भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 40

This article is part 40 of 75 in the series Kshatra Parampare in Hindi

गुप्तकाल मे सनातनधर्म का पुनर्जागरण

प्राचीन भारतियों ने दूर दूर तक समुद्री यात्राए की थी | उनके अनेक देशों से व्यापारिक संबन्ध थे | केवल व्यापारियों तथा व्यवसायियों ने ही नही सभी वर्णों के लोगों ने व्यापक रूप से यात्राए की थी | आज भी हम इण्डोनेशिया (विशेषकर बाली मे) थायिलैण्ड तथा अन्य स्थानों पर भी ब्राह्मण परिवार के वंशजों के लोगों को देख सकते है | उन्होने अपने प्राचीन परम्पराओं का बडी सीमा तक सुरक्षित किया हुआ है | भले ही कुछ परम्पराए निस्सन्देह परिवर्तित हो चुकी है | संक्षेप मे यह यथार्थ है की उनके पूर्वज इन क्षेत्रों मे भारत से आकर बस गये थे |

इन आदान प्रदान मे गुप्त शासकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी | व्यापार तथा संस्कृति के नये नये पथों के निर्देशक के रूप मे गुप्त लोगों की इस सफलता का श्रेय जाता है | उनके द्वार किये गये सभी सुधार प्रजाजनों के आवश्यकता और रुची के अनुरूप थे | यहि कारण है की  उनकी नीतिया न तो दमनकारी थी  न आत्मघाती | गुप्तकाल मे सनातन धर्म के “धर्म-ब्रह्म-रस[1]” जैसे उच्च आदर्श उन क्षेत्रों मे भी फैल गये थे जो उनके सीधे अधिपत्य मे नही थे |

हमारी परंपरा के मौलिक धर्म ग्रन्थों मे धर्म-ब्रह्म-रस सिद्धान्त की व्यापक व्याख्या देखने मे आती है | विशेषकर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र की विविध शाखाओं जैसे वेदान्त के केवलाद्वैत मे साहित्य और कला के ग्रन्थों जैसे पुराण, इतिहास, तन्त्रागम, वैदिक, साहित्य, अन्य विज्ञान विषयक ग्रन्थों मे जैसे धातुविज्ञान, आयुर्वेद, वृक्षायुर्वेद, खगोलशास्त्र, गणित, व्याकरण,ध्वनिविज्ञान के साथ साथ संस्कृत पाली तथा अन्य भारतीय भाषाओं द्वारा प्राप्त दैनिक जीवन के अनुभवों मे भी वस्तुत सनातन धर्म के यह तीन लक्षण सर्वव्यापी रूप से हमे विभिन्न लोकगीतों मे ग्राम्यक्रीडाओं मे समारोहों मे भिन्नभिन्न लोगों जनजातियों समुदायों तथा उनके भिन्नभिन्न रीति रिवाजों और प्रथाओं मे समान रूप से देखने को मिलते है |

इसी सनातन धर्म के मौलिक सिद्धान्त विश्वभर के भारतियों को एक सूत्र मे बान्धते है | यह सहस्रों वर्षों से हमारी संस्कृति की सतत रूप से प्राणवायु रही है | एसे अनेकानेक रीतिरिवाज है प्रथाए है | नियम है प्रतिबन्ध है तथा परम्पराए है जिनको हम आज भी सम्मान देते है और उनका पालन करते है | इन सब् विविधताओं को एकीकृत करने संशोधित करने एक ही शास्त्रीय स्रोत मे बान्धने तथा व्यवस्थित करने का श्रेय गुप्त शासकों को जाता है | पूरे भारतवर्ष के कोने कोने तक उनका प्रभाव था तथा उन्हे सम्मान प्राप्त था |

यहां हम तमिळ भाषा का उदाहरण लेते है जिसे संस्कृत भाषा से बिल्कुल भिन्न दर्शाने का कृत्य किया है | तमिळ तथा संस्कृत मे अज्ञानतावश भ्रामकवृत्तियों के कारण तथा दुर्भावनापूर्ण अभिप्राय के कारण एक आभासी विभाजन क प्रसारण किया गया है | तमिळ भाषा की शास्त्रीय काव्य रचनाएं निस्सन्देह रूप से गुप्त काल के प्रभाव से युक्त है[2]

इसी प्रकार अनेक जातिया तथा समुदाय जो पूरे भारत मे फैले है जैसे गोंड, भील, लोहर, संथाल, तोड, नाग, बोडो, बनजार एवं सैक्डो अन्य सभी भारत की महान संस्कृति के अभिन्न अंश रहे है और हजारों वर्षों से सतत रूप से उसका प्रतिनिधित्व करते रहे है |

यह सुस्पष्ट है कि हमारी यह महान धरोहर किसी भी व्यक्ति या जनसमुदाय पर बलात् थोपा नही गया है | बलात् थोपी गयी कोई भी व्यवस्था लम्बे समय तक अस्तित्व मे बनी नही रह सकती है | केवल वही संस्कृति सर्वदा विद्यमान रह सकती है जो प्रकृति के सामञ्जस्य मे हो, अन्य सभी विक्षेपणों का विलुप्त होना तय है | गीता मे भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते है “तेरा स्वभाव ही तुझे युद्ध मे लगा देगा[3]” अर्थात मनुष्य की सहज वृत्तियां काम तथा अर्थ उसके सभी कर्मों का परिचालन करती है |

काम और अर्थ मे अतिरेक होने से भ्रष्ट आचरण तथा दुष्टता का निर्माण होते है अतः जीवन के नियमन हेतु एक धृढ धार्मिक व्यवस्था की स्थापन आवश्यक होती है | धर्म काम और अर्थ के नष्ट नहि करता है किन्तु उन पर नियन्त्रण रखते हुये उनके दुरुपयोग को रोकता है | अतः काम तथा अर्थ का संतुलन रखना हो तो धर्म आवश्यक है | मनु का निम्न श्लोक स्मरण करे “जो इच्छाए तथा संपदा धर्म नियन्त्रित नाही है उनका त्याग करो | उस धर्म का त्याग करो जो हमे शान्ति और आनन्द प्रदान न करे, तथा जो समयानुकुल लोगों के सामान्य व्यवहार का विरोध करता हो[4]” श्लोक का पूर्व भाग सामान्य निर्देशिक सिद्धान्त है किन्तु उत्तरार्ध बहुत आकर्षक तथा मार्मिक है [5]|

गुप्त काल मे प्रचलित सहिष्णुता तथा उदारता थी वह सनातन धर्म के मूल सिद्धान्तों के द्वार व्यवहार मे आई थी | उस समय के लोगों ने सही अर्थों मे सनातन धर्म के आत्मा को समझ लिया था | ऐसे अनेक लोग है जो आजीवन वेदों का पाठ करते हुए भी वेदों का अर्थ को नही जान पाते है जबकी वेदों द्वारा स्वयं की व्यर्थता कही गयी है[6] | ऐसे लोग यह समझ ही नही पाते हमारे ज्ञान क उपयोग हमारे दैनिक जीवन के लिये ही है | हम पुनः याज्ञवल्क्य ऋषि के उन शब्दों का स्मरण करें जो उन्होने ब्रह्म के बारे मे अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहे थे | ब्रह्म होने के कारण ब्रह्म प्रिय नही होता है किन्तु स्वयं के कारण वह प्रिय होता है | वेदों की महानता स्व (अर्था आत्मा) की विद्यमानता की  स्वीकृति के कारण है | एक बार यदि आप अपने आत्मस्वरूप को जान गये तब आप वेदों को भी त्याग कर सकते है-और यही वेदों का कथन है - और महानता भी है | इस प्रकार की घोषणा न तो बाइबल मे है और न कुरान मे है |
काव्य परम्परा से उदाहरण लेते है - अपने महाकाव्य मे कालिदास वर्णन करते है – जिस क्षण शिव ने पार्वती के मुख को देखा क्षणांश के लिये वे भी विक्षोभित हो गये जैसे चन्द्रोदय के समय महासागर मे लेहरे आ जाता है, उन्होने अपने तीनो नेत्रोंसे पार्वती के सुन्दर होठों को देखा[7] |

यह गुप्तकाल की संस्कृति की भव्य प्रस्तुति है जहा कवि अपने आराध्य देव को भी भावनात्मक विक्षोभ से ग्रस्त हो जाने की स्थिति का वर्णन कर सकता था | कालिदास के मानसिक संतुलन की बलिहारी है जो अपने सर्वोच्च आदर्श से भी निर्लिप्त होकर सान्त्वना प्राप्त कर सकते है जो उनके श्रेष्ठतम पूजनीय है और जिनमे वे अपने उच्चतम मूल्यों की चरम पराकाष्ठा देखते है उनमे दुर्बलता देख पाने के बाद भी उनके प्रति कालिदास के प्रेमसमर्पण मे कोई बाधा नही आती है | यह सत्य है की क्षणांश मे ही शिव पुनः अपनी स्थिर अवस्था मे आ जाता है तथापि कवि का दृष्टिकोण अत्यन्त सराहनीय है |

To be continued...

The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.

Footnotes

[1]धर्म- शाश्वत अस्तित्व का सिद्धान्त है, ब्रह्म-ब्रह्माण्ड की आधारभूत सत्ता, तथा रस-आनन्द, यह तीनों भारतीय दर्शनशास्त्र के मूल अंग है | धर्म जीवन कानियमन करता है और रस अधिभौतिक तथा अध्यात्मिक तत्त्व के बीच का सेतु है और ब्रह्म सर्वव्यापी परम अभिष्ठान , अन्य शब्दों मे सत्, चित् ,आनन्द भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म का आधार है |

[2]राजीव मल्होत्र के सहलेखन मे अरविन्दन नीलकण्ठन ने अपनी पुस्तक ‘ब्रेकिन्ग इण्डिया’ पर्याप्त प्रमाण दिये है की तमिळ संस्कृति वैदिक संस्कृति से अलग नहि है वह सनातन धर्म पर आधारित है तथा वेदों से संबन्धित है | पुस्तक के प्रमुख भाग मे दर्शाया गया है की प्राचीन तमिळ संगम साहित्य तथा संस्कृति वैदिक साहित्य तथा संस्कृति की जड से जुडे है | क्रिश्चियन मिशनरी तथा वामपन्थी इतिहासकारों ने षडयन्त्रपूर्वक सतत रूप से दोनो भाषाओं को भिन्नभिन्न दर्शाने का ऐतिहासिक कुकृत्य किये है | इसी प्रकार क विद्वत्पूर्ण कार्य वरिष्ठ अभिलेखविशेषज्ञ पुरातत्ववेत्ता इतिहासज्ञ दिवङ्गत डा आर नागस्वामि जो तमिळनाडु के थे उनके द्वारा रचित ग्रन्थों ‘मिरर आफ तमिळ अण्ड संस्कृत’ तथा ‘तमिळनाडु दि ल्याण्ड आफ वेदास’ मे वर्णित है |

[3]प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति (भगवद्गीता 18.59)

[4]परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ | धर्मं चाप्यसुखोदर्कं लोकविद्विष्टमेव हि || (मनुस्मृति 4.176)

[5]जब आम जन अपनी पारिवारिक सामाजिक समस्या के समाधानार्थ अपने पुरोहित या मठाधिपति के पास जाते है - जैसे मेरा संतान ने विजातीय विवाह कर लिया ह वह सम्बन्ध विच्छेद कर रहा है परम्पराओं के विरुद्ध जा रहा है आदि - तो धर्मशास्त्र मे इसका निधान नही है तथा धर्माचार्यों मे मनुस्मृति के दिये गये इस संकेतानुसार निर्णय लेने का साहस नही होता है |

[6]हर दिन ब्रह्म-यज्ञ के समय जो ऋगवेद संहिता का मन्त्र (1.164.39) का पठन करते है - ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः यस्तन्न वेद किं ऋचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते - इसके अनुसार जिसमे वेदों के आन्तरिक भाव को नही समझा उसके लिये बाह्य वेद व्यर्थ है तथा जिसने आन्तरिक भाव को समझ लिया है उसने भाह्य वेदों का अनुभव कर लिया है |

[7]हरस्तु किञ्चित्परिलुप्तधैर्यः चद्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः | उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि | (कुमारसम्भव 3.67)

Author(s)

About:

Dr. Ganesh is a 'shatavadhani' and one of India’s foremost Sanskrit poets and scholars. He writes and lectures extensively on various subjects pertaining to India and Indian cultural heritage. He is a master of the ancient art of avadhana and is credited with reviving the art in Kannada. He is a recipient of the Badarayana-Vyasa Puraskar from the President of India for his contribution to the Sanskrit language.

Translator(s)

About:

Prof. Dharmaraj Singh Vaghela served as the Head of the Department of Physics at the Government Arts and Science College, Ratlam of the MP Govt. Higher Education Department, until his retirement in 2004. He has published a number of papers in Plasma Physics in international journals. His papers have also appeared in the research journal of the Hindi Science Academy. Among other books, he has translated Fritjof Capra's best-selling work "The Tao of Physics" into Hindi. He has written a monograph in Hindi which explains the philosophical aspects of modern physics.

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