चाणक्य यंहा दो शब्दों का प्रयोग करता है – ‘अपवाहयंति’ और ‘कर्षयंति’ अर्थात् ‘पूरीतरह से भक्षण करना’ और ‘उत्पीडित’ करना।
चाणक्य का कहना है कि यदि हम इन कठोर विपत्तियों से बचना चाहते है तो हमे अपने स्थानीय राजा की आवश्यकता है। सिकंदर के आक्रमण से जिस प्रकार उत्तर पश्चिम के राज्यों का विनाश हुआ था उसके उपरांत देश को जिस आशा और विश्वास की आवश्यकता थी वह चाणक्य के दूरदर्शी दृष्टिकोण द्वारा प्राप्त हुआ। चाणक्य ने न केवल एक शक्ति संपन्न साम्राज्य की स्थापना की वरन उसने भारत में सिंकदर के प्रतिनिधि सेल्युकस निकटार को भी हराया।
चाणक्य ने हिमालय क्षेत्र में रहने वाले जन नायकों एवं जन जातियों से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये। इसका संदर्भ हमें जैन कृति ‘परिशिष्ट पर्व’ में मिलता है। मुद्राराक्षस तथा अन्य कृतियों से ज्ञात होता है कि चाणक्य का संबंध एक पहाड़ीराजा पर्वतक से भी था। अन्य रचनाओं से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने न केवल उत्तर पश्चिमी भारतीय भूभाग को पुनः जीत लिया बरन उसने सेल्युकस निकचार की पुत्री हेलन से विवाह भी किया था[1]।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग चौबीस वर्षों तक साम्राज्य पर शासन किया था। उसके शासन काल में प्रजा सुखी थी तथा उनका जीवन स्तर बहुत अच्छा था। वे खुश हाल थे। उसके बाद उसका पुत्र बिंदुसार राजा बना। यद्यपि इतिहास में बिंदुसार की सफलता का कोई विशिष्ट विवरण नहीं मिलता है तथापि उसके पुत्र अशोक के जीवन और कार्यों के बारे में बडी विस्तृत जानकारियॉ उपलब्ध हैं।
ग्रीक लोगों के प्रभाव को चन्द्रगुप्त मौर्य के शौर्य ने लगभग समाप्त कर दिया था। वे दूरस्थ बहिल्का (बेक्ट्रिया) प्रदेश[2], में जा कर बसगये थे। कहा जाता है कि मेगस्थनीस , चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था किंतु विद्वानों में इस संबंध में बहुत विवाद है। सारांश रुप में हमें इतना ही जानना है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने विदेशी आक्रमणकारियों को हरा कर अपने अधीन करलिया था।
अशोक का सामर्थ्य तथा दुर्बलताऍ
विश्व के सभी इतिहासकारों ने एकमत से अशोक की प्रशंसा की है। यह व्यापक रुप से प्रचारित किया गाया है कि अशोक एक आदर्श सम्राट था। प्राचीन समय में, विश्व के किसी भी भूभाग पर, किसी भी राजा ने अशोक के समान इतने धर्म-शासनों[3] की स्थापना नही की।
दो हजार तीन सौ वर्ष पूर्व किसी भी राजा का न तो इतना विशाल साम्राज्य था और न किसी ने अशोक के समान शासन किया था। अशोक ने जिस चरम सीमातक आत्म निरीक्षण तथा विनम्रता के साथ कार्य संपादन किया वैसा कोई अन्य भारतीय राजा द्वारा नही कीया गया, किंतु कहावत है कि अति सर्वत्र वर्जयेत्! बौद्ध ग्रंथों में, किस प्रकार अशोक राज सिंहासन पर बैठा और कैसे उसने स्वयं को स्थापित किया, इस संबंध में अनेकानेक मनगढंत विवरण भरे पड़े हैं – यह ग्रंथ हमारे लिए संदर्भ सामग्री तो है किंतु इनका विवरण सत्य नहीं है। दर्शाया गया है कि अशोक ने अपने सौ भाइयों की हत्या की थी। बौद्ध इतिहासकार यह दावा करते हैं कि अशोक की उत्कट इच्छानुसार उसके मंत्री राधागुप्त की कुटिल चालबाजियों द्वारा इन हत्याओं को क्रियान्वित किया गया। यंहा तक कि राधाकुमुद मुखर्जी जैसे प्रतिष्ठित इतिहासकार भी इससे सहमत हैं।
नेहरु के समय में अप्रिय राजनैतिक उद्देश्यों के कारण अशोक को दोषरहित एक महान सम्राट के रुप में प्रतिष्ठित किया गया। किंतु कुछ ही समय से अब इस विषय पर वस्तुनिष्ठ परीक्षण प्रारम्भ हो गया है। अशोक की सच्चाई जानने के जिज्ञासु इस संबंध में अशोक अकलुजकर और संजीव सान्याल के लेखन को पढ़े।
यह सर्व ज्ञात है कि कलिंग साम्राज्य से युद्ध करने के पश्चात जब अशोक ने उनपर किये गये अपने विनाश ताण्डव को देखा तो उसका मन युद्ध और हिंसा के प्रति ग्लानि से भर गया। इसके पूर्व उसने अपने पिता और दादा से विरासत में प्राप्त साम्राज्य को बहुत अधिक विस्तार दे दिया था। दक्षिण पूर्वीय राज्य कलिंग को जीतने की अपनी अदम्य कामना पूर्ति हेतु उसने यह अतिहिंसक युद्ध किया था जिसमें अशोक ने एक लाख पचास हजार लोगों को बंदी बनाया था और शेष एक लाख लोगों की हत्त्या की थी। उसकाल के अभिलेख इस युद्ध के विशाल नरसंहार और खूनखराबे को दर्शाते है। कलिंग पर इतनी विभत्स हिंसा करने के उपरांत अशोक ने पश्चात्ताप किया और बौद्धधर्म ग्रहण करलिया। तथापि यंहा एक स्पष्टिकरण आवश्यक है वह यह कि उसने स्वयं को कभी भी बौद्ध होने का दावा नही किया, उसके अनेको धर्म-शासन शिला लेखों में कही भी इस बात का संकेत नही है। उसका कहना था कि बिना अपवाद सभी श्रमणों तथा ब्राह्मणों का सम्मान किया जाना चाहिए। सरसरी दृष्टि से देखने पर यद्यपि श्रमण, तीर्थक, तीर्थंकर, अर्हन, उपासक आदि शब्द जैन अथवा बौद्ध अभिव्यक्तियॉ लग सकती हैं तथापि इनका मूल वेदों में है। ख्यातिप्राप्त विद्वान जैसे कि आनंद कुमारस्वामी, बलदेव उपाध्याय और गोविन्दचन्द्र पाण्डे ने यह प्रमाणित कर दिया है कि यह शब्द मूलतः सनातन धर्म से संबंध रखते है। अतः अशोक द्वारा आदर प्राप्त श्रमण गण भी वेदिक सन्यासी हो सकते हैं कुछ स्थानों पर परित्यागियों को श्रमणों के रुप में संबोधित किया गया है इससे स्पष्ट है कि अशोक जैनियों का भी आदर करता था। अशोक का कहना था कि हमें समाज के सभी वर्गों का सम्मान करना चाहिए।
अशोक की आत्म विवेचन क्षमता अद्भुत थी। आहार के संबंध में किन नियमों और अनुशासन का पालन आवश्यक है ? प्रजा में किस प्रकार नैतिक मूल्यों का संचार हो सकता है ? आदि प्रश्नों पर जिस प्रकार से उसकी सोच थी उससे उसके व्यक्तित्त्व का पता चलता है। हम सुनिश्चित तौर पर जानते हैं कि कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने कोई अन्य युद्ध नहीं किया फिर भी अशोक ने कलिंग के लोगों को उनका राज्य वापस नहीं किया और इस प्रकार उन्हे स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की। इतनाही नहीं उसने इनलोगों से अपने कृत्य की क्षमा याचना भी नहीं की !! इससे अशोक की निर्लिप्तता पर गंभीर प्रश्न उठता है। इस प्रकरण में अशोक ने एक सच्चे क्षात्र धर्म का पालन नहीं किया। सामान्य रुप में यह हेमलेट की हिचकिचाहट प्रतीत होती है। प्रसिद्ध पाण्डव अर्जुन को भी युद्ध के प्रति ऐसी ही निर्लिप्तता और मोहभंग हुआ था किंतु वह युद्ध के पूर्व की स्थिति थी क्योंकि कृष्ण के उपदेश के उपरांत उसे अपना वास्तविक कर्त्तव्य बोध हो गया था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]शत्रुनाश के उपरान्त वहि शत्रु से पुनः युद्ध रोकने के लिये वैवाहिक संबन्ध उत्तम कार्यनीति है
[2]जो उसकाल में हिंदु कुश पर्वत और आमू दरिया नदी के मध्य स्थित था
[3]धर्मानुकूल नियमों को दर्शानेवाले प्रस्तर स्तम्भ