दुर्भाग्य से अशोक को कृष्ण के समान कोई मार्गदर्शक नहीं मिला और नहीं उसने बुद्ध के समान सत्य को पूर्ण समर्पित जीवन जीया। वह क्षात्र के पथ से भटक गया। मेरी दृष्टि में यह अशोक की एक गंभीर कमी है। एक विशाल साम्राज्य को स्थापित करने के उपरांत एक सम्राट को सतत रुप से धर्मदण्ड के माध्यम से असहायों की सुरक्षा तथा दुष्टों को दण्ड़ देना होता है। उस साम्राज्य का क्या भविष्य हो सकता है जिसका सम्राट घोषणा करता है ‘मै अब कोई युद्ध नही लडुंगा’ ? महाभारत में राजसूय यज्ञ के उपरांत युधिष्ठिर ने प्रण किया कि ‘अब मै किसी का विरोध नहीं करुंगा, मै कभी भी किसी की मांग को अस्वीकार नहीं करुंगा’ – इस मूर्खता पूर्ण घोषणा के कारण ही भारी संकट उपस्थित हो गया जब दुर्योधन ने उसे जुआ खेलने के लिए आंमत्रित किया। वह स्वीकार करने को बाद्य था। जब दुर्योधन ने स्वयं उसको तथा उसकी पत्नी को दॉव पर लगाने की चुनौती दी तो उसे स्वीकारना ही था, और जब उन्होने उसे दरबार में उपस्थित करने को कहा तो उसे करना ही पडा कि ‘ऐसा ही होगा’ जब कि यह हर दृष्टि से अन्याय पूर्ण था। यह युधिष्ठिर द्वारा प्रदर्शित उसकी दयनीय वैचारिक अक्षमता थी। हमें अपनी रणनीति में योजनाऍ और प्रतियोजनाऍ बनाते रहने की आवश्यकता होती है। एक सर्प भले ही वह काटे नही फिर भी उसका फुफकारना बहुत जरुरी है। अशोक ने बुद्ध के दर्शन को सही रुप में नहीं समझा। बुद्ध के दृष्टिकोण को समझने के लिए हमें उनके मूल उपदेशों पर ध्यान देना होगा।
बुद्ध में क्षात्र चेतना
बुद्ध और अशोक में लगभग तीन सौ वर्षों का अन्तराल है। बुद्ध ईसा के छः सौ वर्ष पहले हुए। उनका जन्म ईसा से 560 वर्ष पूर्व हुआ। उन्होने अपने परिवेश में क्षात्र की प्रखरता को देखा था। उन्होने गणतांत्रिक व्यवस्था के दौर्बल्य और कमजोरियों को भी देखा था। इतना ही नही अपनी स्वतंत्रता के लिए, उनके मत में युद्ध में मदद करना उचित था। वर्तमान समय में बुद्ध तथा कथित धर्म निरपेक्षता की कायरता के प्रतीक बनादिये गये है किंतु वास्तव में वे वेदिक मूल्यों को सच्चाई से मानने वाले व्यक्ति थे। श्रद्धा विहीन अनास्थावादि साम्यवादियों ने बुद्ध को राजविरोधी अर्थात् राजाओं के विरोधी के रुप में चित्रित किया है। वास्तविकता यह है कि बुद्ध ने अनेक बार राज महलो और प्रसिद्ध राजाओं के निवास स्थलों के निकट अपना डेरा डाला था। उस समय के अनेक राजा उनके भक्त थे। अपना महल त्याग कर जब बुद्ध जंगलों में विचरण कर रहे थे तब उनकी भेट सम्राट श्रेण्यक बिम्बिसार से हुई थी और तब सम्राट ने उनसे कहा था “आप इतने प्रतिभासंपन्न तथा आभायुक्त व्यक्ति है, यदि आप अपने पिता शुद्धोधन का राज्य नहीं चाहते है तो मै अपने मगध साम्राज्य का कुछ भाग आपको देता हूं जंहा आप आनन्द पूर्वक रह सकते है” तब बुद्ध ने उत्तर दिया ‘मेरी ऐसी कोई इच्छा नही है’ ।
हमें ज्ञात है कि जब वे राजकुमार सिद्धार्थ थे, और जब उन्हे आत्म ज्ञान प्राप्त नही हुआ था, उस समय भी उनका परिचय अनेक राजाओं के साथ था। आत्मबोध प्राप्त करने के उपरांत सम्राट बिम्बिसार से उनके गहरे मैत्री पूर्ण संबंध रहे और बाद में उनके पुत्र अजातशत्रु से भी। बुद्ध श्रावस्ती नरेश प्रसेनजीत के प्रति भी बहुत करुणामयी थे जो कि अनेक दुर्बलताओं का शिकार था। उसका पागलपन सुप्रसिद्ध है। इन सबका विवरण बौद्ध धर्म के प्रारम्भिक ग्रंथों में उपलब्ध है। प्रसेनजीन के महल में अनेक षड़यंत्र, गुप्त संधियॉ, संघर्ष और कुचक्र होते रहते थे फिर भी बुद्ध ने सदैव उसके प्रति सहयोगात्मक दृष्टिकोण अपनाया।
बुद्ध राजा उदयन वत्स राज के साथ भी मित्रवत थे जो एक बडा कला संरक्षक था तथापि चंचल मनोवृत्तिवाला शासक था। उदयन की राजधानी कौशाम्बी में बुद्ध ने अनेक चतुमसि (वर्षा-वास) संपन्न किये। काशी नरेश ब्रह्मदत्त से भी उनके मैत्री संबंध थे। अनेक क्षात्र गणतंत्रों जैसे मल्ल, मद्र, शाक्य, कोलिय, वज्जी आदि से भी उनके बहुत मजबूत संबंध थे। सबसे उनके संबंध सौहार्दता पूर्ण थे। सुदत्त तथा अनाथपिण्डदा नामके प्रसिद्ध धनाड्य वैश्यों जिनका दूरदूर द्विपों तक व्यापार फैला हुआ था, बुद्ध के द्वारा बडी शिष्टता के साथ उनसे व्यवहार किया जाता था। वे उन विहारो (मठ) में निवास करते थे जो उनके लिए राजाओ, राजकुमारो, अमीरों और व्यापारियों व्दारा निर्मित किये गये थे। वे उनसे भिक्षा भी स्वीकार कर लेते थे। इसमें कुछ भी अनुचित नही था। यह बुद्ध की ‘समदृष्टि’ का द्योतक है। साम्यवादियों ने बुद्ध के संबंध में अपनी सुविधानुसार इन विवरणों को छुपाया है – हमारा विरोध इस तथ्य को लेकर है, बुद्ध जितने सौहार्दयुक्त आमजन के प्रति थे उतने ही वे क्षत्रियों के प्रति भी थे। अपने इसी गुण के कारण उन्होने लिच्छवी नायक और वज्जी गणतंत्र के प्रमुख सेनापति सिंहसेनापति से वार्त्ता की थी जिसका विस्तृत विवरण ‘सुत्त-पिटक’ में अभिलिखित है। जिज्ञासु पाठक ‘सिंह-सुत्त’ का अवलोकन करें।
वर्धमान महावीर तथा बुद्ध समकालीन थे। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि वर्धमान, बुद्ध से 25-30 वर्ष बड़े थे। दोनो ने ही लिच्छवी केन्द्र वैशाली में ‘चातुर्मास’ काल व्यतीत किये थे। वस्तुतः महावीर का जन्म लिच्छवी गणतंत्र में ही हुआ था। अतः उन्हे ‘निर्गन्थ ज्ञातृपुत्र’ कहा जाता है। ‘ज्ञातृपुत्र’ चचेरे भाइयों के संदर्भ में प्रयुक्त होता है। वे लिच्छवियों के संबंधी थे। महावीर व्दारा बुद्ध को ‘अक्रियावादी’ कहा गया था अर्थात् जो कर्म और क्षात्र का विरोधी है और ‘जिसने कोई भी उपदेश नही दिया’, [यद्यपि इसी प्रकार के दावे महावीर के विरुद्ध बौद्ध साहित्य में भी है] इस कथन को सुनने के उपरांत सिंह बुद्ध के पास गया और उनसे पूछता है – ‘क्या आप अक्रियावादी हैं? ऐसा हमारे वर्धमान महावीर का दावा है’ तब बुद्ध उत्तर देते हैं - “मै निश्चित रुप से अक्रियावादी नहीं हूं, मैने कभी कर्मयोग की उपेक्षा नहीं की है, राजा द्वारा निर्धारित दण्ड़ व्यवस्था के महत्त्व का मैने सदैव सम्मान किया है, मै व्यक्ति स्वातन्त्र्य का पक्षधर हूं, मै कर्त्तव्य निर्वहन का समर्थक हूं, मै मात्र मध्यमार्ग का पोषक हूं, मेरा इतना ही कहना है कि किसी भी चीज की अति नही होना चाहिए” सनातन धर्म का भी मूल लक्षण मध्यमार्ग का अनुसरण है।
जब बुद्ध उसी वैशाली में थे तो लिच्छवियों ने उनसे पूछा “लिच्छवियों पर अजातशत्रु के नेतृत्त्व में मगध साम्राज्य द्वारा बारम्बार आक्रमण किये जा रहे हैं। हम पहले भी श्रेण्यक बिम्बिसार के साथ संघर्ष करते रहे है और उसके मरणोपरांत अब उसका पुत्र अजातशत्रु निरंतर हमसे युद्ध कर रहा है। हम कैसे अपकी स्वतंत्रता की रक्षा करें और कैसे हम अपनी संप्रभुता और प्रतिष्ठा को बचाऍ ?” और तब बुद्ध ने ‘सप्तशील’ अर्थात् सात उपदेश दिये।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.