अशोक की अहिंसा नीति का आकलन
इत् सिंग जैसे चीनी यात्री के अभिलेखानुसार अशोक एक सन्यासी तथा बौद्ध भिक्षु था। उनके कथनानुसार उन्होने ऐसी प्रतिमा के दर्शन भी किये हैं। बौद्ध व्यवस्था में कोई भी सन्यासी पुनः गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर सकता है। वे किसी भी अन्य आश्रम में प्रवेश कर सकते है।
फाहियान, ह्वेन त्सांग, इत् सिंग, धर्मस्वामी तथा अन्य बौद्ध चीनी यात्रियों ने भारत की यात्रा की थी। अनेक अवसरों पर उनके कथन अपनी धार्मिक आस्था से प्रेरित भावना से अथवा अज्ञानतावश वास्तविकता से दूर रहे हैं। आधुनिक इतिहासकारों ने इसे सिद्ध कर दिया है। यह अस्पष्ट है कि इत् सिंग के शब्द कितने सही हैं। यदि इत् सिंग के शब्दों पर विश्वास किया जाए कि उसने भिक्षु वेश में अशोक की प्रतिमा देखी है तो हमे इस निष्कर्ष पर आना होगा कि अशोक ने अपना राज्याधिकार त्याग कर धर्म-शासन के शिलालेख स्थापित करते हुए सन्यास, शांति और अहिंसा का प्रचार किया था।
हमें अहिंसा का अत्यधिक सम्मान करना चाहिए। यह सभी प्राणियों के लिए एक आदर्श है। महाभारत में[1] अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत बतलाया गया है वहीं इसी ग्रंथ में[2] एक अन्य सिद्धांत भी प्रतिपादित किया गया है कि अहिंसा तथा न्याय युक्त हिंसा दोनो धर्म के सहयोगी हैं – दोनों ही समानरुप से सत्य हैं। यद्यपि अहिंसा अति आवश्यक है फिर भी धर्म की रक्षा हेतु हिंसा अति महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त केवल महान ऋषि, मुनि, यति जो मनसा वाचा कर्मणा पवित्र हैं वे ही वस्तुतः अहिंसा, संयम, वैश्विक प्रेम, क्षमा, उदारता, करुणा के मर्म के अनुसार व्यवहार कर सकते हैं, यह सामान्य जन के वश की बात नही है। वास्तव में एक क्षत्रिय के लिए तो यह लगभग असम्भव सा है और अनेक प्रकरणों में यह उचित भी नहीं है।
प्रशासकीय विषयों में अशोक ने पूर्व कालिक अनेक अर्थशास्त्र विशेषज्ञों द्वारा निर्देशित मार्ग को अपनाया। उसने अपने प्रशासन को प्रभावकारी तरीके से तीन पदानुक्रमानुसार विभिन्न विभागों का विभाजन किया था – राजोक, युत और महामात्र । राजोक अथवा राज्ञीक[3] एक स्थायी पद है। युत शब्द चाणक्य के अर्थशास्त्र में प्रयुक्त ‘युक’ का समान अर्थी है। महामात्र का उपयोग महामात्य[4] के लिए किया गया है। राज्य में अठारह विभागाध्यक्ष होते थे :- अश्वाध्यक्ष, सूनाध्यक्ष, सुराध्यक्ष, गणिकाध्यक्ष, सूत्राध्यक्ष, सीराध्यक्ष, आकरकर्मान्ताध्यक्ष, नौकाध्यक्ष, तुलाध्यक्ष आदि..
जब किसी देश में अनेक पीढ़ियों से शांति तथा सुरक्षा दृढता से स्थापित हो जाती है तो स्वीकार्य सीमा में अहिंसा का पाठ पढ़ाना अहितकारी नहीं है किंतु एक सुसंस्कृत और समृद्ध देश में बिना सजग सैन्य शक्ति और ऐसे सुयोग्य शासक के जो सभी निर्णय लेनें में सक्षम हो, अस्तित्त्व को बनाये रखना कठिन है।
अशोक ने स्वयं अपनी संतानों को अपने धर्मप्रचारार्थ विदेश भेजा था। उसके पुत्र कुणाल और महेन्द्र के साथ उसकी पुत्री संगमित्रा ने विदेश यात्रा की थी। विभिन्न देशों के राजदूत तथा प्रतिनिधिगण उसके दरबार में आते रहते थे। बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ उसके प्रशासन में एक स्वतंत्र विभाग कार्यरत था जिसमे पूरे साम्राज्य में अधिकारियों को नियुक्त किया गया था। यह पूरी व्यवस्था, उसकी मृत्यु के कुछ ही समय में धराशायी हो गई जिससे ज्ञात होता है कि उसके शासन में क्षात्र को क्षतिग्रस्त किया गया। धर्मप्रचार का उसका यह अति उत्साह समकालीन लोगों की संवेदनाओं के अनुरुप नही था, वह अस्वाभाविक था तथा सांस्कृतिक मूल से जुड़ा हुआ नहीं था परिणामतः उसने अनेक प्रकार के संकटों को पैदा कर दिया।
अशोक का करुणा का मार्ग सुन्दर है। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि किस प्रकार स्वेच्छा से अशोक ने मांसाहार का त्याग किया। हम उसकी उन घोषणाओं को भी देखते हैं जिसमें उसने व्यावसायिक दृष्टि से उपयोगी प्राणियों जैसे तोते, हंस, मोर, कछुए और गिद्ध आदि के संरक्षण की बात कही है। उसने इन प्राणियों को उस वर्ग में रख दिया जिनकी हत्या पर प्रतिबंध था। कोई भी जंगल में आग नहीं लगासकता था तथा कोई भी प्राणी अपने पोषणार्थ अन्य प्राणी की बलि नहीं दे सकता था। विशेषदिनों में मछली मारना तथा मांसाहार प्रतिबंधित था, साल में इक्यावन दिनों में यह प्रतिबंध वैधानिक रुप से मनवाया जाता था। इसी प्रकार से साण्डों को बधियाकरण द्वारा बैलों के रुप में उपयोग करने तथा घोड़ों को गरम छडों से से दागने पर भी प्रतिबंध था।
मृत्युदण्ड़ प्राप्त अपराधी को तीन दिन तक ध्यान कर आत्म निरीक्षण द्वारा अपने मन को शुद्ध करने को कहा जाता था यद्यपि इसके बाद भी उसकी सजा माफ नही की जाती थी। क्योंकि मनुष्य द्वारा क्रूरता करने की क्षमता बहुत ही भयावह तथा कल्पनातीत है। दुष्टों को दण्डित किया ही जाना चाहिए। दुष्ट लोग हिंसक पशुओं से भी अधिक खतरनाक होते हैं। सामान्य नागरीक शांत नही रह सकता यदि उसे ज्ञात हो जाय कि इस करुणा के साथ दण्ड़ का भय नहीं है। अशोक की मृत्यु के उपरांत उठे विद्रोह को जब हम देखते है तो हमें यह समझ में आता है कि उसने कंहा भूल की और कैसे वह असफल हुआ।
समकालीन जगत में शांति की कीमत चुकाना आवश्यक है। शांतिपूरण उपायों के साथ ही नियम आधारित सुरक्षात्मक व्यवस्था की भी आवश्यकता होती है अन्यथा मात्स्यन्याय (बडी मछली द्वारा छोटी मछली का भक्षण) फैल जाता है। यदि स्पष्ट रुप से कहा जाय तो सामान्य रुप से मनुष्य न तो इतना संस्कारी होता है और न सभ्य जितना अशोक द्वारा समझा गया था।
अशोक के समय की स्थापत्य कला अद्भुत थी। आज भी हम इसे अनेक स्तम्भों तथा उनपर उकेरी गई प्रतिमाओं और शिखरों पर देख सकते हैं। सारनाथ संग्रहालय में प्रसिद्ध अशोक स्तम्भ का शिखर रखा है जिसमें चार सिंह चार प्रमुख दिशाओं की ओर उन्मुख है। यह बलुआ पत्थर पर उत्कीर्ण है तथा सुन्दर तरीके से चिकनी की गई है। पहले पहल जब इस कलाकृति को ब्रिटिश ने देखा तो इससे परावर्तित प्रकाश को देख कर वह इसे धातु की कलाकृति समझा था। फाह्यान तथा अन्य ने भी इसकी अत्यधिक प्रशंसा की है। अशोक ने ऐसे अनगिनत स्तूपों को बनवाया था जो अनुमानित रुप से 84000 है यद्यपि यह संख्या विवादित है। उनके खण्डित अंश आज भी कई स्थानों पर उपलब्ध है। बरहुत तथा सांची में पाई जाने वाली स्थापत्य कला पुष्य मित्र शुंग के शासन काल में बनी थी। सांची का स्तूप भी पुष्य मित्र शुंग से संबद्ध है। इसके द्वार ‘सातवाहनो’ द्वारा निर्मित हैं। तथापि इसकी पृष्ठभूमि अशोक द्वारा प्रदत्त है। इस प्रकार अशोक की प्रतिभा बहुमुखी थी तथा उसकी उपलब्धियॉ भी अनगिनत थी, इसके बाद भी वह एक अच्छा उत्तराधिकारी प्रस्तुत कर पाने में सफल नहीं हो सका।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]अहिंसा परमो धर्मः (महाभारत 1.11.12)
[2]अहिंसा साधु-हिंसेति श्रेयान् धर्म-परिग्रहः (महाभारत 12.15.49)
[3]अर्थशास्त्र मे इसका उल्लेख है
[4]अर्थशास्त्र में इन्हे विभागाध्यक्ष के रुप में दर्शाया गया है