ऐसी ही घटना को आज हम गांधी-नेहरु काल में देख रहे हैं – यदि नेहरु जैसा व्यक्ति गांधी का उत्तराधिकारी हो सकता है तो यह गांधी के सिद्धांतों की वास्तविकता को दर्शाता है। जब हम देखते हैं कि किस प्रकार सुभाषचंद्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल और राजगोपालाचारी जैसे सुयोग्य व्यक्तियों पर दबाव डाल कर उन्हे हटा दिया गया तो यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधी किसके पक्ष का समर्थन जुटाने में संलिप्त थे। भूतपूर्व जोधपुर विश्व विद्यालय के दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक डा.एम.एम. कोठारी ने ‘क्रिटिक ऑफ गांधी’ नामक एक मूल्यवान पुस्तक लिखी है। उसमें इस प्रकार की अनेक घटनाओं का विवरण है। डा. कोठारी के नीरीक्षणानुसार अपनी युवावस्था के भावाकर्षणों में गांधी ने जो कुछ भी किया और फिर उनका त्याग कर दिया था उन्हे नेहरु नाम का व्यक्ति अपनी प्रोढ़ावस्था में भी करता रहा था। संभवतः यही एक कारण था कि नेहरु, गांधी के आकर्षण का केन्द्र थे। समाज में इस प्रकार की घटनाऍ सामान्यतः पाई जाती है। जब हम किसी अनचाही गतिविदियों में हिस्सा लेने में असमर्थ होते है अथवा ऐसा करना पसंद नही करते है और जब हम अपने परिवेश में किसी को इसे उन्मुक्त भाव से करते देखते है तो उनके प्रति हम निषिद्ध आकर्षण के साथ स्वयं को संबद्ध कर लेते हैं। ऐसे लोग हमारी ‘नकारात्मक छवि’ या ‘दूसरा स्वयं’ का कार्य करते है। साथ ही हम उनके कृत्यों के प्रति आकर्षित हो जाते है । यह एक प्रकार की विशिष्ट मानसिक दुर्बलता है। संभवतः गांधी भी ऐसे ही किसी मनोवृत्ति से ग्रस्त थे। किंतु उसका दुष्परिणाम राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध हुआ।
वल्लभ भाई पटेल ने पॉचसौ पचास से भी अधिक रियासतों को भारतीय संघ में एकीकृत किया था किंतु प्रतिष्ठित नेहरु ने मात्र एक राज्य कश्मीर की जिम्मेदारी ली थी किंतु उनके निर्मम उपेक्षा भाव के कारण यह हमारे देश का चिरस्थायी सिरदर्द बन गया। एक ओर चीन ने तथा दूसरी ओर पाकिस्तान ने कश्मीर के भूभागों पर अवैध अधिकार कर लिया है परिणामतः हमारे देश के सामरिक महत्त्व का भूभाग विदेशी हाथों में है और हमारे लिए निरंतर बनी रहने वाली एक समस्या है।
यह सब दुर्भाग्य पूर्ण परिणाम अनुचित अभिमान, शांति की अंध महत्त्वाकाक्षा और निरर्थक उदारता के कारण हमें देखता पड़ रहे हैं।
अशोक का पतन
अशोक की अनेक संतानों में तीव्र, महेन्द्र, कुणाल और जलूक आदि के नाम प्रमुख है। वायुपुराण तथा कुछ अन्य पुराणों में भी इनका विविध विवरण दिया गया है। अशोक के उपरांत कुणाल ने साम्राज्य पर शासन किया। उसके आठ वर्षीय शासन काल के बाद दूसरी पीढ़ी ने यह कार्यभार सम्हाला। उनमें से बृहद्रथ एक था। कुछ लोगों के मतानुसार वह अशोक का पौत्र था तथापि ऐतिहासिक अध्ययन द्वारा दी गई जानकारी कुछ और है। संप्रति चन्द्रगुप्त, अशोक का पौत्र था तथा उसका पुत्र बृहद्रथ था। यह सभी शासक समान रुप से क्षात्र विहीन दौर्बल्य से ग्रस्त थे।
संप्रति चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म स्वीकार कर श्रावणबेलगोला की चन्द्रगिरी पहाड़ी पर भद्रबाहू मुनि के सानिध्य में सल्लेखन अर्थात् संथारा (मृत्युपर्यन्त उपवास) वृत धारण किया था। कुछ लोगो ने इस ऐतिहासिक तथ्य को भ्रम स्वरुप यह समझ लिया कि यह चाणक्य का शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य था जिसने नंदवंश का नाश किया था। इस विषय पर राष्ट्रकवि एम. गोविन्द पाई ने गहन अध्ययन कर सत्य तथ्य को स्थापित किया है । मै यह इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि जब इतिहास के विभिन्न तथ्यों को सुनिश्चित रुप से स्थापित न किया जा सके तो हमें निष्कर्ष हेतु मूल स्त्रोतों पर ध्यान देना चाहिए और गोविन्द पाई ने ठीक यही किया है।
अशोक के पश्चातवर्त्ती काल में जिस प्रकार अहिंसा का धमाकेदार प्रसार हुआ उसकी अंतिम परिणति बहुपक्षीय पतनोन्मुखता में हुई। किंतु भगवान बुद्ध ने कभी भी ऐसी जड़ता का उपदेश नहीं दिया था। वर्धमान महावीर तथा अन्य तीर्थकंरों में से कोई भी इस अतिवाद तक नही गया। क्योंकि भारत में अनेक जैनराजाओं का शासन रहा और उन सबने अनेक युद्धों में भाग लिया था। उनमें से किसी ने भी अहिंसा की आड़ में निष्क्रियता का सहारा नहीं लिया। जैन धर्म में अहिंसा एक पवित्र व्रत है और इसे सर्वोपरि स्थिति की मान्यता दी गई है। बुद्ध धर्म में अहिंसा को उस सीमा तक नहीं माना गया है। वस्तुतः बौद्ध भिक्षुओं को ‘पिण्ड-पाट’ (भिक्षान्न) के रुप में प्राप्त मांसाहार खाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। बौद्ध धर्म जो पूरे विश्व में फैला है केवल शाकाहार पर अत्यधिक जोर नहीं देता है। परन्तु जैन धर्म में ऐसा नहीं है, जो वर्ण व्यवस्था का अनुसरण करते हुए केवल शाकाहार पर ही जोर देता है। जैन धर्म में दो प्रकार के व्रत है – एक अणु व्रत और दूसरा महाव्रत । दूसरा तीर्थंकरों, मुनियों और सन्यासियों के लिए है तथा पहला सामान्य जैन लोगों के लिए है।
सनातन धर्म में भी अहिंसा पर अत्यधिक जोर दिया गया है। किंतु क्या होगा यदि सन्यास धर्म के नियमों को गृहस्थियों पर लाद दिया जावे! एक सन्यासी सबको आशीर्वाद देने हेतु निर्देशित है, अग्नि रखना उसके लिए प्रतिबंधित है क्योंकि अग्नि हेतु वृक्षों को काटना पड़ता है और सामान्य रुप से खुले में आग जलाने से जगत को क्षति की संभावना है। यदि कोई अग्नि बनाये रखता है तो उसे इसमें आहुति देना पड़ता है और इसके लिए उसका गृहस्थ होना आवश्यक है। यंहा तक कि सन्यासी के अन्तिम संस्कार में भी अग्नि का उपयोग नहीं किया जाता, या तो उन्हे भूसमाधि दे दी जाती है या जल में उन्हे प्रवाहित कर दिया जाता है अथवा वायु में छोड दिया जाता है। इन सब तरीकों से अहिंसक रुप से संन्यासियों का अंतिम संस्कार संपन्न किया जाता है।
हमारी परम्परा में प्रत्येक आश्रम के निमित्त अहिंसा का पालन अलग अलग ढंग से निर्धारित किया गया है। इसलिए सीधे सपाट तौर पर यह कहना कि “बौद्ध तथा जैन धर्म की अहिंसा के दुष्परिणाम हुए है” आधार हीन है। संभवतः अशोक ने अहिंसा के वास्तविक मन्तव्य को समझा ही नहीं था। एक सम्राट के रुप ने जिस चरमसीमा तक उसने अहिंसा को अपनाया वह अनुपयुक्त था। एक समय में पूरा भारत, अशोक के शासनाधीन था आधुनिक इतिहासकारों के मत में उस सीमा तक का विस्तार मात्र मुगल शासक ओरंगजेब और ब्रिटिश साम्राज्य का ही रहा है। किंतु जिस प्रकार अशोक का साम्राज्य पत्तों कि घर के समान आसानी से ढ़ह गया उससे उसकी प्रशासकीय अक्षमता सुस्पष्ट हो जाती है। जब हम ‘सुत्त पिटक’ का अनुगमन करते है तो हमें बुद्ध की दूरदृष्टि के पूर्वानुमान का अनुभव होता है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.