युद्दभूमि में बडे बडे योद्दाओं द्वारा प्राण त्यागने वाले वीरों को प्राप्त ‘स्वर्गलोक’ की अवधारणा में सनातनधर्म और सेमेटिक धर्मो के मध्य मूलभूत अन्तर है। उदाहरणार्थ इस्लाम में शहीद को जन्नत मे विलासिता का सुखभोग जैसे बहत्तर हूरों के साथ शारिरिक भोग का आश्वासन दिया गया है। इसके विपरीत भारतीय परम्परानुसार हमें असंख्य ऐसे ‘वीरागल’, अर्थात् बलिदानी की स्मृति में खड़े किये गये प्रस्तर स्तंभ मिलते है जिनके तीन भाग होते है। आधारभाग में रणभूमि में योद्दा के शौर्य प्रदर्शन और उसके प्राण-त्याग का चित्रण उत्कीर्ण होता है, मध्य भाग में देवतागण उसे अपने स्वर्गिक वीमान में बैठा कर ले जाते है तथा शीर्षभाग में ‘वीरस्वर्ग’ में योद्दा भगवान विष्णु अथवा शिव के प्रति समर्पित होते हुए मोक्ष को प्राप्त होता है।
यंहा ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि श्रेष्ठतम लोक की प्राप्ति हेतु बलिदानी योद्दा तथा ज्ञानी महापुरुष को समान महत्त्व प्रदान किया गया है जैसा कि पाराशर स्मृति (3:30) से स्पष्ट है:-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्य-मण्डल-भेदिनौ ।
परिव्राड्योगयुक्त्तश्च रणे चाभिमुखे हतः ।।अर्थात्
पुरुष लोक (मानवसमाज) में इन दोनो का सूर्यमण्डल को भेदकर जाना सुनिश्चित है। एक योगारूढ़ सन्यासी तथा दूसरा शत्रू से रणभूमि में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त योद्दा
अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सैमेटिक धर्म का सच्चा समर्थक एक पक्का अंधानुयायी होता है जो साम्राज्यवाद एवं अन्य की पराधीनता में विश्वास रखता है जबकि सनातन धर्म का सच्चा समर्थक एक ज्ञानी संत महापुरुष होता है। इतिहास साक्षी है कि इन कट्टर अंधानुयायियों ने या तो ‘काफिरों’ का धर्मान्तरण करवाया है या उनकी हत्या कर दी – तदुपरांत अपने ही साथ के लोगों की हत्या करते रहें। वर्तमान के ईसवी युग (कॉमन एरा) से प्रारम्भ हुंई घोर अव्यवस्था की स्थिति आज भी सतत रुप से बनी हुई है।
प्रसिद्द विद्वान सीताराम गोयल का परीक्षणात्मक निष्कर्ष है कि सभी प्रमुख सिमेटिक धर्म तथा साम्यवाद वस्तुतः एक ही वैचारिक पिता की सन्तान है (उनके उपन्यास ‘सप्तशील’ की प्रस्तावना पढे) । भौतिकवादी विचारधारा के अनुसार मनुष्य की नैसर्गिक वृति भी पशुओं के समान होती है और उसका परिणामी लक्ष्य मात्र ऐन्द्रिक सुखभोग है। इसके अतिरिक्त्त संभवतः हमारे तथाकथित उदारवादी मित्र यह प्रश्न उठा सकते है कि ‘भले ही यह सारा इतिहास सत्य हो तो भी इसे इस समय प्रस्तुत क्यों किया जा रहा है? क्या इससे हमारे साथ रहनेवाले लोगों की भावना आहत नहीं होगी? इसका उत्तर अद्वितीय उपन्यासकार डा. एस. एल. भैरप्पा ने अपने श्रेष्ठतम उपन्यास ‘आवरण’ की प्रस्तावना में दे दिया है:- ‘यद्यपि भूतकाल के किसी अत्याचारी के कृत्यों के लिए वर्तमान में उसके वंशजों को जिम्मेदार ठहराया नहीं जा सकता है तथापि वंशजों का भी यह कर्त्तव्य है कि वे अपने पूर्वजों के बुरे कृत्यों को अपनाने की स्वीकार्यता का खण्डंन करे’।
इसे हम उदाहरण द्वारा पूरी तरह से समझ सकते हैं। एक बार हम डा. गणेश के साथ प्रत्येक समाज और संप्रदाय के ऐतिहासिक लोगों की चर्चा कर रहा थे। हिन्दू समाज ने उन संतो, धर्मगुरुओं और विद्वानों के प्रति भी पूर्ण आदर भाव दर्शाया जिन्होने सामाजिक कुरीतियों, रीति रिवाजों और सिद्दांतों की कमजोरियों की खुले आम आलोचना की है – चाहे वे आदिशंकराचार्य हों या विवेकानन्द, बसवण्ण हो या कबीर, स्वमी दयानंद हो या डा. अम्बेड़कर। इसके विपरीत मुस्लिम समाज उन गाज़ियों का सर्वादिक सम्मान करता हा जिन्होनो ‘काफिरों’ के विरुद्द ‘जिहाद’ किया। कितने मुसलमानों ने दाराशिकोह की याद में अपने पुत्रों का नामकरण किया? याद कीजिये उस ऊधम और होहल्ले को जब ‘ओरंगजेब रोड’ का नाम बदलकर ‘डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम’ रखा गया !! पाकिस्तान की मिसाइलों के नाम ‘बाबर’, ‘गजनवी’, ‘गौरी’, ‘टीपू’, ‘अब्दाली’ आदि ही क्यों है? क्या इन्ही आततायियों ने ही इनके पूर्वजों का सर्वनाश और धर्मान्तरण नही किया था? यदि हिन्दू सभ्यता व संस्कृति को संरक्षित एवं जीवित रखना है तो हमे इस कटुसत्य को समझना अति आवश्यक है।
‘क्षात्र’ – ‘द ट्रेडिशन ऑफ वेलर इन इंडिया’ संभवतः बृहतभारत के सैन्य इतिहास संबंधी अपने प्रकार का एक विशिष्ट, अनन्य एवं श्रेष्ठतम कार्य है। क्षात्र सिद्दांत की पूर्ण व्याख्या में सैन्य-शौर्य मात्र एक प्रमुख अंग है तथा अपने दार्शनिक आधार के कारण यह कार्य अपने नाम प्रकार का अतिक्रमण कर आगे बढ़ जाता है।
भारतीय सैन्य इतिहास पर श्रेष्ठ ग्रथों में:-
वी.आर.रामचंद्र दिक्षितर का ‘वार इन एनशिएंट इंडिया’, जदुनाथ सरकार का ‘मिलिटरी हिस्ट्री ऑफ इंडिया’, सर्वदमनसिंह का ‘एनशिएंट इंडियन वारफेयर’, यू.पी.थपलियाल का ‘वारफेयर इन एंनशिएंट इंडिया’ तथा ‘वार एण्ड वार टेक्टिक्स इन एनशिएंत इंडिया’ आदि ग्रंथ हैं। यध्वपि यह सभी ग्रंथ मूल प्रामणिक ऐतिहासिक जानकारी पर आधारित हैं तथा गम्भीर इतिहास के उच्च अकादमिक माणकों पर खरे है तथापि इनमें वैदिक धर्म की दार्शनिक धुरी का अभाव है। दूसरी ओर प्रस्तुत पुस्तक अत्यधिक सुगम रुप से पठनीय और दार्शनिक आधार युक्त्त है। इस प्रकार के कार्य की कल्पना डा. गणेश जैसे अतिदक्ष बहुमुखी प्रतिमा संपन्न व्यक्त्ति ही करने में सक्षम है। वे इस तथ्य को स्पष्टतः समझाते है कि किस प्रकार व्यावहारिक स्तर पर धर्म के संरक्षण एवं सुरक्षा हेतु क्षात्र क्रियाशील होता है।
मूल रुप से कन्नड़ भाषा में लिखी यह पुस्तक अपने द्वितीय संस्करण के साथ आज भी सर्वोत्तम बिकने वाली पुस्तक है । मात्र अंग्रेजी जानने व पढ़नेवोले मध्यम वर्गीय हिन्दुओं की वृद्दि तथा प्रसार को दृष्टिगत रखते हुए इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद एक आवश्यकता थी। सन् 2017 से ‘प्रेक्षा’ नामक आनलाइन पत्रिका में धारावाहिक शृंखला के रुप में इसे प्रकाशित करने का उपक्रम प्रारभ किया गया था जो अब इस पुस्तक है।
यह न तो कोई पाठ्य पुस्तक है और न ही उससे संबंधित इतिहास के विशिष्ट काल का चित्रण – यद्यपि इस कार्य की रचना में उच्च पांडित्य परिलक्षित है। यह पुस्तक भारतीय शौर्य परम्परा के इतिहास को सहज भाषा में अनौपचारिक कथाप्रसंगों के रुप में एक सामान्य पाठक के समक्ष प्रस्तुत करती है। वस्तुतः यह पुस्तक जन सामान्य के लिए ही है। इसके अनेक उपखंड अपने आप में पूर्व हैं तथा पाठक को हर पृष्ठ पर कुछ न कुछ रुचिकर भावप्रधान जानकारी स्वतंत्र रुप से मिल सकती है।
हमारे लिए इस पुस्तक का अनुवाद कार्य आनंददायक, रोमांचक तथा शुभेच्छा प्रेरित आत्म संतोष युक्त्त अनुभव रहा है। इसे हम अंगेजी ‘रुपान्तरण’ कह सकतो है क्योंकि अनुवादक के रुप में हमने कुछ स्वतंत्रता डा. गणेश के सतत मार्गदर्शन में ली है। आवश्यकतानुसार हमने कुछ स्थानों पर अतिरिक्त्त टिप्पणियॉ जोड़ी है।
यह पुस्तक अनेक पाठकों के लिए आंख खोल देने वाला अनुभव होगा। अपने पूर्वजों के प्रति निश्चय ही सम्मानभाव जागृत होगा। इस छोटी सी पुस्तक में स्वतंत्र रुप से बडे अनुसंधान ग्रंथों की संभावनी विद्यामान है। हम आशा करते हैं कि प्रत्येक हाइस्कूल विद्यार्थी इसे पढ़कर अपनी गौरवशाली धरोहर पर गर्व कर सके। आज के क्षत्रिय – हमारी सेना के वीर जवान, सीमासुरक्षा बल, कानून बनाने तथा उसका परिपालन कराने वाले – सभी लोग इसके अध्ययन से लाभान्वित हो सकते हैं।
जिस आदर्श से प्रेरित होकर यह कार्य किया गया है उसकी अंशमात्र प्राप्ति में भी हमें अपने कार्य-साफल्य का पूर्ण संतोष होगा।
वृषा त्वा वृषणं हुवे वज्रिञ्चित्राभिरुतिभिः ।
वावन्थ हि प्रतिष्टुतिं वृषा हवः ।। ऋगवेसंहिता 8.13.33
संदीप बालकुष्ण
हरि रविकुमार
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.