भारतीय क्षात्र परम्परा में हम मुख्य रुप से सभी संप्रदायों के सुन्दर समावेशन के दर्शन करते है । संप्रदायवाद से ऊपर उठना ही सनातन धर्म की आन्तरिक रुपरेखा है। इस व्यापक दृष्टिकोण के अभाव में क्षात्र भाव केवल क्रूरता का पर्याय बन जावेगा। इस्लाम में यही तो हुआ है। और यही ईसाइयत की संघर्षगायाओं से ज्ञात होता है। ऐसा क्या था कि ऐसी कोई घटना भारत में नही हुई? इसका कारण यही है कि सनातन धर्म एक संप्रदाय विशेष का अंग होने के बाद भी यह प्रदर्शित करने में सफल रहा कि संप्रदायवाद से ऊपर उठने की संभावना रहती है। वेदिक काल से आज तक हम यह निर्भीक और उदार उद्घोष सुनते आये हैं कि ‘सभी मार्गों का अपना महत्त्व है तथा वे सभी अन्ततः सत्य की ओर ही जाते है’ । यही भारतीय क्षात्र परम्परा का आधार भूत लक्षण है। सनातन धर्म के समत्त्व भाव में अहिंसा को एक श्रेष्ठ गुण मानते हुए भी हिंसा को समुचित न्याय पूर्ण स्थान दिया गया है। यही अनेकता में एकता का पारस्परिक सामंजस्य है।
पुष्यमित्र शुंग ने अपने सुयोग्य पौत्र वसुमित्र शुंग की सहायता से अपने शत्रुओं को सिंधु नदी के तट पर हराया था। ग्रीक लोगो पर इस विजय का वर्णन कालिदास ने ‘मालविकाग्निमित्रम्’ के पंचम काण्ड में किया है। इसके साथ ही ग्रीक लोगो की भारत में घुसपैट सदा के लिए बंद हो गई। जो कुछ इधर उधर फैल गये थे वे भी अन्ततः भारतीय समाज के अंग बन गये। इतना ही नही प्रतिष्ठा प्राप्ति की दृष्टि से उन्होने निस्वार्थ भाव से ब्रह्म-क्षात्र समन्वय के लिए परिश्रम भी किया।
शक लोगों के अनेक मुखिया ‘क्षत्रप’ उपाधि के साथ अस्तित्त्व में थे। वे भी सनातन धर्म के अनुगामी हो गये। अति सुन्दर संस्कृत के कुछ प्राचीन शिलालेखों में जो कि आज भी शान से खडे है वे क्षत्रप – भूमका, नहपान, जयदामा, रुद्रदामा, तथा अन्य शासको से संबंध रखते है। यह सब लोग स्थानीय सातवाहनो अथवा अन्य क्षत्रिय शासको के साथ विवाह बंधन द्वारा संधिबद्ध हो गये थे।
ग्रीक, पर्शियन तथा सिथियन लोगों के बाद अत्यंत हिंसक तथा भयानक हूण और कुषाणों ने भारत पर आक्रमण किया था। कुषाण काल के प्रमुख शासको में वशिष्क, कानिष्क (कनिष्क) और हुविष्क के नाम आते है। राजा कानिष्क इन सब में योग्य शासक सिद्ध हुआ और उसने अपने राज्य का प्रशासन अच्छी तरह से चलाया। यह सत्य है कि वह क्षात्र पौरुष से युक्त था किंतु उसका यह गुण पृष्ठभूमि में ही रहा तथा वह भारत के साथ अपने ऐक्य को स्थापित कर पाने में असफल रहा। कानिष्क ने पुरुषपुरा (आज का पेशावर) को अपनी राजधानी बना कर शासन किया था। उसके बेक्ट्रिया के ग्रीक लोगों से अच्छे सम्बन्ध थे और उसने भारतीय शिल्प निर्माण में ग्रीक स्थापत्य विशेषज्ञों को आमंत्रित कर निर्माण कार्य करवाये। निश्चय ही इस प्रकार का परिवर्तन प्रशंसनीय है तथापि विदेशियों पर पुर्ण निर्भर रह कर स्वयं की जन्मस्थली की उपेक्षा करना शोभनीय नही है। कुषाणों द्वारा बौद्ध धर्म के यथार्थवादी पक्ष को अत्यधिक महत्त्व प्रदान करते हुए बौद्ध धर्म के आदर्शवाद को समुचित महत्त्व नही दिया गया।
मौर्य लोगो ने बुद्ध को धर्मचक्र, बोधिवृक्ष, सिंहासन, स्तूप, वृषभ, अश्व, सिहॅ तथा गज आदि संकेतो के माध्यम से आरेखित किया था। कुषाणों ने बुद्ध को मानवीय रुप में चित्रित किया। ग्रीक तथा रोमन लोगों की शैलियों का प्रभाव प्रमुखता से बढ़ गया । किंतु इसमें अलौकिक तत्त्व का अभाव बना रहा जो हमारी परम्परा की एक विशेषता रही है। इस अभाव की पूर्ति कुछ शताब्दियों बाद ही गुप्त काल में कर दी गई। यह गुप्तवंश के शासन काल की ही देन है कि उस समय में भारत की शास्त्रीयकला में स्थानीय प्राकृतिक सौन्दर्य का पोषण हो सका।
कानिष्क ने निवृत्ति को अत्यधिक महत्त्व दिया । उसके प्रमुख गुरु अश्वघोष एक अति निपुण कवि, संगीतज्ञ तथा दार्शनिक थे तथापि उन्होने अपनी काव्य रचनाओं में सन्यास को अत्यधिक महत्त्व प्रदान किया। जब भी हम बुद्ध पर विचार करें तो हमें बुद्ध द्वारा लिच्छवियों को दिये गये उपदेश को ध्यान में रखना चाहिए। यह चकित करने वाला तथ्य है कि कुषाण बुद्ध के उक्त उपदेश को छोड़ कर मात्र सन्यास पर अटक गये। जब हम त्रिपिटकों का अध्ययन करते है तो बुद्ध ने भी इस प्रकार की उपेक्षा दर्शाई है तथापि अन्तिम रुप से उन्होने इसे सही स्वरुप दिया। इसमें उनकी महानता स्पष्ट होती है। उदाहरणार्थ जब बुद्ध ने अपने पुत्र राहुल को सन्यास दीक्षा दी तो बुद्ध के पिता शुद्धोधन ने इसका विरोध किया, तब बुद्ध ने इस दीक्षा में एक संशोधन कर दिया – “दीक्षार्थी के माता-पिता और परिवार के बड़े लोगों की पूर्ण सहमति के बिना सन्यास दीक्षा नही दी जा सकती है” । यही नियम हम सनातन धर्म में भी देखते हैं। यदि माता पिता अथवा विवाहित पुरुष के लिए उसकी पत्नी द्वारा अनुमति प्रदान न किये जाने पर सन्यास दीक्षा नही दी जाती है। वस्तुतः न तो सन्यास किसी पर बलात् थोपा जा सका है न इसे क्रोधवश अथवा अंध आकर्षण में स्वीकार करने की अनुमति है।
बुद्ध का मार्ग स्वर्णिम साधन है। कानिष्क ने इस पथ से हट कर व्यवहार किया अतः उसके उत्तराधिकारी एक शक्ति संपन्न तथा स्थायी साम्राज्य की स्थापना कर पाने में असफल रहे।
गुप्त लोगों के आने के उपरांत भारतीय इतिहास का स्वर्णिमकाल प्रारम्भ हुआ। इस काल में क्षात्र को अत्यधिक महत्त्व प्रदान करते हुए समृद्धि तथा खुश हाली स्थापित की गई।
गुप्त काल में हम महाभारत के आदर्शों के फलीभूत होने को देखते हैं, वेदों की प्रेरणा, चाणक्य के सिद्धांतो, चाणक्य की राजनैतिक अर्थव्यवस्था, कृष्ण का आध्यात्मिक दर्शन तथा उनकी युक्ति तथा वेदों में वर्णित सभी प्रेश्णाओं तथा दार्शनिक तत्त्वों का समायोजन का साफल्य इस स्वर्णिमकाल में होता है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.