यही विशेषता हम वाल्मीकि तथा व्यास में भि देखते है – राम ने जिस तरह वाली को मारा था अथवा सीता का त्याग किया था, उसके बाद भी वे सम्मान के प्रतीक बने,रणभूमी में घटोत्कच के मारे जाने पर कृष्ण का खुशी से ताली बजाकर नाचने पर भी उन्हे पूजनीय मानना आदि ऐसे उदाहरण है जहां हमारे महापुरुषों का व्यवहार सामान्य सर्वमान्य मन्यतों से थोडा विचलित है और जिसे सुखद नही कहा जा सकता है, यह स्पष्ट करता है कि मात्र कुछ अरुचिकर कृत्यों के कारण किसी व्यक्ति को पूर्णतः अयोग्य मानना न केवल मूर्खतापूर्ण है अपितु दुर्भावनपूर्ण भी है |
गुप्तकाल में ऐसे अज्ञानियों तथा वैमनस्यकारी लोगों का अभाव था | एक फूल के पूर्ण विकसित होने की क्षमता इस पर निर्भर है कि डाल के साथ कली का पुष्पकोश कितना मजबूती से जुडा है | किन्तु यही गुण यदि इसी मजबूती से पन्खुरिया के सातः जुडा रहे तो फूल खिल ही नही सकता है | क्षात्र की वास्तविक महत्ता यः अनुभव करने मे है की जीवन की द्वैतपूर्ण स्थितियों जैसे स्वतन्त्रता और नियन्त्रण, पवित्र तथा लौकिक, दृश्य तथा अदृश्य आदि मे हम कितना गतिशील संतुलन रख पाते है |
महाभारत के शान्ति पर्व मे भीष्म कहता है – राजा के लिये अत्यन्त कठोर होना ठीक नही है किन्तु उसके लिये अति कोमल होना भी ठीक नही है उसे वसंत ऋतु के सूर्य के समान होना चाहिए | उसे न तो बादलों से आच्छादित सूर्य होना चाहिए और न ग्रीष्म ऋतु के उग्रतापूर्ण तपते सूर्य होना चाहिए | वस्तुतः इसी प्रकार का संतुलित स्वर्णिम युग गुप्तकाल की देन है |उनके क्षात्र भाव मे आवश्यक पारम्परिक संस्कृति तथा परिष्करण दोनो ही समान रूप से विद्यमान है |
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य इसी वंश का उपहार है | चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने समुद्रगुप्त के सभी गुणों का आत्मसात किया था जो संगीत काव्य आदि के साथ साथ युद्ध कौशल्य में भी अति पारङ्गत था तथा योद्धा तथा सेनापति था | चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शौर्य तथा साहस के संदर्भ मे अनेक गाथाए कही गयी है तथा उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध मे भी अनेक दन्तकथाए है |
विक्रमादित्य : एक आदर्श का जन्मदाता
हमारी शास्त्रीय लोक संस्कृति में विक्रमादित्य एक महान आदर्श है। हमारी लोक कथाओं में शूद्रक विक्रमादित्य, शालिवाहन जैसे राजाओं की देवतुल्य प्रशंसा की गई है। शालिवाहन शातवाहनों के अग्रतम राजा थे |
दक्षिण भारत में शातवाहनों की प्रखरता पल्लवो, चोलों, चेरों, पाण्ड्याओं, कदम्बों और चालुक्यों से भी अधिक रही है। इन शातवाहनों के कारण ही दक्षिण भारत में वेदित संस्कृति सबल हो पाई है। उन्होने गोदावरी तट पर बसे प्रतिष्ठान से शासन चलाया किंतु उनके दो अन्य प्रमुख केन्द्र भी थे – आंध्र में धान्यकटक तथा कर्नाटक में बनवासी।
संदर्भों से ज्ञात होता है कि शालिवाहन ने अपने शौर्य तथा धर्म परायण जीवन का प्रतिनिधित्त्व करते हुए शातवाहन साम्राज्य की स्थापना की थी। वे लोग जन्म से ब्राह्मण थे किंतु कर्म से क्षत्रिय थे। वे उन नायकों में से थे जो अपनी माता के नाम की पहचान से स्वयं को गौरवान्नित मानते थे इस प्रकार वे अपने माता-पिता दोनों के परिवार द्वारा स्वयं का संसार में परिचय देते थे। वे बहुत उदारवादी थे, उन्होने वेदिक धर्म के साथ साथ बौद्ध मार्ग को भी अपने जीवन में स्थान दिया था।
सनातन धर्म की ऐसी अनेक वंश परम्पराओं ने ऐसी उदारता तथा सहिष्णुता का प्रदर्शन किया है।
शातवाहन साम्राज्य के प्रमुख राजाओं में एक गौतमीपुत्र शतकर्णी था जो महान योद्धा था तथा जिसने अन्य यज्ञों के साथ अश्वमेध यज्ञ करते हुए क्षात्र धर्म का निर्वहन किया था। उसने शको, यवनों तथा पल्लवाओं के आक्रमणों का सामना करते हुए उन्हे हराया। उसके शौर्य तथा साम्राज्य विस्तार की कल्पना इस तथ्य से ही की जा सकती है कि उसे ‘त्री-समुद्र-तोय-पीत-वाहन’ की उपाधि अर्थात् ‘तीनों समुद्रों के जल को पीने वाला’ से सम्मानित किया गया था जो स्पष्ट करता है कि उसका साम्राज्य चारों दिशा में समुद्र की सीमातक फैला था।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उज्जयनी को अपनी राजधानी बनाया था जो शिप्रा नदी के तट पर स्थित है। विक्रमादित्य से संबंधित सभी कथाऍ जैसे विक्रम-वेताल आदि उसी के व्यक्तित्त्व को लेकर है। कुछ लोगों का मानना है कि विक्रमादित्य मालवा में ईसासे एक सदी पूर्व रहे थे किंतु इसके कोई ढोस ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नही है। विक्रम संवत वस्ततः विक्रमादित्य द्वारा प्रारम्भ नहीं किया गया था किंतु यह उसकी याद में मालवा गणतंत्र ने अपनी महानविजय के उपलक्ष्य में नये कालदर्शक (पंचांग) के प्रारम्भ की घोषणा रुप में किया था।
प्रतीत होता है कि चन्द्रगुप्त पहला विक्रमादित्य था, वर्षों बाद ‘विक्रमादित्य’ महानता का प्रतीक बन गया जिससे अनेक प्रसिद्ध राजाओं को सम्मानित किया गया था। कल्याण चालुक्यों में छः विक्रमादित्य हुए। आदित्य शब्द का उपयोग अनेक तरह से हुआ जैसे बलादित्य, शिलादित्य, तरुणादित्य आदि आदि जो इतिहास में उपलब्ध है।
इस बात के प्रमाण है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य स्वयं एक नैसर्गिक गुणवत्ता प्राप्त कवि था। अलंकार शास्त्र के महान मर्मज्ञ राजशेखर ने अपने ग्रंथ में लिखा है कि ‘उज्जयनी में कालिदास, भर्तृमेण्ठ ,चन्द्रगुप्त तथा अन्य का उनकी काव्य निपुणता हेतु परीक्षण किया जाना था[1]’
यद्यपि चन्द्रगुप्त सम्राट था तथापि वह भी ऐसे परीक्षणों में भाग लेता था, यह उसकी निरपेक्षता के साथ साथ उसके बौद्धिक साहस का परिचायक भी है जिसके कारण वह विद्वानों के मध्य भी समुचित सम्मान पाता रहा। ऐसे भी कुछ साक्ष्य उपलब्ध है कि उसने ‘कुंतलेश्वर दौत्य’ के भी कुछ अंशों की रचना की थी। बिना कवि हृदय के कोई भी अन्यकवियों का सम्मान नही कर सकता है।
यह उसके उत्तम शासन का मात्र एक पक्ष है। किसी भी विशाल साम्राज्य का जो अति समृद्ध हो और जंहा खाने-पीने तथा संसाधनों का भण्डार हो, उसकी शांति तथा सुरक्षा का प्रबंधन अति दृष्कर कार्य है तथा अपने निकटस्थ तथा दूरस्थ देशों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखना कभी भी आसान नही होता तथापि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने इन सबको करके दिखाया।
शक (सिंथियन) लोगों को देश के बाहर कर चन्द्रगुप्त ने अपने प्रशंसनीय युद्ध कौशल की उपलब्धियों का परिचय दिया। शक लोग उज्जयनी तक आचुके थे, चन्द्रगुप्त ने उन्हे बाहर भगादिया। उसके पौत्र स्कंधगुप्त ने हूणों को भारत पर आक्रमण करने पर हराते हुए देश की सीमा से बाहर किया।
गुप्तशासको ने शत्रुओं के आक्रमणों से अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखा। यह उनकी शक्ति सामर्थ्य तथा सैन्य क्षमता के मुख्य साक्ष्य है। उनके समय में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का भी बहुत विकास हुआ था। यदि किसी देश को समृद्ध होना है तो उसके पास एक सशक्त सेना की परम आवश्यकता है और इसके लिए उस देश में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का सतत विकास की स्थिति भी एक आवश्यकता है[2]।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]श्रूयते च उज्जयिन्यां काव्यकारपरिक्षा | इह कालिदास-मेण्ठौ अत्र अमर-रूपसूर-भारवयः | हरिचन्द्र-चन्द्रगुप्तौ परीक्षितौ इह विशालायां | -काव्यमीमांसा, अध्याय 10
[2]वर्तमान समय की अनेक तन्त्रज्ञान युद्ध साधन के रुप में ही विकसित की गई है। इसका श्रेष्ठ उदाहरण ‘इन्टरनेट’ है।