चाणक्य कोई धर्मान्ध व्यक्ति नहीं था। वह स्वयं आसानी से सिंहासन पर बैठ सकता था जैसा कि उन दिनों ब्राह्मणों का राजा बनना प्रचलन में था। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद पुष्यमित्र शुंग और उसके वंशज शासक बने और उनके उपरांत काण्व लोगों ने राज किया। यह सभी ब्राह्मण थे। चाणक्य ने पद प्रतिष्ठा की कभी परवाह नही की। उसका दूरदृष्टि पूर्ण लक्ष्य ब्राह्म और क्षात्र के समन्वय द्वारा देशवासियों के कल्याण के सुनिश्चित करना था।
इस पृष्ठभूमि में जब हम अपने देश की वर्तमान स्थिति का विवेचन करते है तो हम अनुभव करते हैं कि हमारे देश का बुद्धिजीवी वर्ग राष्ट्र के कल्याण के संबंध में न तो गंभीर रुप से चिंतित है और न वह राष्ट्र निर्माण के किसी कार्य में सक्रिय रुप से जुडा हुआ है। केवल कुछ अपवाद हो सकते है। कुछ पद और विशिष्ट स्थान बुद्धिमान व्यक्तियों के लिए ही संरक्षित होते है किंतु उन्हे भी ऐसे लोगों से भर दिया गया है जिनमें बुद्धि तथा समझदारी की कमी है अथवा तो वे विक्षिप्त सोच रखते है। इसके उदाहरण के रुप में हमारी शैक्षणिक संस्थाएँ, विश्वविद्यालय, शासकीय सहायता प्राप्त संगठन, सांस्कृतिक केन्द्र तथा ऐसे अन्य संस्थान आते है जंहा से हमारी परम्पराओं, संस्कृति और विरासत पर एक सोची समझी रणनीति के तहत निरंतर आक्रमण करते हुए इन्हे नष्ट करने का प्रयास किया जाता रहा है।
सन् 1947 के पूर्व हमारी सांस्कृतिक पहचान के पुर्नस्थापन के प्रयास में साहित्य, कला, दर्शनशास्त्र, आयुर्वेद आदि के क्षेत्र में अनेक क्रांतिकारी प्रयास होते रहे और इस प्रकार के प्रत्येक प्रयास में अपने मूल, उद्गम और अस्मिता को समझने की कोशिश होती रही है। दृश्य कला का क्षेत्र भी इससे अछूता नही रहा। कलकत्ता के शासकीय कला केन्द्र में जंहा एक ओर पर्सी ब्राउन युरोपियन कला पर जोर दे रहे ते वहीं अर्नेस्ट हेवल छात्रों को भारतीय कला रुपों को सीखने हेतु प्रोत्साहित कर रहे थे और भारतीय कला रुपों को अध्ययन की आवश्यकता पर बल दे रहे थे। अवनीन्द्रनाथ टेगोर जो इसी कलाकेन्द्र की एक प्रतिभा थे और बाद में उपकुलपति बने, ने प्रभावित होकर अपने छात्रों को भी प्रेरित किया – जिनमें नंदलाल बसु, जेमिनी रॉय और असित कुमार हलधर मुख्य रुप से इसके पथगामी हुए। अजन्ता की चित्रकला, सन्थाल कला शैली, भारत के विभिन्न क्षेत्रों की कला शैलियों को एक साथ लेते हुए उन्होने ‘बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट्’ स्थापित किया । कर्नाटक के प्रसिद्ध चित्रकार के. वेंकटप्पा इसी स्कूल से प्रशिक्षित हैं। यंहा की कला का प्रारम्भिक जापानी कला से अत्यधिक साम्य है विशेषकर वाटर-कलर चित्रकारी में। जापानी लोगों ने भी कला के माध्यम से अपनी पहचान को पुनर्जीवित किया था। भारत के प्रमुख उपन्यासकार डा. एस.एल. भैरप्पा अपनी आत्म कथा ‘बित्ति’ में लिखते है - “हर देश की अपनी एक भाषा होती है, चीन की भाषा नीतिशास्त्र था, अमेरीका की भाषा प्रौद्यौगिकी है, युनाइटेड़ किंगडम की भाषा परम्परा है, जापान की भाषा कला है और भारत की भाषा धर्म है”।
भारतीय कला रुपों की प्रगति में सिस्टर निवेदिता एक प्रमुख प्रेरणा स्त्रोत रही है। उनका मूलनाम मार्गरेट नोबल है और वे एक युरोपियन महिला थी जो स्वामी विवेकानन्द से प्रभावित हो कर भारत में आई थी। उस समय तक श्रीलंका के कला इतिहासज्ञ और विद्वान आनन्द केन्टिष कुमारस्वामी ने विश्व पटल पर अपनी विद्वतापूर्णँ शोध द्वारा भारतीय कला को विस्तृत रुप से प्रस्तुत कर दिया था। वर्तमान के चित्रों से संबंधित कहानियों को इतिहास और पुराण से खोज कर सिस्टर निवेदिता ने आनन्द कुमारस्वामी के साथ मिलकर एक पुस्तक का प्रकाशन किया जिसका आरेखन कार्य बंगाल स्कूल आफ आर्ट् द्वारा किया गया था।
इस विषयान्तर करने का मुख्य कारण यह दर्शाना है कि 1940 ई. के पूर्व में भी कला माध्यमों द्वारा राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान को स्थापित करने के प्रयास होते रहे हैं। बाद में कलाकारों का एक ऐसा समूह तैयार हुआ जिसका एक मात्र उद्देश्य ऐसे राष्ट्रीय कला प्रयासों का विरोध करना था। ऐसे ही समूह का एक सदस्य एम.एफ. हुसैन था। राष्ट्रीयता और देशभक्ति के विरुद्ध संघर्ष करने के एकमात्र उद्देश्य से वह आगे आया। पिछले कुछ वर्षों में एम.एफ,हुसैन द्वारा अश्लील ढंग से भारतमाता, सरस्वती, सीता, दुर्गा तथा अन्य हिन्दू देवताओं का चित्रण करने के कारण बहुत हल्ला भी मचा था। उसने अक्सर इन्हे हिंसक तथा जंगली रुपों में प्रस्तुत किया है। इनमें से अनेक चित्र तीन दशक पूर्व के है जिनका बीजारोपण उससे भी तीन दशक पूर्व हो चुका था। ऐसी विकृत मानसिकता साठ वर्ष पूर्व से सक्रिय है। इन तथाकथित आधुनिकतावादियों तथा प्रगतिवादियों का एकमात्र उद्देश्य उन सभी मूल्यों का नाश करना है जिनका यंहा परम्परागत सम्मान है।
सामान्य रुप से देखने में आता है कि तीन समुदायों में राष्ट्रीय भावना का अभाव है। क्रिश्चियन, मुसलमान और साम्यवादी लोग। वे लोग अपनी विचार धारा से इतनी गहराई से जुड़े है कि उनके लिए देशहित गौण हो जाता है। साम्यवादियों के लिए कार्ल मार्क्स उनका पेगम्बर है, धर्म का विरोध उनका अंध सिद्धांत है, हिंसा उनका देव है, और दास-केपिटाल् उनका आराध्य ग्रंथ है।
राज्य और क्षेत्रीय समन्वय
गणतांत्रिक व्यवस्था की मुख्य समस्या उनके मध्य सतत संघर्ष थी। अपने संकुचित दृष्टिकोण के कारण, जब उन पर बाह्य आक्रमण का संकट आया तो वे आपस में एक हो कर उसका सामना कर पाने में विफल रहे। अतः एक साम्राज्य आवश्यक है। किंतु एक बडे साम्राज्य में स्थानीय तथा क्षेत्रीय पहचान का अस्तित्त्व में बने रहपाना कठिन है। एक आदर्श साम्राज्य में बृहद्राष्ट्र के साथ साथ स्थानीय दृष्टिकोण पर भी ध्यान देना आवश्यक है। किंतु इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? यह वर्तमान समय की भी एक प्रमुख समस्या है। आजकल हर चींज का वैश्वीकरण हो रहा है जो हमें भ्रामक स्थितियों में पटक देती है। यह समझना कठिण हो रहा है कि किस को अपनाऐं और किसे त्यागे ? स्थानीय बने रहना भी एक बड़ी समस्या बन गई है। ‘किस प्रकार हम अपने स्वत्व को बनाये रखें’ यह प्रश्न हर किसी को परेशान कर रहा है। बिना स्वयं की पहचान हम कैसे रह सकते हैं ? वैश्वीकरण की बाढ़ में हमारे बह जाने का संकट आ गया है। इस समय, इस समस्या का हल संभव नही है और नही हम इसकी उपेक्षा कर सकते है। ते फिर इस समस्या का क्या निदान है?
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.