राष्ट्रकूट साम्राज्य का हरा भरा विस्तार
कन्नड लोगों के हृदय में बसने वाला एक प्रसिद्ध नाम नृपतुंग का है। श्री विजय के साथ अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘कविराजमार्ग’ की रचना करने के कारण अमोघवर्ष नृपतुंग की प्रसिद्धि अमर हो गई। यद्यपि वह क्षात्र प्रतिष्ठा संपन्न महान योद्धा था किंतु शांतिकाल में भी साम्राज्य को संतुलित प्रबंधन के साथ सम्हालने में वह सक्षम था।
उसकी राजवंशीय परम्परा अपनी क्षात्र चेतना के कारण सुविख्यात थी। राष्ट्रकूटों ने अनेक बार कन्नौज शासकों को हरा कर अपनी संपदा तथा उपहार वापस प्राप्त किये थे। इतिहासकार सूर्यकांत कामत के मतानुसार ‘हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ इंडिया’ ग्रंथ में दिया गया आलेख ‘द एज ऑफ इम्पीरियल कन्नौज’ का शीर्षक वास्तव में ‘द एज ऑफ इम्पीरियल राष्ट्रकूट’ होना चाहिए था। इससे ही हमें अमोघवर्ष नृपतुंग, उसके पूर्वजों तथा उसके वंशजों द्वारा अर्जित उपलब्धियों का अनुमान हो जाता है।
राष्ट्रकूटों ने मान्यखेट (कर्नाटक में आज का मलखेड) को अपनी राजधानी बना कर अपने साम्राज्य पर शासन किया था। अमोघवर्ष नृपतुंग (सन् 814-78) के शासन काल में ही श्री विजय द्वारा ‘कविराजमार्ग’ की रचना हो सकी थी। अन्य राज्यों पर आक्रमण करने का स्वभाव नृपतुंग में नहीं था। वह एक शांतिप्रिय तथा कल्याणकारी राजा था। जब उसके राज्य में महामारी का प्रकोप हुआ तो उसने कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर में अपनी एक उंगली की भेंट चढ़ा दी। ऐसी थी उसकी आत्म त्याग की भावना !! उसने सभी कवियों और विद्वानों को प्रश्रय दिया। उसने समान रूप से सभी दार्शनिक तथा धार्मिक मत-पंथों का सम्मान किया। उसके पूर्वज दन्तीदुर्ग, कृष्ण, ध्रुव, गोविन्द आदि महान योद्धा थे। कृष्ण प्रथम महान सम्राट था। ध्रुव अपनी अभेद्य सेना के साथ कन्नौज तक धावा करता रहा। इन्द्र तृतीय ने कन्नौज शासक को हरा कर (सन् 916) बडा खजाना तथा उपहार प्राप्त किये थे। उसके उत्तराधिकारी कृष्ण तृतीय ने परमारों तथा चोल राजाओं को हराकर अपने साम्राज्य को रामेश्वरम तक बढ़ा लिया था। राष्ट्रकूटों का ही एक महान राजा गोविन्द तृतीय अपनी सेना के साथ हिमालय तक पहुंच गया था।
विश्व प्रसिद्ध एलोरा की गुफाएं राष्ट्रकूटों द्वारा निर्मित है। अजंता की कलात्मक रचना में भी उनका सहयोग था। इन स्थानों की चित्रकला और शिल्पकला लगभग तीन सौ वर्षों तक चलती रही। एलोरा और एलिफेंटा का कला सौन्दर्य राष्ट्रकूटों के सौन्दर्य बोध को दर्शाता है। वास्तव में राष्ट्रकूटों में क्षात्र भाव और रसिकभाव का अद्भुत सामंजस्य था। भारत के स्वर्णिम युग के बाद के समय का इतिहास अनवरत रूप से सक्रियता भरा रहा है, उस समय की जानकारियों की अधिकता से दिमाग चकराने लगता है फिर भी उनसे जो काम की जानकारियां हमें प्राप्त हुई वह अपूर्ण तथा अपर्याप्त हैं। अतः हमें अपने लेखन में कवियों की कृतियों, भूदान तथा उपहार संबंधी अभिलेखों, विजय शिलालेखों, स्मरणार्थ लिखे गये शिलालेख तथा अभिलेख, शासको की प्रशंसा जीवनवृत, विदेशियों के यात्रा विवरणों आदि पर निर्भर रहना पड़ता है।
कवियों के अतिशयोक्ति पूर्ण लेखन तथा विदेशियों के पूर्वाग्रह युक्त विवरणों के कारण हमारे इतिहास लेखन में बडी बाधा उपस्थित हुई है[1]।
इतिहासकारों का कहना है कि भारत में बड़े स्तर पर आपसी लड़ाइयां होती रही थी। किंतु क्या यूरोप में आपसी युद्ध नहीं होते रहे? बीसवीं शताब्दी के दो महा युद्धों का भी क्या परिणाम रहा? स्पष्टतः आन्तरिक लड़ाइयां मात्र भारत तक ही सीमित नहीं है यह सर्वव्यापी मानवीय प्रकृति का ही एक अंग है। सभी आंतरिक लडाइयों और समस्याओं के बाद भी भारत की एकता बनी रही। हमारे इतिहास में इन आंतरिक विवादों को इतना महत्त्व पूर्ण इसलिए बना दिया गया क्योंकि इसकी तुलना अन्य देशों के आंतरिक युद्धों सो नहीं की गई थी, ताकि इस कारण से स्वयं हम अपनी ही दृष्टि में हीन भावना से भर जाये!!
किसी भी देश या संस्कृति के इतिहास का अध्ययन उस देश या संस्कृति के किसी विशिष्ट समय के अध्ययन मात्र तक ही सीमित नहीं रह जाना चाहिए, जब तक हम अन्य देशों और संस्कृतियों की समकालीन स्थितियों का तुलनात्मक अध्ययन नहीं करते है जब तक हमारा यह अध्ययन अधूरा रह जाता है। उदाहरणार्थ नौंवी शताब्दी में राष्ट्रकूटों की उपलब्धियों का सही सही मूल्यांकन करने के लिए हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि उस समय में यूरोप की क्या स्थिति थी? अफ्रीका के क्या हालात थे? या अमेरिका में क्या चल रहा था ? अतः ऐतिहासिक सत्य के सही मूल्यांकन हेतु एक व्यापक वैश्विक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। और यही सिद्धांत हमारे क्षात्र परंपरा के अध्ययन पर भी लागू होता है।
अपने अर्थशास्त्र के प्रारम्भ में ही कौटिल्य ने राजनीति के चार मूल तत्व बतलाये है – त्रयी, आन्वीक्षिकी, वार्ता तथा दण्डनीति। त्रयी अर्थात् पारम्परिक विवेक, आन्वीक्षिकी अर्थात् किसी भी समस्या या विषय का विधिवत सतर्कता पूर्ण विश्लेषण, वार्ता अर्थात् संसाधन तथा आर्थिकी तथा दण्डनीति में सैन्य तथा प्रशासकीय पक्ष का समावेश होता है। यद्यपि क्षात्र मुख्य रूप से दण्डनीति के साथ जुडा है तथापि दण्डनीति अन्य शेष तीन कारकों पर निर्भर करती है, अतः क्षात्र के लिए उपर्युक्त चारों तत्वों का सावधानी पूर्ण प्रबंधन तथा अंतर संबंध एक आवश्यकता है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]उदाहरणार्थ यात्री अब्दुल रज़ाक लिखता है “प्रौढ़देवराय के प्रति विद्रोह करने वाले समूह ने राजा सहित सभी प्रधानों को दावत पर बुला कर सबको मार डाला तथा राजा को भी इतना घायल कर दिया कि वह मरणासन्न हो गया” किंतु रज़ाक के इस कथन का आज तक कुछ भी प्रमाण किसी भी रूप में प्राप्त नहीं हो सका है।
इसी प्रकार चीनी बौद्ध यात्री इत्सिंग ने लिखा “भर्तृहरि ने सात बार सनातन धर्म से बौद्ध धर्म में और फिर पुनः सनातन धर्म में वापस की थी” जबकि इसका कोई प्रमाण नहीं है। इसी भर्तृहरि के ग्रंथ ‘वाक्यपदीय’ की टीका लिखने वाले विद्वान पुण्यराज तथा हेलाराज ने प्रशंसात्मक रूप से भगवान भर्तृहरि को सनातन धर्म का प्रसिद्ध अनुयायी बतलाया है।