ब्राह्म और क्षात्र का समन्वय
वैदिक काल से ही भारतीय परम्परा में ब्राह्म (ज्ञानभाव) एवं क्षात्र (शौर्यभाव) के समन्वय को एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त है। वैदिक साहित्य में ब्राह्म तथा क्षात्र की धारणा को जाति की संकुचित परिधि में बांधना उचित नही होगा जो मात्र एक जन्मगत संयोग है। ब्राह्म और क्षात्र के यह दो सिद्दांत समाज को अग्रगामी बनाते हैं। यह श्रेष्ठता के वे प्रतीक हैं जो समाज के सभी वर्गों तथा स्तरों से प्रकट हो सकते हैं। अतः वास्तविक रुप में ब्राह्म और क्षात्र के प्रामाणिक मूर्तरुप सदा से कम पाये जाते है। यह ठीक ऐसा ही है कि जैसे दूध की बडी कढ़ाई में छिपा हुआ थोड़ा सा मख्खन।
सत्व, रजस और तमस का प्रभाव
सामान्यत: किसी भी काल अथवा देश में अधिकांश लोगों को शांति तथा संतोष का अभयारण्य चाहिए किंतु ऐसे लोगों की यह विशिष्ट मानसिकता होती है कि वे इसे बिना प्रयास पाना चाहते हैं अतः यह कहना असत्य न होगा कि व्यावहारिक स्तर पर समाज में ‘तमस’ (अज्ञान युक्त्त-सुषुप्ती) का बाहुल्य होता है। तमस के मुख्य संकेत आलस्य तथा तर्क-संगत सोच का अभाव है। यंहा अंहभाव की संभावना कम होती है अतः आलस्य युक्त्त तमस से विश्व को अधिक संकट नहीं होता है। तथापि तामसिक जीवन पशुसमान जीवन से ऊपर नहीं उठ पाता है।
रचनात्मक कार्य, संपदा का अर्जन और इन दोनों के प्रबंधन का कौशल एवं योग्यता तमस से ही उद्गमिंत होना है, इसे हम स्थूल तौर पर ‘रजस’ (अनवरत-सक्रियता) कह सकते हैं। ‘सत्त्व’ (सदगुण-युक्तता) सभी सकारात्मक मानदण्ड़ों की पूर्णता है, जैसे कि ज्ञान, विवेक, संवेदना और करुणा।
दक्षता, प्रयास, संपदा, सफलता, अधिकार तथा भोग संलिप्तता के कारण यह स्वाभाविक है कि रजस व्यक्त्ति का अहंभाव बढ़चा है। अपने सामर्थ्य के कारण ऐसे रजस स्वंय तथा अपना पूरे परिवेश के लिए दुख का कारण बनते हैं। रजस का मूल्यविहीन सामर्थ्य युक्त्त जीवन यद्यपि तमस युक्त्त पशुसमान अस्तित्त्व से अच्छा लग सकता है तथापि स्वंय को ही क्षति पहुंचाने वाले आंतरिक अहंकारी स्वभाव के कारण रजस युक्त्त जीवन बहुत घातक हो सकता है।
पतन के संकट से बचने हेतु रजस के समक्ष सत्त्व का मार्ग निर्देशन पाने के अतिरिक्त्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। जिस प्रकार समाज के संपूर्ण तमस की रजस में पूर्णतः शुद्धि नहीं की जा सकती, उसीप्रकार समाज में पूरे रजस का सत्त्व में उन्नयन नहीं हो सकता है। यदि तमस, रजस के अधीन हो तथा रजस, सत्त्व के अधीन हो तो निस्सन्देह अशांतिपूर्ण गतिविधियों को बहुत कम किया जा सकता है। हजारों वर्षों से यह विश्व इसी प्रकार चला आ रहा है।
वैश्विक घटनाओं का निरिक्षण करते हुए भूतकाल में महान ऋषियों ने समाज के लोगों का निम्नानुसार वर्गीकरण किया :-
विश :- मुख्यतः तमस से परिचालित लोग
क्षत्र :- मुख्यतः रजस युक्त्त लोग
ब्रह्म :- कुछ विरले लोग जिन्होने सत्त्व द्वारा स्वंय को आध्यात्मिक रुप से उन्नत कर लिया है।
व्यावहारिक स्तर पर सामान्यतः समाज मूलतः विश वर्ग का होता है। आदर्श रुप में इस वर्ग का उन्नयन क्षात्र वर्ग में होता है और क्षात्र वर्ग भी ब्रह्म में उन्नत होता है।
विश एक प्राकृतिक फल की तरह है, क्षत्र उस फल का शोधन कर उसके रस निकालने की प्रक्रिया है तथा ब्रह्म यह सुनिश्चित करता है कि (i) फल का रस खट्टा होकर मद्य न बने और (ii) फल का लाभ सामंजस्य पूर्ण वितरण द्वारा पूरे समाज को प्राप्त हो।
जब हम ब्रह्म और क्षत्र नामक संज्ञाओं को उनके विशेषण रुप ‘ब्राह्म’ और ‘क्षात्र’ में बदलते है तो यह सिद्धांत सुस्पष्ट होता है और समाज में जन्माधारित ऊंच-नीच का अन्तर सार्थक रुप से घटता है।
सत्त्व, रजस और तमस जो ब्रह्म, क्षत्र तथा विश के मूल आधार हैं वे स्वतंत्र स्थिति में नही रह सकते, मानवीय व्यवहार तथा सांसारिक गतिविधियों में इन तीनों का सम्मिश्रण होता है [1]।
उपर्युक्त्त समीक्षा से स्पष्ट है कि जो नेतृत्त्व एवं दृष्टिकोण ब्राह्म और क्षात्र में मध्य विवाद उत्पन्न न करता हो वह समाज के अधिसंख्य विश के लिए सदैव शांतिपूर्ण परिवेश प्रदान करता है।
जब हम विश्व के इतिहास का अध्ययन करते हैं तो सब देश एवं काल में उपर्युक्त्त सिद्धांत को हम सक्रिय पाते हैं। सनातन धर्म की विशेषता रही है कि उसमें (1) मूल सिद्धांतों की सुव्यवस्थित व्याख्या (2) मूलभूत मान्यताओं पर आधारित एक प्रभावशाली संस्कृति का निर्माण, पोषण तथा विकास तथा (3) इसके माननेवालों की सुखशांति तथा कल्याण को हजारों वर्षों तक सुनिश्चित किया गया है।
यही कारण है कि भारतीय समाज में अधिसंख्य विश के कल्याणार्थ आदर्श रुप में ब्राह्म-क्षात्र समन्वय को मूर्त रुप देने वाले महापुरुषों को सर्वोच्च सम्मान दिया गया है। वेदों में ब्राह्म-क्षात्र समन्वय के मूल प्रतीकों को जुड़वा – देवताओ के रुप में – जैसेकि इन्द्र – अग्नि, मित्र – वरुण, इन्द्र – बृहस्पति, अग्नि – सोम इत्यादि के रुप में दर्शाया गया है। पौराणिक तथा आगमिक काल में यही प्रतीक शिव – स्कंद के रुप में है।
इन अमूर्त्त सिद्धांतों का व्यावहारिक प्राकट्य तथा प्रभाव भारत के पौराणिक सहित्य और इतिहास में परिलक्षित है। ऋषि वशिष्ठ तथा विश्वामित्र के मार्गदर्शन में राम ने एक सुखी, शांत तथा समृद्द साम्राज्य की स्थापना की थी। उसी प्रकार पाण्ड़वों ने भी कृष्ण औऱ महर्षि व्यास के निर्देशन में धार्मिक सिद्धांतों के आधार पर एक बड़े साम्राज्य को प्रशासित किया था। यही कारण है कि यह महापुरुष अमरता प्राप्त करके सदा जनमानस मे रहे है ।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]ब्रह्म, क्षात्र और विश से ब्राह्मणों, क्षात्रियों तथा वैश्यों का उदय हुआ। कालान्तर में एक चौथा वर्ग शूद्र जुडकर चार वर्ग बने। ब्राह्मण वह व्यक्त्ति है जिसकी नैसर्गिक वृत्ति अध्ययन, अध्यापन, अनुसंधान, विश्लेषण तथा प्राकृतिक रहस्यों को उद्घाटित करने की होती है। क्षत्रिय की नैसर्गिक वृत्ति संघ्रर्ष, शासन-प्रशासन, राजनीति और व्यवस्था करने की होती है। वैश्य की नैसर्गिक वृत्ति व्यापार, खेती, कौशल युक्त्त श्रम, पशुपालन तथा अर्थोपार्जन करने की होती है। शूद्र की नैसर्गिक वृत्ति शारीरिक श्रम तथा सेवा की होती है तथा वह अन्य तीनों वर्णों के विशिष्ट रुप से सहायक होता है।