जितनी स्वतंत्रता की आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता हमें संयम और आत्मानुशासन की भी है। जब हम नियंत्रणों का सम्मान करना जान लेंगे तब ही हमे अधिकार और सुविधाएँ प्राप्त हो सकती है। निरंकुश स्वतंत्रता, अनियंत्रित इच्छाविलास, मनमौजी सनक लम्बेसमय तक उपयोगी सिद्ध नही हो सकती है। इसका अनुभव हम भारत पर सिकंदर के आक्रमण के प्रसंग में देख चुके हैं। पौरव (ग्रीक वर्णनानुसार पोरस) सिकंदर से हार गया था। ऐसा कहा जाता है कि पौरव एक गणतंत्र का अधिपति था यद्यपि इसमें कुछ अनिश्चितता है। ऐसी कहानियॉ है कि सिकंदर ने उसके साथ मित्रवत व्यवहार किया था। ग्रीक वर्णन पर कितना भरोसा किया जाय यह एक प्रश्न है। ऐसा प्रतीत होता है कि सिकंदर ने पोरव से मित्रता कर उसका सम्मान उसे वापस प्रदान कर दिया । किंतु वह अपने पीछे अपनी सेना तथा सेनापति गणों को बाह्लिक-देश (बेक्ट्रीया) तथा अन्यस्थानो पर (आज के बलुचिस्तान, अफगानिस्तान, कंधार आदि) पर छोड़ गया था तथा अपने उत्तराधिकारी को नामांकित कर गया था । वह अपनी विजय यात्रा के मध्य ही मर गया। हम जानते है कि मद्र राज्य के आंबी ने उसके समक्ष पूर्ण समर्पण कर दिया था। इस प्रकार सिकंदर ने भारत के अनेक शासकों को युद्ध, राजनीति, मैत्री तथा कूटनीति से जीत लिया था।
चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य
नंद वंश के शासन काल में प्रशासन कुछ सीमा तक भ्रष्ट तथा कदाचरण युक्त था। इस बुराई को दूर करने हेतु एक सशक्त बल के रुप में चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय हुआ। हमारे अभिलिखित इतिहास में चन्द्रगुप्त क्षात्र का एक ज्योतिर्मय उदाहरण है। हिंदू, जैन तथा बौद्ध साहित्य में इसके अनेक विवरण पाये जाते हैं। कुछ लोगों के अनुसार सर्वार्थसिद्धि नामका एक राजा था जिसके पुत्र का नाम मौर्य था और उसका पुत्र चन्द्रगुप्त था, ऐसी भी कहानियॉ है कि मौर्य के सौ-पुत्र थे किंतु इस पर विश्वास कर पाना कठिन है। इस संबंध में बौद्ध-विवरण सत्य के निकट प्रतीत होते हैः- चन्द्रगुप्त मयूरक समुदाय के राजा पिप्पलवन का पुत्र था। प्राकृतभाषा का शब्द ‘मोरिया’ संस्कृत में ‘मौर्य’ हो गया। मूल रुप में यह ‘मयूरक’ था। प्रत्येक राजवंश में कोई पशु अथवा पक्षी प्रतीक चिन्ह के रुप में होता है और पिप्पलवन राजा का राजप्रतीक चिन्ह मयूर था।
संस्कृत में मौर्य शब्द की उत्पत्ति बहुत रोचक है। ऐसी कहानियॉ है कि राजा सवार्थसिद्धि की दो पत्नियॉ थी – बडी का नाम सुनन्दा था और वह नौ नंदों की माता थी, दूसरी का नाम मुरा था जो मौर्य की मां थी। मौर्य के पुत्रों में से एक चन्द्रगुप्त था। किंतु संस्कृत व्याकरण के अनुसार ‘मुरा’ से ‘मौर्य’ की उत्पत्ति अस्वीकार्य है। मौरि, मौर तथा मौरेय आदि तो हो सकते है किंतु मौर्य नहीं। तब ‘मौर्य’ कंहा से आया? ‘मुरा’ का पुलिंग रुप मौर या मौर्य हो सकता है किंतु वह संज्ञा जो ‘मुरा का पुत्र’ के अर्थ को व्यक्त करती है वह मौर्य नही होगी। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुच सकते हैं कि मौर्य शब्द घने जंगलों में निवास करने वाले ‘मयूरक’ समुदाय से आया है। यह बारबार देखने में आया है कि मात्र जन्म संयोग से कोई क्षत्रिय नही बन जाता है, इसके लिए इस वर्ण के गुणों का होना आवश्यक है।
मयूरक समुदाय के राजा की मृत्यु के समय रानी का पुत्र चन्द्रगुप्त किशोर था। अपने पति की मृत्यु के उपरांत रानी अपने पुत्र चन्द्रगुप्त के साथ कुसुमपुर अर्थात् पाटलिपुत्र (आज का पटना) चली गई। वंहा खेलते हुए चन्द्रगुप्त पर आचार्य चाणक्य की नजर पड़गई। जब उन्होने पाया कि चन्द्रगुप्त में वह सभी चारित्रिक गुण है जो एक राजा बनने हेतु चाहिए तो वे उसे तक्षशिला लेगये और वंहा उन्होने चन्द्रगुप्त को सभी प्रकार की विद्याओं में प्रशिक्षित किया । बौद्ध साहित्य से ज्ञात हो ता है कि बचपन से ही चन्द्रगुप्त राजा के रुप में खेला[1] करता था। इस खेल में वह स्वयं राजसिंहासन बने स्थान पर बैठता और उसके मित्रगण अपराधी, मंत्री, सेनापति आदि की भूमिका निबाहते थे। बहुत कम लोगों में जन्मजात रुप से राजा बनने के लिए आवश्यक साहस, मनोबल, उदारता आदि के चारित्रिक गुण पाये जाते है। मात्र क्षत्रिय परिवार में जन्म लेने से व्यक्ति में यह गुण नही आजाते हैं। यद्यपि कुछ इन गुणों के साथ जन्म ले सकते है किंतु अन्य को अपने अध्ययन और निरीक्षण व्दारा ही सीखना पड़ता है।
चन्द्रगुप्त ने अपना उन्नयन स्वयं की योग्यता और परिश्रम द्वारा ही किया। ऐसे लोग जंहा भी रहे, किसी भी परिस्थिति में हो, अपने स्तर को ऊंचा कर लेते है। वे समाज के ऊंचे पद पर प्रतिष्ठा पाते है, अति महत्त्व पूर्ण निर्णय करने की शक्ति प्राप्त कर लेते है तथा अपने परिवेश के लोगों के विकास में मुख्य भूमिका निभाते है। राजसी समुदाय तथा उन्नत वंश परंपरा में अनेक बाते स्वयंसिद्ध मान ली जाती है किंतु एक साधारण पृष्ठभूमि के व्यक्ति को अपनी उन्नति की राह पर अपने प्रयासों के अनमोल अनुभव प्राप्त होते है जिससे महानता प्राप्ति की संभावना उसमें अधिक होती है। विशाखादत्त ने अपनी संस्कृत की कृति मुद्राराक्षस में तथा केम्पुनारायण ने अपनी कन्नड़ कृति मुद्रामंजुष में बहुत ही रोचक विविदता के साथ चन्द्रगुप्त की शक्ति के अभ्युदय का वर्णन किया है। इतिहासकार इन कृतियों को पूर्ण तथा सत्य नहीं मानते है। फिर भी यह निर्विवादित है कि चन्द्रगुप्त के परामर्शदाता के रुप में चाणक्य की भूमिका अति महत्त्व पूर्ण थी।
यंहा हमें शुक्ल यजुर्वेद के शब्दो[2] का पुनः स्मरण करना चाहिए – ‘ब्रह्म तथा क्षात्र का समन्वय आवश्यक है, समाज के लिए दोनों की आवश्यता होती है’। समझदार और शौर्यवान – बुद्धि और बाहुबल – जनकल्याण के लिए कार्य करना चाहिए। शताब्दियों से सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक रुप से सनातन धर्म का यही यथार्थवादी परम्परागत दृष्टिकोण रहा है। एक बुद्धिमान व्यक्ति को अपने देश के लोगों की सेवा करने के लिए एक सीमा तक निस्वार्थ होना चाहिए। यही बात एक साहसी और शक्तिशाली व्यक्ति के लिए भी है। देश हित में इन दोनों का सह अस्तित्त्व के साथ सामंजस्यपूर्ण कार्य करना आवश्यक है। बुद्धिमान और बलवान का निस्वार्थ होना एक सामाजिक उत्तरदायित्त्व है।
जब कोई देश या समाज अपनी अस्मिता और आत्मगौरव खो देता है तब उसका पतन और विनाश प्रारम्भ हो जाता है। चन्द्रगुप्त ने अपने प्रयासों से ऐसे पतन को रोक दिया। चाणक्य ने अपने शिष्य को समाज की अस्मिता जागृत करने का प्रशिक्षण दिया था। चाणक्य ने जो प्रशिक्षण चन्द्रगुप्त को दिया था वह कोई कवि की कल्पना नही है अपितु एक तथ्य है। हिंदू, जैन और बौद्ध ग्रंथों में चाणक्य के अनेक प्रसंग आते हैं। आश्चर्य होता है कि वे सब चाणक्य को अपना मानने का दावा करते है[3]।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]मूल प्राकृत बताते है ‘राज-कीळं कीऴन्ति’
[2]यत्र ब्रह्म च क्षत्त्रं च संयञ्चौ चरतः सह (शुक्ल-यजुर्वेद 20.25)
[3]जैन साहित्य में चाणक्य को जैन बतलाया गया है। बौद्धों के अनुसार चाणक्य तो बौद्ध नहि थे | अशोक के एक मंत्री राधागुप्त चाणक्य का पौत्र था। वो ये कहते है कि वो एक अधम ब्राह्मण थे | इससे अशोक का बौद्ध होने का महत्त्व बडाने का प्रयत्न किया गया है | इतिहासकारों अनुसार ये सब कल्पित कथायें है |