भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 51

This article is part 51 of 72 in the series Kshatra Parampare in Hindi

तीन बार कुब्ज विष्णुवर्धन ने अपने भाई पुलकेशी के विरुद्ध विद्रोह किया और तीनों ही बार पुलकेशी ने उसे क्षमा कर दिया। न तो वह अपने दुष्ट काका के प्रति आवश्यक कठोरता दिखा पाया और न अपने मनमौजी पुत्रों पर अंकुश रख सका। इन सभी कारणों से दुर्भाग्य पूर्ण परिणाम सामने आये। ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार काका मंगलेश, कुब्ज विष्णुवर्धन को सदैव पुलकेशी के विरुद्ध भड़काता रहता था। पुलकेशी चाहता तो इन सभी स्थितियों से पूर्णतः स्वयं को बचा सकता था यदि वह निर्णयात्मक ढंग से कार्य करता किंतु उसने वैसा नहीं किया। इन सभी षड्यंत्रों से त्रस्त होकर उसकी दादी ने देह त्याग दिया।

अपने पुत्रों के प्रति आसक्ति पर नियंत्रण न रख पाने के कारण पुलकेशी उनकी भूलों को सहता रहा और स्वयं के पतन की ओर बढ़ता रहा। ऐसे प्रकरणों में गुप्त सम्राट लोह संकल्प के साथ दृढ़ता के साथ कार्य करते थे। उस स्वर्णिम युग में तथा उसके पश्चातवर्ती समय में यही मौलिक अन्तर रहा है। चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने बड़े पुत्र कच की उपेक्षा कर अपने अन्य छोटे पुत्र समुद्रगुप्त का राज्याभिषेक कर दिया था। रामगुप्त जो समुद्रगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र था, अयोग्य होते हुए भी सिंहासन पर बैठा किंतु अंततः स्वयं अपने षड्यंत्रकारी कर्म के कारण अपने अनुज चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के हाथों मारा गया। यही कारण है कि गुप्त साम्राज्य चट्टान की दृढ़ता के साथ खड़ा रहा तथा उसने चारों ओर सांस्कृतिक तथा सभ्यता के वैभव को स्थापित किया।

क्षत्रिय परिवारों की दुर्बलताएँ

पुलकेशी के पुत्र विक्रमादित्य तृतीय को पल्लवों के अधिकार से वातापि को मुक्त करवाने के लिए तेरह वर्षों के लम्बे समय तक संघर्ष करना पड़ा था। इसके बाद उसे कल्याण प्रस्थान करना पड़ा, तब से उनका साम्राज्य कल्याण चालुक्य के नाम से जाना जाता है। बादामी का वैभव सदा के लिए समाप्त हो गया। हम देख चुके है कि किस प्रकार कुछ शासकों के किसी धार्मिक पंथ के प्रति विशिष्ट समर्पण के कारण उनके शांति तथा अहिंसावादी असीमित दुराग्रहों पूरे साम्राज्य को दुष्परिणाम झेलने पडे।

इसी प्रकार के दुष्परिणाम पुलकेशी के अपने असीमित पुत्र मोह के कारण तथा पारिवारिक कलह को न सुलझा पाने के कारण प्राप्त हुए। बहुत समय उपरांत यही दुर्बलता कृष्णदेवराय में भी देखने को मिलती है। कृष्णदेवराय का पुत्र मोह इस स्तर तक बढ़ा हुआ था कि उसने बचपन में ही अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर दिया था[1]

वह पुत्र मोह में इतना अंधा हो गया था कि उसने अळिय रामराय के विजयनगर साम्राज्य को नष्ट कर देने वाले षडयंत्रों की ओर ध्यान ही नही दिया। कृष्णदेवराय चाहता तो अपने सौतेले भाई अच्युतराय की मदद से शासन को मजबूत कर सकता था जब तक उसका स्वयं का पुत्र बड़ा नहीं हुआ था। वस्तुतः उसके मंत्री टिम्मरसु ने उसे यही सलाह दी थी किंतु ऐसे शक्तिशाली सम्राट कब अपनी भूल स्वीकार करते है? कुष्णदेवराय के देहावसान के उपरांत, अच्युतदेवराय किसी प्रकार भी साम्राज्य का प्रबंधन करता रहा किंतु रामराय के समय तक साम्राज्य का पतन हो चुका था।

यदि हम महाभारत अथवा चाणक्य के अर्थशास्त्र में वर्णित दण्डनीति अर्थात प्रशासन चलाने के सिद्धांतों को पढ़े तो उसमें एक सम्राट को किस कुशलता के साथ, योजनाऍ, रणनीतियॉ, तथा अपने ही पारिवारिक सदस्यों से पैदा होने वाली कठिनाइयों को सुलझाना चाहिए आदि विषयों पर सटीक सलाह दी गई है। भूतकाल के अनेक राजाओं ने न तो इन्हे समझा और न इन्हे व्यवहार में ला पाये, परिणाम स्वरूप हमारे देश को ऐतिहासिक विनाश के दौर से उत्पीडित होना पडा[2]

गंग और कदंब

कर्नाटक में क्षात्र सिद्धांत का उच्चशिखर स्वरूप, कदंब साम्राज्य के संस्थापक मयूर शर्मा में दृष्टिगत होता है। कुछ लोग उसे ब्राह्मण मानते है तथा अन्य उसे सातवाहनों से संबंधित मानते है। उसने अपने कठिन परिश्रम से नाम कमाया। मयूर जब कांची में अध्ययन कर रहा था तब उसका वहां पल्लवों से संघर्ष हो गया, और उसे क्रुद्ध अवस्था में लौटना पड़ा । कांची, पल्लवों की राजधानी तथा दक्षिण का केन्द्र था। उनका उत्तरी केन्द्र श्रीशैल तथा उत्तरपश्चिमी केन्द्र बनवासी था। मयूर ने बनवासी पर अपना अधिकार कर एक नया राजवंशीय साम्राज्य स्थापित कर लिया। यद्यपि कदंब राजाओं में कई अच्छे शासक थे तथापि किसी में भी मयूर जैसी प्रतिभा और महानता नहीं

थी। परिणाम स्वरूप बाद में उन्हे होयसल, चालुक्य तथा राष्ट्रकूटों की अधीनता में रहना पड़ा।

गंग राजाओं में प्रमुख नाम दुर्विनीत का है। सतत रूप से पल्लवों से संघर्ष करता रहा था। बेंगलुरु[3], कोलार, तलकाड आदि क्षेत्र गंग-शासन के अधीन आते थे। गंग राजाओं ने तलकाड को अपना केंद्र बनाया था।

दुर्विनीत, पूज्यपाद का शिष्य था और उसने संस्कृत में अनेक ग्रंथ लिखे। उसका एक महत्वपूर्ण योगदान यह रहा कि उसने ‘बृहत्कथा’ का पैशाची प्राकृत से संस्कृत में अनुवाद किया था। वह भारवि का लगभग समकालीन था। भारवि ने किरातार्जुनीयम् की रचना की थी। उसको पढ़ कर दुर्विनीत ने इसके पन्द्रहवे स्कंध की टीका जो अत्यंत जटिल तथा चित्रकाव्य[4] से भरी हुई है, को लिखा। इसी कारण से दुर्विनीत को ‘किरातार्जुनीय-पंच-दशा-सर्ग-टीका कारः’, ‘देव-भारती-निबद्ध-बृहत्कथः’ और ‘गज-शास्त्र-कारः’ आदि उपाधियों से भी जाना जाता है। वह व्याकरण का बड़ा ज्ञाता था तथा संगीत में भी वह निपुण था। संक्षेप में शौर्य और राजनीति के अतिरिक्त दुर्विनीत कई अन्य विषयों और कलाओं का जानकार था। दुर्विनीत, ब्राह्म तथा क्षात्र के मध्य के सामंजस्य का एक आदर्श उदाहरण था।

To be continued...

The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.

Footnotes

[1]यह घटना मध्यकालीन भारत में प्रचलित बाल विवाह से समरूपता रखती है। जहाँ एक ओर शासक अपने पुत्रों का बचपन में ही राजतिलक कर अपने विवेक हीनता दिखा रहे थे वहीं प्रजा जन अपनी संतानों का बाल विवाह कर अपनी मूर्खता का परिचय दे रहे थे। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो यह हुई कि इन्ही प्रथाओं के समकक्ष मठाधीश लोग बाल संन्यास को प्रोत्साहित करने लगे। यह हमारी ऋषि परम्परा के अनुसार नही था तथा इससे अत्यधिक क्षति हुई।

[2]कृष्ण कभी भी ऐसी आसक्ति या भ्रम के चक्कर में नही आये। नशे में उन्मत्त यादवों के आपसी संघर्ष में उन्होने स्वयं अपने बांधवों और पुत्रों का संहार किया था। एक सभ्य समाज को सदैव कृष्ण जैसे व्यक्ति का संरक्षण, वैचारिक प्रक्रिया तथा दृढ़ मनोबल की आवश्यकता होती है। चाणक्य तथा विद्यारण्य में यह सतर्कता थी।
संगमा भाइयों में भी विचार एवं मत का ऐक्य भाव था। हरिहर, कंपन प्रथम, बुक्कराय, मारप्पा और मुद्दप्पा। कम्पन पहले मर गया। जब पुत्र विहीन हरिहर की मृत्यु हुई तो वे कम्पन के पुत्र संगम द्वितीय का राजतिलक कर सकते थे किंतु वह बालक था अतः बुक्काराय को शासन सौंपा गया। वह संगम द्वितीय की तुलना में अत्यधिक अनुभवी तथा साहसी योद्धा था। इसके कुछ समय बाद ही संगम द्वितीय को उदयगिरी क्षेत्र का प्रमुख बनाया गया और महाज्ञानी सायणाचार्य उसके गुरु बने। यह क्षात्र के व्यावहारिक स्वरूप का एक अच्छा उदाहरण है।

[3]बेंगलुरु सदा विवाद तथा संघर्ष का भूमी था | उसपर नियंत्रण पाने के लिये पल्लव चोळ पांड्य तथा कर्णाटक के विविध राजवंशियों के बीच लगातार संघर्ष था |

[4]काव्य जो आश्चर्य का कारण होता है | इसमे छन्द तथा अन्य नियम अति कठिन होता है ।

Author(s)

About:

Dr. Ganesh is a 'shatavadhani' and one of India’s foremost Sanskrit poets and scholars. He writes and lectures extensively on various subjects pertaining to India and Indian cultural heritage. He is a master of the ancient art of avadhana and is credited with reviving the art in Kannada. He is a recipient of the Badarayana-Vyasa Puraskar from the President of India for his contribution to the Sanskrit language.

Translator(s)

About:

Prof. Dharmaraj Singh Vaghela served as the Head of the Department of Physics at the Government Arts and Science College, Ratlam of the MP Govt. Higher Education Department, until his retirement in 2004. He has published a number of papers in Plasma Physics in international journals. His papers have also appeared in the research journal of the Hindi Science Academy. Among other books, he has translated Fritjof Capra's best-selling work "The Tao of Physics" into Hindi. He has written a monograph in Hindi which explains the philosophical aspects of modern physics.

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