हर दृष्टि से सनातन धर्म, बौद्ध धर्म की तुलना में श्रेष्ठ है। यह सनातन धर्म की श्रेष्ठता का ही प्रतिफल है कि उससे बौद्ध धर्म का जन्म हुआ किंतु बौद्ध धर्म में अपने समतुल्य या अपने से श्रेष्ठ संप्रदाय को उत्पन्न कर पाने की क्षमता नही रही। यही कारण है कि उससे वज्रयान, सहजयान, महाचीन और गुह्यसमाज जैसे छुटषुट मत पैदा होते रहे। इसके विपरीत सनातन धर्म का शताब्दियों पूर्व की लम्बी परम्परा रही है इस परम्परा ने परम शांति तथा आत्म तत्त्व के दर्शन से संयुक्त एक ऐसे विश्राम स्थल का निर्माण किया है जंहा किसी भी बहुमुखी समाज को समाविष्ट करने का क्षमता रही है।
गुप्त सम्राटों ने बौद्ध धर्म को असाधारण सहयोग प्रदान किया था। और वैसा ही पाल, सेन, मौखरी, चालुक्य तथा प्रतिहार राजाओं ने किया। होयसल साम्राज्य में जैन धर्म को सर्वोच्च सम्मान दिया गया फिर भी वे अहिंसा मंत्र का मात्र मौन जाप नही करते रहे, और इसी प्रकार कलिंग, चंदेल, राष्ट्रकूट, परमार तथा प्रतिहारों ने जैन धर्म को अति उदार संरक्षण देते हुए भी अपने क्षात्र भाव को भी बनाये रखा। राष्ट्रकूटो में अमोघवर्ष नृपतुंग नामका परमवीर योद्धा हुआ है जो जैन गुरु मुनि गुणभद्राचार्य का शिष्य था और यह मुनि स्वयं जैन मुनि जिनसेनाचार्य के शिष्य थे। इसके बाद भी यह योद्धा कभी भी क्षात्र भाव से विमुख नहीं हुआ और न किसी भावनात्मक दौर्बल्य का शिकार हुआ। वास्तव में जो भी लोग राजनीति या शासन तंत्र के सहभागी होते हैं उन्हे स्वयं के कर्तव्य कर्म तथा वैयक्तिक वैराग्य भाव को पृथक रखना आवश्यक है जैसा कि वर्तमान काल में डी.वी.गुंडप्पा ने किया। उन्हे अपने दोनों पक्षों को उनके उचित स्थान पर संपादित करना चाहिए। चूंकि हर्षवर्धन पुलकेशी द्वितीय से हार गया था शायद इसी कारण से वह इतिहास में सम्मानजनक स्थान नहीं पा सका।
बादामी चालुक्य
हर्षवर्धन के साथ साथ पुलकेशी द्वितीय है। एक अत्यंत प्रतिभा संपन्न सम्राट था जिसका बादामी चालुक्यों से संबंध था। हर्षवर्धन वैश्य समुदाय से संबंधित था वही पुलकेशी शूद्र समुदाय से संबंधित था। चालुक्य लोग खेती हर पृष्ठभूमि से आते थे और मूलतः वे कृषक समुदाय के थे। बिल्हण द्वारा रचित ‘विक्रमांकदेवचरित’ के प्रथम अध्याय में हमें पौराणिक शैली में चालुक्यों के मूल सेसंबंधित कहानी पढने को मिलती है जो निम्नानुसार है –
एक बार देवगण ब्रह्मा के पास जाकर बोले “पृथ्वी पर घोर संकट आ गया है, धर्म संरक्षण करने वाले किसी महान वीर क्षात्र सम्राट का जन्म होना अति आवश्यक है”, उस समय ब्रह्मा संध्यावंदन कर रहे थे और अपने दोनों हाथों में ‘संध्यांजली’ अर्थात् ’चुलुक’ धारण किये थे – उन्होने उसी क्षण एक महानायक चालुक्य की रचना कर दी और इसी चालुक्य से चालुक्य राजवंश का जन्म हुआ।
विद्वानों का मत है कि चालुक्य संस्कृत शब्द नही है क्योंकि ‘चुलुक’ से ’चौलुक्य’ शब्द उत्पन्न होता है न कि चालुक्य। सम्भवतः चालुक्य शब्द कन्नड़ भाषा के ’सलिके’ (कुदाल या फावड़ा) से प्राप्त हुआ है। अन्य शब्दों में इसका मूल उन लोगों से जुडा है जो खेत पर कुदाल अथवा फावड़े से काम करते थे।
यहाँ मै एक अत्यंत घृणित भ्रम की ओर ध्यान दिलाना चाहुंगा जो पिछले कुछ वर्षों में ईसाई मिशनरियों के दुष्प्रचार द्वारा ब्रिटिश शासन काल से ही प्रारंभ हो गया था किंतु वर्तमान में मार्क्सवादियों तथा साम्यवादियों के मत के इतिहासकारों द्वारा असीमित अनुपात में फैलाया गया है कि प्रारंभिक काल से ही ब्राह्मणो तथा क्षत्रियों ने हिंदू समाज के अन्य वर्गों का दमन तथा शोषण किया है। सच्चाई यह है कि नब्बे प्रतिशत भारतीय शासक शूद्रवर्ग से ही संबंधित रहे है जैसे – मौर्य, यादव, परमार, चंदेल, होयसल, सेवुण, चालुक्य, चोल, चेर, राष्ट्रकूट, संगम, साळ्व, तुळुव, अरविडु राजा, राठौड, सोलंकी, भोंसले, चौहान, आदि... यह सूची बडी लम्बी है। मौर्य काल से ढाई हजार वर्षों की समयार्वाध में लगभग ढाई सौ ऐसे राजवंशों ने भारत पर शासन किया था। अतः यदि शोषण और
दमन का आरोप सही माना जाए तो वह इन शासकों पर आता है।
दुर्भाग्य से यह भ्रामक स्थिति आज भी है। किंतु कर्नाटक में सबसे सशक्त समुदाय लिंगायत तथा वोक्कालिगा है। आंध्र में कम्मा, कापू तथा रेड्डी समुदाय है। गुजरात में पटेलों का वर्चस्व सर्वविदित है वहीं बिहार में यादव असाधारण रूप से शक्ति संपन्न है। ब्राह्मण और क्षत्रिय कहां है ? अब समय आ चुका है कि हम अपने पक्षपात पूर्ण पूर्वाग्रहों का त्याग कर यथार्थ स्थिति को समझने का प्रयास करें!! विडम्बना यह है कि वर्तमान में जातीय संघर्ष के प्रश्रयदाता ही स्वयं को जातीय बंधन से स्वयं को मुक्त होने का दावा कर रहे हैं।
शूद्र वंश से उदित चालुक्य साम्राज्य ने अनेक वीर योद्धा सम्राट दिये। कहावत है कि ‘वीरभोग्या वसुन्धरा‘। एक क्षत्रिय की पहचान जन्म से नहीं किंतु उसके कर्म से होती है। जन्म का क्षत्रिय मात्र कहने भर का क्षत्रिय हो सकता है क्योंकि केवल नाम से आवश्यक गुण नहीं आ जाते हैं।
पुलकेशी द्वितीय
पुलकेशी प्रथम एक महत्वपूर्ण चालुक्य शासक था। उसका पुत्र कीर्तिवर्मा प्रथम, पुलकेशी द्वितीय का पिता था। प्रख्यात राजा मंगलेश, कीर्तिवर्मा का छोटा भाई था जो एक वीर योद्धा था। हमारी ऐतिहासिक कहानियों तथा उपन्यासों में नायक को छोड़कर अन्य सबको दुष्ट दर्शाया जाता है जो यथार्थ से सर्वथा परे होता है। वास्तविकताऍ मात्र अच्छी और बुरी ही नहीं होती किंतु उनका सम्मिश्रण होती है। मंगलेश एक साहसी योद्धा था अतः उसे ‘सत्याश्रय’ तथा ’रणविक्रम’ जैसी उपाधियों से सम्मानित किया गया था। उसने अनेक युद्ध लड़े और उन्हें जीता । बादामी की विष्णु गुहा का निर्माण उसी ने करवाया था। चालुक्यों द्वारा शैव तथा वैष्णव मतों को सहयोग दिया जाता रहा था। पुलकेशी द्वितीय मंगलेश के बडे भाई का पुत्र था। उसके अनेक भाई थे जिनमें प्रमुख रूप से कुब्ज विष्णुवर्धन का नाम उल्लेखनीय है। उसे ‘कुब्ज’ की उपाधि इसलिए दी गई क्योंकि कूबड़ की शारीरिक विरूपता से वह ग्रस्त था। पुलकेशी द्वितीय अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए बड़ा हुआ था। कुछ लोगों का अनुमान है कि उसकी शिक्षा आईहोळे (अय्यावल) के गुरु पीठ में हुई थी। रविकीर्ति उसका सहपाठी तथा अच्छा मित्र था। आज जो भी जानकारियां हमें पुलकेशी के संबंध में प्राप्त है वे मूलतः आईहोळे[1] की पहाड़ी पर स्थित मंदिर की दीवार पर उत्कीर्ण अभिलेख से मिलती है।
जब पुलकेशी ने अपने शौर्य तथा चारित्रिक अच्छाइयों के कारण राज्य की प्रजा का प्रेम तथा सम्मान प्राप्त कर लिया तो उसके काका ने उसे साम्राज्य का शासन सौंप दिया। इस अवसर पर मंगलेश ने तीव्र विरोध किया तथा अनेक उपाय किये क्योंकि कोई भी व्यक्ति प्राप्त शक्तियों को सहज रूप में कैसे छोड़ सकता है विशेषकर जब वह
पदासीन हो । शीघ्र ही भाइयों में संघर्ष प्रारम्भ हो गया। कुछ समय के लिए पुलकेशी को शक्ति संचय के लिए राज्य से निर्वासित होना पड़ा। बाद में शत्रुओं के आक्रमण के कारण, पुलकेशी की अनुपस्थिति में साम्राज्य पर संकट आने के कारण योद्धा पुलकेशी को लौटना पड़ा तथा तब वह निर्विवाद रूप से सिंहासनारूढ़ हो गया।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]आईहोळे शिलालेख’ के नाम से सुविख्यात यह उत्कीर्णन संस्कृत काव्य की एक अति सुन्दर तथा भव्य रचना है। ऐसे कुछ और भी शिलालेख है जो ऐतिहासिक के साथ साथ पद्य रचना की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ – प्रयाग का हरिषेण रचित समुद्रगुप्त प्रशस्ति, समुद्रगुप्त प्रशस्ति जो जूनागढ़ में है, महेश्वर में वत्सभट्टी प्रशस्ति तथा रुद्रदामन अभिलेख। आईहोळे अभिलेख ऐसा ही अभिलेख है। जिसमें रविकीर्ति हमें कालिदास और भारवि के कालखंड का संकेत देते है, तदनुसार कालिदास, भारवि से पहले के समय में रहे थे
येनायोजि न वेश्म स्थिरमर्थविधौ विवेकिना जिनवेश्म |
स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रित-कालिदास-भारवि-कीर्तिः || (आईहोळे अभिलेख प.37)