प्रगति का सुस्पष्ट चित्रण प्राप्त हो जाता है। यही तथ्य आयुर्वेद के संबंध में भी है। वाग्भट का संबंध भी गुप्तकाल से लगभग जुडा हुआ ही है। उसने चरक तथा शुश्रुत के समस्त ज्ञान को आत्मसात कर उसे एक ग्रंथरुप में प्रस्तुत किया था[5] । इस प्रकार गुप्त लोगों ने विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञता के उच्च मानकों को प्राप्त कर लिया था।

गुप्तकाल के सिक्कों का संसार

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के सिक्के प्रसिद्धि के आख्यानों का कथानक है। कुछ सिक्कों में अभिज्ञान-शाकुन्तलम्  जैसे नाटकों का चित्रण दर्शाया गया है। कुछ सिक्कों में चन्द्रगुप्त के पिता को बाग का शिकार करते हुए दिखाया गया है। अन्य सिक्कों में विष्णु, लक्ष्मी तथा गंगा-यमुना का प्रदर्शन है। गुप्त शासकों ने इन सिक्कों के कलात्मक कौशल तथा इसकी निर्माण प्रक्रिया के कारण अत्यधिक प्रसिद्धि तथा प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। इन सिक्कों का व्यापक स्तर पर प्रचलन था क्योंकि उस समय अपार समृद्धि थी।

सिक्कों के परीक्षण से क्या जानकारियॉ प्राप्त की जा सकती है इसका एक साधारण उदाहरण ही पर्याप्त है। यदि हम गुप्तकाल के स्वर्ण निर्मित सिक्कों को ही ले तो प्रथम प्रश्न यही उठता है कि स्वर्ण का शोधन किस विधि से किया जाता होगा ? सोना अयस्क के रुप में प्राप्त नही होता है। सोने को ‘राज लोह’ अर्थात् राजसीधातु भी कहा जाता है। यह पत्थरों तथा चट्टानों में सूक्ष्मकणों के रुप में उपलब्ध हो पाता है। चट्टानों का पीस कर उसके चूर्ण से सोने का अलग करने की प्रक्रिया बडी जटिल है तथा उपलब्ध सोने की मात्रा अत्यंत कम होती है। इस परिप्रेक्ष्य में इस कार्य को सतत रुप से करते रहने के लिए किस प्रकार की खनन प्रक्रिया गुप्तकाल में उपलब्ध रही होगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है। शुद्ध सोना कैसे प्राप्त किया गया होगा ? किस प्रकार के आकार – प्रकार तथा छवियों से युक्त सांचों का उपयोग सिक्कों के निर्माणार्थ किया गया होगा ? इन सांचों को किस विधि से बडेस्तर पर ढाला गया होगा? सिक्के ढालने की इकाई किस तरह कार्य करती थी ? सिक्कों का वितरण किस प्रकार के नियमों के अन्तर्गत होता रहा ? नकली सिक्कों की रोक धाम कैसे की गई होगी ? यह हम पर निर्भर करता है कि हम इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त कर सकें !!

To be continued...

The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.

Footnotes

[1]हमारे प्राचीनजन तीन गुण अर्थात् सत्त्व रजस और तमस से जगत की रचना का संभावना मानते थे तथा गुणों मे असन्तुलन सृष्टि का कारण मानते थे | संतुलन का प्रबन्ध हो तो स्थिति और यदि तिनो गुण एक समान हो गया तो लय |

[2]जब मार्को पोलो ने बारहवीं अथवा तेर हवी शताब्दी में चीन की यात्रा की थी तब सर्वप्रथम उसने सामुद्रिक दिशा सूचक देखा था

[3]इसका एक पक्ष मुझे बहुत आश्चर्य चकित करता है तथा परेशान भी करता है। प्राचीन भारत में खगोलशास्त्र तथा गणित की श्रेष्ठतम उपलब्धियों के पश्चात भी वे अपने ज्ञान का उपयोग गाडी या रथ के पहियों की संरचना में, लीवर अथवा पुलि बनाने में भी नही कर पाये।केलकुलस का ज्ञान हमारे यंहा न्यूटन से बहुत पहले हो चुका था। युक्लिड़ ज्यामिति के भौतिक स्तरीय उपयोग काप्रदर्शन भी हम नही कर सके जबकि पश्चिमी देशों में यह ज्ञान हमने ही पहुंचाया। गणित का ज्ञान हमारे यंहा बोधायन के समय से ही रहा है फिर भी हम प्रौद्यौगिकी के विकास में क्यों पिछड़ गये ? क्यों हमारा विज्ञान अंतरिक्षीय प्रौद्यौगिकी विकसित नही कर सका ? क्यों वह केवल आकाश की स्थिति तक सीमित रह गया ? मेरे अनुमान में हमारा सारा खगोल शास्त्र का ज्ञान अमावस्या, पूर्णिमा, श्राद्ध और तर्पण की तिथियों के निर्धारण में ही बंध कर रह गया।पाश्चात्य लोगों ने हमसे ज्ञान प्राप्त कर भौतिकी तथा प्रौद्यौगिकी के क्षेत्र में स्वयं के बल बूते पर अद्वितीय प्रगति कर ली। आज भी हम इन क्षेत्रों में उन पर आश्रित हैं। यह एक अति विशाल स्तर की विडम्बना है। मुझे नीलकांत दीक्षित की पंक्तियॉ याद आती है –
आकौमारद्गुरुचरणशुश्रूषया ब्रह्मविद्या-
स्वास्थायास्थामहह महतीमार्जितं कौशलां यत् |
निद्राहेतोर्निशि निशि कथां शृण्वतां पार्थिवानां
कालक्षेपौ पयिकमिदमप्याः कथं पर्यणंसीत् || (शांति विलास V 8)
“मै एक अत्यंत गौरव शाली वंश में पैदा हुआ, मैने समस्त वैदिक ज्ञान को आत्मसात किया, किंतु आज मेरा सारा पांडित्य की अंतिम परिणिति प्रत्येक रात्री में राजा को कहानियॉ सुनाने में हो रही है जिसे नींद नही आती है।”

[4]प्राप्तेन स्वभुजार्जितं च सुचिरं चैकाधिराज्यं क्षितौ
चन्द्राह्वेनसमग्र-चन्द्र-सदृशीं वक्त्र-श्रियं बिभ्रतात् |
एनायं प्रणिधाय भूमिपतिनाभावेन विष्णौ मतिं
प्रांशुर्-विष्णु-पदे गिरौ भगवतो विष्णोर्-ध्वजःस्थापितः|| (भारत के प्रसिद्ध अभिलेख पृष्ठ 121-22)

[5]यद्यपि इस बात के प्रमाण है कि तब तक ‘लघुत्रयी संग्रह’ आ चुका था

Author(s)

About:

Dr. Ganesh is a 'shatavadhani' and one of India’s foremost Sanskrit poets and scholars. He writes and lectures extensively on various subjects pertaining to India and Indian cultural heritage. He is a master of the ancient art of avadhana and is credited with reviving the art in Kannada. He is a recipient of the Badarayana-Vyasa Puraskar from the President of India for his contribution to the Sanskrit language.

Translator(s)

About:

Prof. Dharmaraj Singh Vaghela served as the Head of the Department of Physics at the Government Arts and Science College, Ratlam of the MP Govt. Higher Education Department, until his retirement in 2004. He has published a number of papers in Plasma Physics in international journals. His papers have also appeared in the research journal of the Hindi Science Academy. Among other books, he has translated Fritjof Capra's best-selling work "The Tao of Physics" into Hindi. He has written a monograph in Hindi which explains the philosophical aspects of modern physics.

Prekshaa Publications

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This anthology is a revised edition of the author's 1978 classic. This series of essays, containing his original research in various fields, throws light on the socio-cultural landscape of Tamil Nadu spanning several centuries. These compelling episodes will appeal to scholars and laymen alike.
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इदं खण्डकाव्यमान्तं मालिनीछन्दसोपनिबद्धं विलसति। मेनकाविश्वामित्रयोः समागमः, तत्फलतया शकुन्तलाया जननम्, मातापितृभ्यां त्यक्तस्य शिशोः कण्वमहर्षिणा परिपालनं चेति काव्यस्यास्येतिवृत्तसङ्क्षेपः।

Vaiphalyaphalam

इदं खण्डकाव्यमान्तं मालिनीछन्दसोपनिबद्धं विलसति। मेनकाविश्वामित्रयोः समागमः, तत्फलतया शकुन्तलाया जननम्, मातापितृभ्यां त्यक्तस्य शिशोः कण्वमहर्षिणा परिपालनं चेति काव्यस्यास्येतिवृत्तसङ्क्षेपः।

Nipunapraghunakam

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Bharavatarastavah

अस्मिन् स्तोत्रकाव्ये भगवन्तं शिवं कविरभिष्टौति। वसन्ततिलकयोपनिबद्धस्य काव्यस्यास्य कविकृतम् उल्लाघनाभिधं व्याख्यानं च वर्तते।

Karnataka’s celebrated polymath, D V Gundappa brings together in the third volume, some character sketches of great literary savants responsible for Kannada renaissance during the first half of the twentieth century. These remarkable...

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Karnataka’s celebrated polymath, D V Gundappa brings together in the first volume, episodes from the lives of great writers, poets, literary aficionados, exemplars of public life, literary scholars, noble-hearted common folk, advocates...

Evolution of Mahabharata and Other Writings on the Epic is the English translation of S R Ramaswamy's 1972 Kannada classic 'Mahabharatada Belavanige' along with seven of his essays on the great epic. It tells the riveting...

Shiva-Rama-Krishna is an English adaptation of Śatāvadhāni Dr. R Ganesh's popular lecture series on the three great...

Bharatilochana

ಮಹಾಮಾಹೇಶ್ವರ ಅಭಿನವಗುಪ್ತ ಜಗತ್ತಿನ ವಿದ್ಯಾವಲಯದಲ್ಲಿ ಮರೆಯಲಾಗದ ಹೆಸರು. ಮುಖ್ಯವಾಗಿ ಶೈವದರ್ಶನ ಮತ್ತು ಸೌಂದರ್ಯಮೀಮಾಂಸೆಗಳ ಪರಮಾಚಾರ್ಯನಾಗಿ  ಸಾವಿರ ವರ್ಷಗಳಿಂದ ಇವನು ಜ್ಞಾನಪ್ರಪಂಚವನ್ನು ಪ್ರಭಾವಿಸುತ್ತಲೇ ಇದ್ದಾನೆ. ಭರತಮುನಿಯ ನಾಟ್ಯಶಾಸ್ತ್ರವನ್ನು ಅರ್ಥಮಾಡಿಕೊಳ್ಳಲು ಇವನೊಬ್ಬನೇ ನಮಗಿರುವ ಆಲಂಬನ. ಇದೇ ರೀತಿ ರಸಧ್ವನಿಸಿದ್ಧಾಂತವನ್ನು...

Vagarthavismayasvadah

“वागर्थविस्मयास्वादः” प्रमुखतया साहित्यशास्त्रतत्त्वानि विमृशति । अत्र सौन्दर्यर्यशास्त्रीयमूलतत्त्वानि यथा रस-ध्वनि-वक्रता-औचित्यादीनि सुनिपुणं परामृष्टानि प्रतिनवे चिकित्सकप्रज्ञाप्रकाशे। तदन्तर एव संस्कृतवाङ्मयस्य सामर्थ्यसमाविष्कारोऽपि विहितः। क्वचिदिव च्छन्दोमीमांसा च...

The Best of Hiriyanna

The Best of Hiriyanna is a collection of forty-eight essays by Prof. M. Hiriyanna that sheds new light on Sanskrit Literature, Indian...

Stories Behind Verses

Stories Behind Verses is a remarkable collection of over a hundred anecdotes, each of which captures a story behind the composition of a Sanskrit verse. Collected over several years from...