क्षात्र की आवश्यकता समुचित रुप से युद्ध तथा शांति, दोनो समय में होती है। इसके अनेक उदाहरण हम अपने देश के भूतकाल में देख सकते है। इसी क्षात्र के दर्शन महाभारत काल में कृष्ण और अर्जुन में होते है। युद्ध तथा शांति काल मे इसी प्रकार के क्षात्र संतुलन के दर्शन हम चन्द्रगुप्त मौर्य, पुष्यमित्र शुंग, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमारगुप्त, स्कंदगुप्त, पुलकेशी, शीलादित्य हर्षवर्धन, भोज, राजराज चोल, राजेन्द्र चोल, बुक्कराय, प्रौढ़देवराय, कृष्णदेवराय तथा छत्रपति शिवाजी में पाते हैं। इसे एक उच्च आदर्श माना गया है। हर किसी ने इस आदर्श के अनुसार जीवन को ढालने का प्रयास किया है।
इतिहासकारो ने सर्व सहमति से स्वीकार किया है कि गुप्तकाल में सनातन धर्म का सर्वांगिण विकास हुआ था तथा इसें स्वर्णिम युग के रुप में माना गया है। सभी मान्यताओं को आदर्शरुप प्रदान कर एक सही मार्ग निर्धारण के मानकों का निर्माण किया गया। यह प्रारुप मान्यताओं के ठोस आधार पर निर्मित किया गया। यह शक्ति, औदार्य, उच्च गुणक्ता, सहयोगात्मक संबंधों, समृद्धि, अच्छाई तथा विवेक पर स्थित था।
बृहदारण्यक उपनिषद में मैत्रैयी-ब्राह्मण में ऋषि याज्ञवल्क्य का मैत्रैयी के साथ संवाद निम्नानुसार है –
ब्रह्म को भी उसके ब्रह्मत्व के कारण प्रेम नहीं किया जाता है किंतु स्वयं के हेतु से प्रेम किया जाता है[1]
यदि श्रुति में ऐसा कहागया है तो हमें अपने ऋषियों के विश्वास और साहस की सराहना करना होगी।
‘परम सत्ता को उसके कारण नही अपितु स्वयं के हेतु के कारण प्रेम किया जाता है’ – यह दार्शनिक सत्य उभर कर अनुभव में आता है। यह अनुभूति शाश्वत है तथा आनन्द युक्त है। इस पृष्ठभूमि में हम देखते हैं कि सनातन धर्म में जो व्यक्ति की स्वतन्त्रता को अत्यधिक महत्ता प्रदान की है उसकी प्रखर अभिव्यक्ति गुप्तकाल में हुई है।
गुप्त सम्राटों द्वारा समृद्धि प्राप्ति
राहुल सांकृत्यायन जैसे प्रबुद्ध विद्वान ने भी गुप्त वंश के विरोध में पूर्वाग्रहों को पाल रखा था। यद्यपि मेरे मन में उनके प्रति बहुत सम्मान है तथापि अनेक विषयों में मै उनसे असहमत हूं। यंहा तक कि अपनी कहानियों तथा उपन्यासों में भी उन्होने गुप्त वंश के प्रति अपनी धृणा व्यक्त की है। उन्होने गुप्त साम्राज्य पर आधारित ‘जय योधेय’ नामक उपन्यास लिखा है जिसमें वे लिखते है कि गुप्त सम्राटों ने अपनी प्रजा का शोषण किया था। अन्य स्थानों पर वे बौद्ध स्त्रोतों की अतिशयोक्ति पूर्ण प्रशंसा करते हैं। बौद्ध भिक्षु फाहियान दस वर्षों तक भारत में रहा तथा उसने सन् 401 से 411 ईसवी तक पूरे देश का भ्रमण किया। वह उज्जैयनी भी गया था जंहा चन्द्रगुप्त प्रथम का शासन था तथापि उसके यात्रा विवरण में कहीं भी चन्द्रगुप्त के नाम का संदर्भ तक नहीं है। किंतु उसने गुप्त साम्राज्य के सभी पक्षों का वर्णन किया है। उसे चन्द्रगुप्त से न तो किसी प्रकार का सहयोग अथवा पुरस्कार प्राप्त हुआ था। गुप्त साम्राज्य का वर्णन करते हुए वह लिखता है कि चोरों का बिल्कुल भी भय नही था, शासकीय कर्मचारियों द्वारा प्रजा को कभी सताया अथवा परेशान नहीं किया जाता था, प्रमुख मार्ग सुरक्षित थे, यात्रियों तथा सार्थवाहों को सभी सुविधाऍ उपलब्ध थीं।
फाहियान के दो सौ वर्षों पश्चात एक अन्य बौद्ध तीर्थ यात्री ह्वेन त्सांग, शिलादित्य हर्षवर्धन के शासन काल में आया था। उसने लिखा है कि कैसे अनेक स्थानों पर वह चोरों का शिकार बना। उसने विद्रोहियों द्वारा मचाये गये उन्मुक्त उत्पातों का अभिलेखन भी किया है। वह कर्नाटक में पुलकेशी द्वितीय के साम्राज्य की यात्रा पर भी गया था तथा वह लिखता है कि पुलकेशी का शासन श्रेष्ठतम था और वंहा प्रजाजन दरवाजों पर बिना सांकल लगाये भी रात को शांति से सो सकते थे। इन सब तथ्यों की जानकारियॉ होते हुए भी, राहुल सांकृत्यायन तथा बाद के इतिहासज्ञ जैसे आर. एस. शर्मा, रोमिला थापर, इरफान हबीब आदि ने गुप्तवंश के प्रति अपना घृणा भाव बनाये रखा। इसका कारण सुस्पष्ट है। गुप्त लोग सनातन धर्म के परम अनुयायी तथा प्रोत्साहित करने वाले थे। गुप्त साम्राज्य काल में भारत अपने सर्वागिण समृद्धि के शिखर पर पहुंच गया था और आज भी उस समय की संस्कृति हमें एकता के सूत्र में बांधे हुए है। यह साम्यवादियों की ऑखों में स्वाभाविक रुप से खटकता है।
किसी भी देश की समृद्धि को उस देश की टंकित मुद्रा द्वारा परखा जा सकता है। सिक्को की धातु की गुणक्ता से उस देश की आर्थिक स्थिति की पहचान हो सकती है। वर्तमान में हमारे देश को टंकित सिक्कों से यह स्थिति स्पष्ट की जा सकती है । कुछ समय पहले तक निकल धातु के सिक्के बनते थे जो मूल्यवान थे। किंतु अब स्टेनलेस स्टील धातु का उपयोग होता है तथा सिक्कों का आकार तथा भार भी घटा दिया गया है इसके अतिरिक्त सिक्कों की टंकण शैली, उत्पाद कौशल, कलात्मकता, प्रौद्यौगिकी, तथा उस काल के लोगों की पसंद का अध्ययन करने पर हम उस समय के पूरे इतिहास को जान सकते हैं।
भारत के इतिहास में आजतक गुप्तकाल के सोने तथा चांदी के सिक्कों की गुणक्ता तथा संख्या की तुलना में हमें कोई अन्य उदाहरण प्राप्त नही होता है। इन सिक्कों की बनावट में विशिष्ट भारतीय कला पर आधारित छाप तथा निर्माण प्रक्रिय का अस्तित्त्व दिखाई पडता है जो ग्रीक तथा रोमन प्रारुपों से भिन्न हैं। इन सिक्कों की निर्माण कौशल, प्रयुक्त धातु तथा छवि संरचना उच्चतम गुणवत्ता युक्त है। यह गुणवत्ता ‘स्वर्णमाणक’ के समरुप है। क्या प्रचलित मुद्रा के कागजी नोट छाप देना पर्याप्त होता है? यह अत्यन्त खतरनाक होता है। गुप्त काल में इसका कोई संकट नहीं था। किसी भी देश के लिए क्षात्र की उपयोगिता उसकी आर्थिक समृद्धि के लिए है ताकि इससे शांति और संतोष की स्थिति बनी रहे।
राहुल सांकृत्यायन ने दुर्भावनाग्रस्त्र होकर झूठे आरोपण किये है जैसे कि – व्यापारियों को बाध्य किया जाता था कि वे राजा को कर दे ताकि राजमार्गों पर उनकी डाकुओं आदि से सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके ! क्या इससे यह अर्थ नहीं निकलता है कि राजमार्ग केवल व्यापारियों के उपयोगार्थ ही बने थे ? क्या सामान्य जन उन मार्गों का उपयोग नहीं कर सकते थे ? क्या उन मुख्य मार्गों का उपयोग खाद्य सामग्री, खेती के उपकरणों तथा वस्त्रों के थाताथात हेतु नही होता था?
क्या मुख्यमार्गों की सुरक्षा के संबंध में इस प्रकार के गंदे कुतर्को का कोई स्थान हो सकता है ? क्या इस तर्क में कुछ आधार है कि चूंकि व्यापारीगण कर देते थे इस लिए मुख्य मार्ग सुरक्षित थे ? किसी भी देश की सड़के तथा मार्ग मानवीय नस नाडियों की तरह है जिससे पूरे शरीर में रक्त संचार होता है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]न वा अरे ब्रह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवति | आत्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति | (बृहदारण्यकोपनिषद 2.4.5)