ह्वेनसांग के अनुसार शशांक ने गया में स्थित बोधि वृक्ष को कटवा दिया था तथा पास के मंदिर से बुद्ध की प्रतिमा को हटाने का आदेश दिया था। किंतु इस संबंध में आर.सी. मजूमदार असहमत है और लिखते है :- “यह तथा इसी प्रकार की अन्य कहानियां जो शशांक को बौद्ध धर्म पर अत्याचार करने वाले के रूप में दर्शाने के लिए लिखी गई है, उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता है जब तक कि इस संबंध में कोई स्वतंत्र साक्ष्य उपलब्ध न हो। क्योंकि शशांक की राजधानी में ही बौद्ध धर्म फलता फूलता रहा था और ऐसी स्थिति में यह कैसे माना जा सकता है कि शशांक एक धार्मिक कट्टरवादी व्यक्ति था जिसने बौद्ध धर्म पर अत्याचार किए थे”[1] ऐसा कोई प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है जो यह दर्शाता हो कि शशांक ने बौद्ध धर्म को नष्ट करने का प्रयास किया हो। वस्तुतः कुछ अज्ञानी धर्मांधों ने अपने तथाकथित धर्मनिरपेक्षता वादी मित्रों को खुश करने की दृष्टि से कुछ कुछ राजाओं पर अपने पंथों पर अत्याचार करने संबंधी आरोप लगाया है जबकि अधिकांश हिंदू राजा सहिष्णु तथा व्यापक धार्मिक दृष्टिकोण वाले उदार व्यक्ति थे। सत्य तो यह है कि सनातन धर्म को मानने वाला कोई भी राजा बौद्ध धर्म से घृणा कर ही नहीं सकता है[2]। ऐसे ही आरोप चोल राजाओं पर भी लगाए गये हैं[3]।
शशांक के बारे मे मजूमदार का मत ये है, “इसको बंगाल का पहला महान राजा मानना चाहिए उसने न केवल गौड़ प्रदेश के स्वतंत्र राज्य बनाया, उसने अपना शासन दक्षिण बिहार और ओडिशा विस्तार किया उसने उत्तर भारत में भी अपने साम्राज्य के विस्तारित करने का प्रयास किया था। इस प्रकार उसने उस नीति की नींव रख दी थी जिस पर पाल राजाओं ने अपना विस्तृत साम्राज्य खड़ा किया था। यदि उसके दरबार में भी बाण या ह्वेनसांग जैसा कोई जीवनी लेखक होता तो उत्तर काल में उसे भी हर्षवर्धन जैसी महान प्रतिभाशाली सम्राट के रूप में ख्याति प्राप्त होती किंतु यह उसका दुर्भाग्य ही है कि आज शशांक को मात्र राज्यवर्धन के कायर हत्योर तथा बौद्ध धर्म पर अत्याचार करने वाले के रूप में दर्शाया जा रहा है[4]।
भारत के सभी मूल निवासी राजा और उनके साम्राज्य सनातन धर्म को अपनाने वाले रहे हैं और यही कारण है कि हिंदू शासकों में उदारता, धैर्य, सहनशीलता, सहिष्णुता और वैश्विक प्रेम के सद्गुण दृढ़ता से पाये जाते है।
चन्द्रापीड तथा ललितादित्य
कल्हण ने अपनी कृति ‘राजतरंगिणी’ (ग्यारहवी शताब्दी) में कार्कोट राजवंश के शासक चन्द्रापीड का वर्णन किया है । वह अपनी न्यायप्रियता तथा असाधारण शौर्य के लिए सुविख्यात था। चन्द्रापीड (छठी शताब्दी) ने परिहासपुर (आज का कश्मीर घाटी में बसा पारसपुर) में नारायण देवालय के निर्माण का निश्चय किया। जहां देवालय का निर्माण किया जाना था वह एक मोची की जमीन थी। जब शासकीय अधिकारीगण उस जमीन को क्रय करने मोची के पास गये तो उसने बेचने से साफ मना कर दिया। जब अधिकारियों ने उसे परेशान कर दबाव बनाया तो मोची ने सीधे अपनी शिकायत चन्द्रापीड तक पहुंचा दी और जमीन न बेचने का अपना कारण स्पष्ट करते हुए राजा को मौके पर आकर अपना निर्णय देने हेतु प्रार्थना की। जब चन्द्रापीड मोची के स्थान पर पहुंचा तो मोची ने निवेदन किया “यह जमीन मेरे पुरखों की धरोहर है, इसे मेरे पिता, दादा और उनके भी पूर्वजों के समय से संभाला जा रहा है अतः मेरे लिए इसे विक्रय करना असंभव है”। चन्द्रापीड ने उसे आश्वस्त किया कि बलपूर्वक यह जमीन उसे नहीं छीनी जावेगी। बाद में राजा के कृत्य से प्रभावित होकर कि राजा स्वयं उसे न्याय प्रदान करने उसके घर तक आया, उसने स्वेच्छा से यह जमीन देवालय निर्माण के लिए दान देने का प्रस्ताव रखा किंतु राजाने दान स्वीकार न करते हुए उस जमीन के लिए मोची को समुचित मूल्य प्रदान कर जमीन प्राप्त की थी।
यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि राजा स्वयं एक गरीब अछूत कहे जाने वाले के द्वार पर न्याय प्रदान करने आया था जो दर्शाता है कि उस समय में ऊंच नीच का भेदभाव व्याप्त नहीं था। उस युग में सामाजिक स्तर पर किसी को अछूत नहीं समझा जाता था। एक बार किसी ब्राह्मण ने कपट और षडयंत्र करके अन्य ब्राह्मण की हत्या कर दी तो चन्द्रापीड ने अपराधी ब्राह्मण को कठोर दंड दिया। इस प्रकरण में भी उसका निष्पक्ष तथा उचित व्यवहार प्रदर्शित होता है जो उसकी राजनैतिक योग्यता को दर्शाता है।
चन्द्रापीड के उत्तराधिकारी के रूप में ललितादित्य ने शासन संभाला था। उसने तिब्बत के राजा को परास्त कर चीन के सम्राट से अच्छे संबंध बनाए थे। चूंकि सैन्य दृष्टि से कश्मीर की स्थिति महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि उसकी सीमाएँ अनेक अन्य राज्यों से जुड़ी हुई थी अतः ललितादित्य ने अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखा। उसने दर्द, कम्बोज तथा तुर्क लोगों को सीमा में घुसने नहीं दिया। उसने उस क्षेत्र की अनेक जंगली जनजातियों के हृदय में इतना भय पैदा कर दिया था कि वे कश्मीर में घुसने से डरते थे। ललितादित्य ने कान्यकुब्ज के अति शक्तिशाली सम्राट यशोवर्मा के विरुद्ध भी युद्ध किया था। जब उसने बंगाल पर धावा बोला तो वहां के राजा ने बिना लडे समर्पण कर दिया। बंगाल तक अपना साम्राज्य विस्तारित करने के साथ, ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार उसने दक्षिण भारत तक की यात्रा की थी।
कल्हण ने ललितादित्य के कमजोर पक्ष को भी रेखांकित किया है। एक बार भारी नशे की स्थिति में ललितादित्य ने प्रवरपुर (आज का श्रीनगर) को जला देने का आदेश दे दिया था। उसके मंत्रियों ने उसके आदेश को मानने की स्वीकृति दे कर कुछ समय पश्चात उसे सूचना दी कि उसके आदेशानुसार प्रवरपुर को राख में बदल दिया गया है। नशा उतारने के बाद राजा को अपनी मूर्खता पर भारी पश्चाताप हुआ और तब उनके मंत्रियों ने कहा : “चूंकि आप नशे में थे अतः हम ने आपके आदेश का पालन नहीं किया था”
कल्हण ने बिना किसी पूर्वाग्रह सभी राजाओं के सद्गुणों तथा दुर्गुणों का वर्णन किया है। कश्मीर के राजा शूरवीर थे, युद्ध से कभी पीछे नहीं हटे तथा क्षात्र भाव की प्रतीक्षा की उन में कभी कोई कमी नहीं रही। इतना सब होने के पश्चात भी वास्तव में क्या कमजोरियां रही ?
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]द हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ इंडियन पीपल वॉल्यूम 3, पृष्ठ 80-81
[2]नव बुद्ध वादियों में सनातन धर्म के प्रति जो द्वेष भाव अतार्किक कारणों से रहा है संभवत उससे उत्पन्न गहरो मानसिकता के कारण भी ऐसा प्रचार होता रहा है। इन्ही लोगों के कारण भारतीय आदर्श और पारंपरिक क्षात्र चेतना को गहरी ठेस पहुंची है।
[3]उदाहरणार्थ उत्तरकालीन श्री वैष्णव साहित्य में कृमिकण्ट चोल को वैष्णव धर्म से घृणा करने वाला तथा वैष्णवों पर अत्याचार करने वाले के रूप में वर्णित किया है। यह प्रमाणित हो चुका है कि ऐतिहासिक दृष्टि से यह झूठा आरोप है। फिर भी कमल हासन ने इस झूठी जानकारी के आधार पर छलपूर्वक एक फिल्म ‘दशावतारम’ का निर्माण किया।
[4]द हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ इंडियन पीपल, वॉल्यूम 3, पृष्ठ 81