चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने जो भी निर्णय लिए तथा जो भी संबंध स्थापित किये थे वे सब शास्त्रानुसार तथा परम्परानुगत प्रथा द्वारा मान्य थे। उसके शासन काल में सनातन धर्म का उत्थान अपने चरम शिखर पर था जिसकी कोई तुलना नही की जा सकती है। उसके शासन काल में विभिन्न वर्णों के मध्य सामंजस्य के अनेक उदाहरण है। के.एम.मुंशी कहते हैं –
वर्तमान समय की अपेक्षा उस समय में अन्तर्जातीय विवाह की स्वतंत्रता अधिक थी। अनुलोम विवाह (उच्च वर्ण के पुरुष का निम्न वर्ण की महिला से विवाह) सामान्य रुप से प्रचलित थे तथा प्रतिलोम विवाह भी कम नही थे
साम्यवादियों से निकट संबंध रखने वाले विद्वान भगवतशरण उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया इन कालिदास’ में टिप्पणी दी है –
धर्मशास्त्र को तलवार के बल पर थोपा नही गया था। यंहा तक कि पिछड़े वर्ग के तथा आप्रवासियों द्वारा भी अपने समुदाय के प्रचलित रीति रिवाजों और प्रथाओं का स्वेच्छा से त्यागकर धर्मशास्त्रानुसार व्यवस्था को सदृर्ष अपनाया गया था। यह न तो किसी शासक के आदेश द्वारा और न उच्च वर्ण के सामाजिक दमन को कारण हुआ था अपितु उन सभी लोगों की स्वेच्छानुसार हुआ था जिन्होने यह जान लिया था कि उनकी सामाजिक, आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक उन्नति का श्रेष्ठतम मार्ग युगों से चले आ रहे धर्मशास्त्रों के द्वारा प्रदत्त गतिशील निर्देशों द्वारा ही हो सकता है।
यंहा ‘स्वेच्छिक स्वीकृति’ का संदर्भ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यदि वर्तमान समय में हमारे सनातन धर्म की महत्ता में कोई जड़ता आ गई है तो इसकी सारी जिम्मेदारी हमारे कंधो पर है। यदि हमे किसी भी चीज को बहिष्कृत करना है तो हमें उससे अच्छे विकल्प को स्थापित करना आवश्यक है। यदि हम ‘वेलेन्टाइन डे’ का बहिष्कार करना चाहते हैं तो हमें ‘मदनोत्सव’ और ‘वसंतोत्सव[1]’ जैसे उत्सवों को फिर से पुनर्जीवित करना आवश्यक है जो हमारी परम्परा के पुरातन, उत्साह युक्त सुन्दर प्रथा के प्रतीक हैं। ऐसे कार्य कृष्ण तथा चाणक्य जैसे असाधारण लोगों द्वारा ही किये जा सके हैं। दुर्भाग्य से हम इन्हे भूल गये हैं। अभिज्ञानशाकुन्तल के छठे प्रसंग में कालिदास ने कहा है कि – “मनुष्य उत्सव प्रेमी है[2]”
यदि हम प्राचीन काल के समारोह तथा उत्सवों को देखें जो भारत में व्यापक रुप से मनाये जाते थे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि तब आज की तुलना में उन्हे कहीं अधिक उत्साह, हर्ष तथा मुक्तता के साथ मनाया जाता था। आज विज्ञान तथा प्रौद्यौगिकी के कारण हमें बहुत सुविधा प्राप्त है यदि यही सब हमारे पूर्वजों को प्राप्त होती तो वे इसका हम से सौ गुना अधिक आनन्द प्राप्त करते !
क्षात्रभाव ने कभी यथार्थ का विहोध नहीं किया। ब्राह्म सब आदर्शों का आधार है और क्षात्र का अस्तित्त्व इन आदर्शों को यथार्थ के साथ समन्वित करना है। जीवन के सूक्ष्मस्तरीय पक्ष के प्रति आकर्षण भाव रखना एक आवश्यकता है। मात्र पूजा तथा अन्य धर्मिक कर्मों के प्रति ही आकर्षित रहना पर्याप्त नहीं है। मानवीय वृत्ति को संगीत, नृत्य, भोजन तथा खानापान में भी श्रेष्ठ विविधताओं की आवश्यकता होती है।
वस्तुतः सनातन धर्म में जीवन के इन सभी पक्षों को बेजोड़ ढंग से ग्रंथित कर दिया गया है। वेदो द्वारा प्रदत्त उपहार तथा परिणामों को सतत रुप से नया स्वरूप दिया जाता रहा है। समय के अनुरुप स्वयं को ढालने का सिद्धांत किसी भी संस्कृति के लिए एक महत्त्व पूर्ण तत्त्व है। हमे ऐसे परिवेश के निर्माण करते रहने की आवश्यकता है जंहा स्वेच्छा से लोग सांस्कृतिक परिवर्तन तथा संशोधनों का स्वागत कर सकें। गुप्तकाल के शासको ने ठीक इसी प्रकार के परिवेश का निर्माण अपनी प्रजा के लिए किया था जिसमें उन्हे स्वयं के स्वत्व को सुरक्षित रखते हुए नये वातावरण के अनुसार जीवन यापन के सभी आवश्यक संसाधन प्राप्त थे। क्रांति का अपना महत्त्व है तथापि इससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण लम्बी अवधि तक रहनेवाली सर्वव्यापी शांति है। वर्षाकाल वर्ष में सिर्फ तीन चार मास तक ही रहता है किंतु उस समय के जल का विवेकपूर्ण संग्रहण पूरे वर्ष तक सिचाई आदि के लिए उपयोगी होता है।
इस परिप्रक्ष्य में यदि हम तथाकथित कहेजाने वाले भारत के आर्यीकरण का परीक्षण करें तो वह न तो राजाओं द्वारा और न ब्राह्मणों के दमन के कारण थोपा गया कृत्य था। उस युगमें जो धर्मशास्त्र के प्रचलित निर्देश थे उनमें समाज की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति की व्यवस्था अन्तर्निहित थी। जब लोगों ने इस व्यवस्था के महत्त्व को समझ तो उन्होने हृदय से आर्यसभ्यता को अपना लिया।
सनातन धर्म की यह विशेषता रही हे कि क्षात्र परम्परा में रक्तपात के स्थान पर कूटनीतिक चतुराइ को अधिक महत्त्व पूर्ण माना गया है। ऐसा नही है कि रक्तपात हुआ ही न हो तथापि वह राजनीति का अंतिम विकल्प रहा है जो ‘दण्ड’ स्वरुप किया गया। राजनीति में प्रथम दो मार्ग साम तथा दान अपनाये गये थे। जब कोई विकसित सभ्यता अन्य लोगों के साथ जो उन्ही के समान मान्यताओं को स्वीकार करने वाले हो, मिश्रित होकर परिवर्तन के यथार्थ से सन्मुख होती है तब सामान्यरुप से साम तथा दान ही उपयेगी रहो हैं तथा वंहा भेद (कपट) अथवा दण्ड (युद्ध) आवश्यक नही होते है। साम तथा दान में क्रूरता और चालबाजियों की आवश्यकता नही होती। किंतु जब किसी असभ्य और असंस्कारी लोगों से सामना हो तो केवल दण्ड ही उसका विकल्प हो सकता है जब वंहा भेद भी असफल हो जाता है। हिन्दू लोग क्रिश्चियन, मुस्लिम तथा साम्यवादियों के प्रकरणों में भेद तथा दण्ड का उपयोग करपाने में निराशाजनक रुप से असफल रहे, जिसके कारणवे अपनी स्थिति से च्युत होकर पिछड़ गये।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]होली के संदर्भ मे मनाते है
[2]उत्सवप्रियाः खलु मनुष्याः (सानुमती एक अप्सरा स्त्री कहति है )