चाणक्य की असाधारण प्रतिभा
चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त समान महानता और मनोवृत्ति वाले व्यक्ति थे। इसका साक्षात प्रमाण यह है कि अनेक वर्षों तक एक बृहत्साम्राज्य का उसके द्वारा सुचारु रुप से प्रबंधन किया गया । सात ही, अति महत्त्वाकांक्षी युद्ध प्रेमी सिकंदर के आक्रमण के प्रभाव को पूर्णरुपेण स्मृति पटल से ही मिटा दिया गया। इसी से ज्ञात होता है कि उनकी विकास की कार्य योजना कितनी प्रभावकारी थी। अपनी दृढ़ राष्ट्रीय अस्मिता भाव से प्रेरित उनका राष्ट्रप्रेम कितना उत्साह वर्धक रहा होगा यह स्वयं सिद्ध है। मुद्राराक्षस में एक प्रसंग दिया गया है जिसमें वैहीनरी (कञ्चुकी) चाणक्य की कुटिया को देख कर व्यंंगात्मक ढंग से कहती है – “अरे देखो! प्रधान मंत्री के वैभव को देखो![1]” और वह कैसा था? एक कोने में गाय के गोबर के कण्ड़े तोडने का पत्थर पड़ा था, दूसरे कोने में दर्भा घास का ढेर था जिसे युवा ब्रह्मचारी छात्र गण लाये थे, तीसरे कोने की छत झुकी हुई थी क्योंकि वंहा हवन की लकडियाँ (समिधा) इकठ्ठा कर रखी हुई थी जिसके कारण पुरानी दीवार धसक रही थी[2]।
ऐसा था चाणक्य का निवास स्थान ! यह प्रधान मंत्री के भवन का वैभव था! इसी कारण वह निस्संकोच राजाओं के सम्राट चन्द्रगुप्त से अपनी बात स्पष्टंतः कह सकता था। अपनी जाति के अनुगत अधिकारिक स्वर में, अपनी सुपरिचित शैलि में वह सम्राट को एक वचन में संबोधित करता था। इस प्रकार के व्यवहार करने के लिए पूर्णतः निस्वार्थभाव, प्रखरता और निश्चल प्रेम चाहिए। कुछ लोग निस्वार्थ तो हो सकते हैं किंतु उनमें वह बुद्धि कौशल नही होता है और वे हमें इस प्राचीन कहावत की याद दिला देते हैं – ‘कुछ लोग हमारा भलातो चाहते है किंतु वे मूर्ख है[3]’, वही दूसरी ओर इसके विपरीत कुछ बुद्धिमान तथापि स्वार्थी लोग हमें विपरीत कहावत याद दिलाते है – ‘कुछ लोग बुद्धिमान तो हैं किंतु वे हमारा भला नही चाहते[4]’। किंतु हमें दोनों की आवश्यकता है। सजगता और प्रेम साथ होना चाहिए। चाणक्य में यह दोनों गुण थे। चाणक्य और चन्द्रगुप्त की गाथा और साथ ही चाणक्य और अमात्यराक्षस के मध्य रणनीतियॉ और प्रतिरणनीतियॉ मात्र विशाखादत्त की कल्पना नहीं है, वह अनेक ग्रंथों में अभिलेख के रुप में प्रामाणिक तथ्य है – जैसे ‘कथासरित्सागर’, बृहत्कथामञ्जरी, बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, महावंश, परिशिष्ट पर्व, विष्णुपुराण, भविष्यपुराण आदि में विभिन्न विवरणों के साथ है। प्राचीन ग्रंथ ‘बृहत्कथा’ (जो अब विलुप्त है) के नवीन प्रस्तुतिकरण में दर्शाया गया है कि राक्षस अर्थात् वररुचि कात्यायन जो नंद साम्राज्य का मंत्री था उसे चाणक्य ने मगध साम्राज्य का पुनः प्रधान मंत्री नियुक्त कर दिया था। इस प्रकार क्षात्र को ब्रह्म का सहयोग किसी भी स्त्रोत से प्राप्त हो सकता है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए ताकि व्यवस्था को भरोसे योग्य और अच्छा बनाया जा सके।
चन्द्रगुप्त के सम्राट बनने के उपरांत चाणक्य ने साम्राज्य में अनेक आर्थिक परियोजनाओं का सूत्रपात किया। अपनी इन सभी योजनाओं तथा क्रियान्वयनों का अभिलेखन चाणक्य ने अपने ग्रंथ में किया है जो अर्थशास्त्र के नाम से ख्यात है। ग्रंथ के अंत में जिस स्पष्टता से उन्होने अपने विचार रखे है उससे सिद्ध होता है कि इनमे से कोई भी बिना अनुभव नही लिखा गया है और उस पर गहन मनन किया गया है – यंहा शास्त्र-शक्ति है, भूमि संसाधन है, शास्त्र वैचारिक आधार है[5] । उस साम्राज्य का भविष्य कैसा होगा जिसका शासन ऐसे दुष्ट राजा के हाथों में हो जो अपने बुद्धिबल का प्रयोग प्रजा की स्वतंत्रता को छिनने में करता है, अपनी शक्ति के बल से उनके हृदयों में भय का संचार पैदा करता हो, उन्हे असहाय बनाने में अपनी योग्यता का उपयोग करता हो अपनी क्षमता से हर किसी को स्वयं की इच्छा पूर्ति के लिए बाध्य करता हो तथा संसाधनों का उपयोग किसी को प्रलोभन से धोखा देने की योजना तथा कुटिल चालों के क्रियान्वयन हेतु करता हो ? यह सब उसी चाणक्य ने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में यथार्थतः दर्शाया है जिसकी क्रोधाग्नि में नंद साम्राज्य भस्मीभूत हो गया। अर्थशास्त्र के अनुसार –
“ज्ञान की अनेक शाखाओं के अध्ययन और परीक्षण के उपरांत जिसमें मात्र अर्थशास्त्र ही नही अपितु वेद, न्याय, धर्मशास्त्र, रत्नशास्त्र, हाथी और घोडों का अध्ययन, वनस्पति तथा औषधियों का अध्ययन तथा अन्य सैकड़ों विषयो का अध्ययन और उनके समुचित निष्पादन समाविष्ट है, मैने इस शास्त्र का निर्माण किया है जिसमें राजा के सर्वांगिण विकास के लिए सभी आवश्यक नियमों तथा समाधानों का वर्णन है[6]”।
“कौटल्य ने अर्थशास्त्र को बडी स्पष्टता के साथ भ्रम रहित शिक्षाप्रद रीति से सटीक तरीके से लिखा है[7]”
यह ग्रंथ किसी व्यक्ति की काल्पनिक रचना नही है अपितु इतिहासकारों ने इसके अनेक साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं। चाणक्य के संबंध में मैने न केवल मूल स्त्रोतों का अध्ययन किया है अपितु बाद के विद्वानों जैसे आर. श्यामशास्त्री, टी. गणपतिशास्त्री, आर. पी. कांगले, राधाकुमुदमुखर्जी तथा के.पी. जायसवाल आदि द्वारा की गई गहन शोधों के आधार पर मै स्पष्टतः कह सकता हूं कि उपर्युक्त कथन आधार हीन धार्मिक घोषणाऍ नहीं है। इसके अतिरिक्त मेरे इस पूरे लेखन का आधार रमेशचन्द्र मजूमदार द्वारा संपादित तथा प्रसिद्ध सांस्कृतिक संगठन जो सुयोग्य कुलपति के. एम.मुंशी के निर्देशन में चल रहा था ऐसे ‘भारतीय विद्याभवन’ द्वारा प्रकाशित ग्यारह भागों का विशाल ग्रंथ ‘द हिस्ट्री एण्ड़ कल्चर ऑफ इंडियन पीपल’ है। मेरा लेखन न तो किसी संप्रदाय से न किसी मठ से और न किसी कट्टर पंथी संगठन से प्रेरित है।
चाणक्य का कथन है :- यदि कोई विदेशी आक्रांता हम पर आक्रमण करता है तो वह हमारे देश की धनसंपदा को विशेष रुप से लूटता है और इसीके साथ वह सुनियोजित तरीके से लोगों पर अपने अत्याचारों का सिलसिला चलाता है। भूभाग पर अपनी प्रभुता की स्थापना कर अपने प्रतिष्ठान की शक्ति से कराधान तथा अन्य विविध तरीकों से नागरीकों को सताया जाता है। युद्ध के समाप्त होते ही लूटपाट का दौर प्रारम्भ हो जाता है। देश में जगह जगह अनेक अचानक धावे कर दिये जाते हैं। सैनिकों को पूरी छूट दे दी जाती है कि वे जो चाहे छीन ले। और तब नया सम्राट लोगों से कहता है – ‘आओ हम मिलकर सब व्यवस्थित कर लें’ और वह एक समझौता पत्र तैयार करवाता है – ‘तुम हमारे अधिनायकत्त्व को स्वीकार करते हो’, इस प्रकार अपने प्रशासन को स्थापित कर वह शीघ्र ही विविध करों का बोझ लोगों पर लगा देता है, हारे हुए लोगों का दमन कईं प्रकार के अत्याचारो के माध्यम से किया जाता है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]अहो महामात्यस्य विभूतिः (मुद्राराक्षस 3.15 के पेहले)
[2]उपलशकलमेतद्भेदकं गोमयानां
वटुभिरुपहृतानां बर्हिषां स्तूपमेतत् |
शरणमपि समिद्भिः शुष्यमाणाभिराभिर्-
विनमितपटलान्तं दृश्यते जीर्ण कुड्यम् || (मुद्राराक्षस 3.15)
[3]हितैषिणः सन्ति न ते मनीषिणः (भोजप्रबन्धम् 58)
[4]मनीषिणः सन्ति न ते हितैषिणः (भोजप्रबन्धम् 58)
[5]येन शस्त्रं च शास्त्रं च नन्दराजगता च भूः |
अमर्षेणोद्धृतान्यासंस्तेन शास्त्रमिदं कृतम् || (अर्थशास्त्र कारिका 382)
[6]सर्वशास्त्राण्यनुक्रम्य प्रयोगमुपलभ्य च |
कौटल्येन नरेन्द्रार्थे शासनस्य विधिः कृतः|| (अर्थशास्त्र कारिका 79)
[7]सुखग्रहण विज्ञेयं तत्त्वार्थपदनिश्चितम् |
कौटल्येन कृतं शास्त्रं विमुक्तग्रन्थविस्तरम् || (अर्थशास्त्र कारिका 1)