साम्राज्य-काल
वेदों, इतिहास तथा पुराणों से अब हम तथा कथित ऐतिहासिक काल पर आते हैं। वैसे भी प्राचीन साहित्य तथा लिपिबद्ध इतिहास के मध्य कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं है। वेदो में वर्णित सभी राजाओं की वंश परम्पराएँ, भारतीय इतिहास का ही अंग है। उदाहरणार्थ, वेदो में प्राचीन राजा दिवोदास का उल्लेख है। सुदास उसका पुत्र था। सुदास के राजपुरोहित वसिष्ठ थे। ऋगवेद में दस राजाओं के युद्ध का वर्णन है जंहा विश्वामित्र के नेतृत्त्व में दस राजाओं ने एकसाथ मिल कर सुदास पर आक्रमण कर दिये थे। यह भारतीय इतिहास का लिखित अभिलेख है। वेदो में एक अन्य महान राजा दुष्यन्त तथा उसके पुत्र भरत (सर्वदमन) की यशगाथा है। इसी महान सम्राट भरत के नाम से हमारे देश का नाम भारत हुआ। ऐतरेय-ब्राह्मण जैसे वेदिक ग्रंथ में भी भरत का संदर्भ दिया गया है। कहा जाता है कि सम्राट भरत ने सौ से अधिक अश्वमेध यज्ञ तथा पचास राजसूय यज्ञ किये थे। ऐसे अन्य किसी भी शासक का हमें विवरण नहीं मिलता जिसने इतने यज्ञ किये हों! इन यज्ञों के सतत पुनरावर्तन से प्रमाणित होता है कि किस प्रकार क्षात्र प्रतिभा के हमारी परम्परा में निरन्तर रूप से पुनर्जीवित किया जाता रहा है। प्रत्येक क्षत्रिय-यज्ञ व्दारा शौर्य तथा उत्साह वर्धन के साथ साथ राज्य के कल्याण को संरक्षित किया जाता रहा है। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि अश्वमेध यज्ञ साम्राज्य के विस्तार तथा अन्य बडे भूभागों पर अपनी संप्रभुता की अविवादित स्थापना हेतु किया जाता था। इससे राज्य को दूर दूर तक विस्तारित करने की राजा की योग्यता परिलक्षित होती है।
पुराणों में हम पढ़ते हैं कि जब सम्राट भरत को यह अनुभव हुआ कि उसकी संतानें अयोग्य हैं तो उन्होने अपने शासन की बागडोर ऋषि भरद्वाज के निर्देशन में रहने वाले भूमन्यु को सौंप दी। यंहा हमें सम्राट भरत के विवेक की प्रशंसा करना होगी कि जब उन्हे यह निश्चय हो गया कि उनकी संतान अपने कर्त्तव्य के निर्वाह कर पाने के योग्य नहीं है तो उन्होने प्रजा जनों के हित संरक्षण की दृष्टि से शासन का कार्यभार एक ऋषि के पुत्र को सौंप दिया । क्षात्र की महान परम्परा में सदैव से निस्स्वार्थता, दूरदृष्टि, सुरक्षा और राज्य के कल्याण को ही महत्त्व दिया गया है। वस्तुतः यही हमारी परम्परा के लक्ष्य भी रहे हैं। भरत के इस प्रसंग में हम तथ्य को स्पष्टतः देख सकते हैं।
आधुनिक इतिहासकार विशेषरूप से यह कहते हैं कि भारत का इतिहास मगध साम्राज्य के साथ प्रारम्भ हुआ। अनेक अन्य इतिहासकार इससे असहमत हैं और मै भी! इसका कारण बहुत ही सीधा और सरल है[1] । रामायण तथा महाभारत की ऐतिहासिकता सुविख्यात है। चाहे वेद के दिवोदास-सुदास हों चाहे दृष्यंत-भरत हों या यदुवंश परम्परा हो या कौरवों का वंश हों – यह सब ही हमारे इतिहास का अभिन्न अंग है।
यदुवंश की अगली पीढ़ियों की एक शाखा हैहय वंश है। उन्होने माहिष्मति[2] से राज्य किया । उस क्षेत्र में भार्गव समुदाय के अनेक लोग रहते थे। हैहय, कृतवीर्य, उसके पुत्र कार्तवीर्य तथा अन्यों द्वारा यह वंशपरम्परा निरंतर बढ़ती गई। अपने क्षत्रिय धर्म से आबद्ध वैश्विक कल्याण में लगे राजा अत्यंत शक्तिशाली हो गये थे किंतु उन्ही में से कुछ अपने ज्ञान, संपदा, और स्थिति के अभिमानवश स्वयं की ही प्रजा को सताने लगे थे। इस प्रकार के राजाओं तथा उनकी प्रजा के मध्य संघर्ष को हम हैहय तथा भार्गव वंशों में देखते हैं। ऐसे संधर्ष अनेक पीढ़ियों तक चले जिसकी साक्ष्य हमे और्व तथा च्यवन की कथा से लेकर परशुराम तक मिलती है। पुराणों तथा इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि हैहय समुदाय के विनाश के उपरांत परशुराम का क्रोध शांत हुआ, और यह सब घटनाएँ हमारे इतिहास का अंग है।
इसी प्रकार पाण्ड़वों की वंश पररम्परा अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित से आगे बढ़ी। उनके पुत्र जनमेजय थे। बाद में इस वंश में शतानीक, उसका पुत्र सहस्रानीक और उसका पुत्र उदयन हुआ जिसने वत्स-साम्राज्य पर शासन कर प्रसिद्धि प्राप्त की[3]।
बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि उदयन, बुद्ध का समकालीन था। उस समय भारत में अनेक क्षत्रिय समुदाय थे। अनेक प्रसिद्ध गणतंत्र थे। कुछ साम्राज्य भी थे। बौद्ध ग्रंथों में इन्हे षोडश महाजनपद - सोलह महाराज्यों के रूप में दर्शाया गया है।
गणतांत्रिक तथा साम्राज्यवादी राज्य
बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उत्तर भारत में तीन महत्त्वपूर्ण साम्राज्य थेः- (a) मगध (राजधानी - राजगृह) (b) कोशल (राजधानी - श्रावस्ती) (c) वत्स (राजधानी - कौशाम्बी), विदर्भ दक्षिण भारत में था।
राजा चण्डमहासेन ने राजधानी उज्जयनी से अवन्ती साम्राज्य पर शासन किया। जब कोशल पर प्रसेनजित का शासन था उस समय मगध में बिंबिसार श्रेण्यक तथा उसके पुत्र अजातशत्रु का शासन था। उदयन वत्सराज कौशाम्बी से वत्स साम्राज्य पर शासन कर रहा था। कुरु तथा पांचाल क्षेत्र गंगा किनारे थे। यमुना के तट पर बसा आज का आगराशहर तब अग्रोदक कहलाता था। उसके निकट राजधानी मथुरा का शूरसेन साम्राज्य था। वत्स साम्राज्य के आगे गंगा – यमुना संगम पर बसा प्रयागराज है जो प्रसिद्ध शहर काशी (वाराणसी) के निकट है। पूर्व की ओर मिथिला था जो वर्तमान बिहारराज्य के दरभंगा के निकट था। और आगे जंहा गंगा समुद्र से मिलती है वंहा अंग साम्राज्य था। उसी के आसपास वंग, पुण्ड्र, गौड़ तथा इसके पूर्व में कामरूप (आज का आसाम) था। आज का उड़िसा अथवा उस समय का कलिंग ओढ्र तथा उत्कल क्षेत्र का मिश्रित रूप था।
आज का अवध तथा झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ राज्य उस समय के उत्तरी तथा दक्षिणी कोशल राज्य थे। दक्षिण पश्चिमी उत्तरप्रदेश, उत्तरी मध्यप्रदेश और दक्षिणी राजस्थान उस समय के मत्स्य और चेदी साम्राज्य थे। आज का गुजरात उस समय लाट, गुर्जर, सौराष्ट्र तथा करहाट कहलाता था। आज का राजस्थान उस समय त्रिगर्त तथा साल्व साम्राज्य थे। आज का सिंध पहले सिंधु-सौवीर था। पश्चिमी घाट पर पहले अपरांत, कोंकण, शूर्पारक और चेर साम्राज्य थे। महाराष्ट्र को मरहठ्ठा कहते थे। इस क्षेत्र के साथ कन्नड प्रदेश के कुछ भाग के साथ कुंतलराज्य था। शेषभाग कर्नाट था।
इसके दक्षिण में द्रविड़ क्षेत्र था जंहा केरल क्षेत्र में चेर तथा पांड्य (पाण्ड्य) साम्राज्य थे तथा तमिलनाडु क्षेत्र में चोल साम्रज्य था। इसके उत्तर में आंध्र था जिसे त्रिलंग या त्रैलंग भी कहा जाता है। आज का कांधार तब कम्बोज था। इसके पास का बलुचिस्तान तब का अश्मक[4] और गांधार राज्य था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]वेदो, पुराणों तथा महाकाव्यों की वर्णित घटनाएँ लिखित इतिहास का अंग है इन में यद्यपि कुछ काल्पनिक तत्त्व है किंतु इस आधार पर कुछ इतिहासकार द्वारा उन्हे पूर्णतः कल्पित मान लेना एक भूल है
[2]आज का महेश्वर, नर्मदा नदी के किनारे मे है
[3]ये जानकारी हमे रामायाण अथवा महाभारत मे नहि किन्तु तदुपरान्त लिखे हुये कृतियों मे पाये जाते है
[4]मार्कण्डेयपुराण तथा बृहत्संहिता के अनुसार