हमारी दुर्बलताएँ
मुख्य रूप से हमारी दुर्बलता के दो पक्ष रहे है :- प्रथम तो यह कि हमने अपने शत्रुओं को हमारे द्वार तक आने दिया तथा दूसरा यह कि हमने युद्ध के संबंध में विकसित रणनीतियों तथा शस्त्र विज्ञान की नवीनतम जानकारियों से स्वयं को अवगत नहीं रखा। इसी के साथ हमारे आपसी कलह ने इन दो कमजोरियों को हमारी पराजय का मुख्य कारण बनाया।
कुछ इतिहासकारों का यह मत है कि “जब विदेशी आक्रमण कर्ता हिमालय की घाटियों को पार कर हमारे देश में प्रवेश करते रहे थे तो उस समय पर्वत शिखरों से उन पर आक्रमण कर उन्हे नष्ट करना बड़ा आसान था परन्तु हमने शत्रुओं को गंगा और सिंधु नदियों के मैदानी क्षेत्र में बिना अवरोध आने दिया जहां उन्होंने हमारे लिए संकट पैदा कर दिया। भारतीय राजाओं की यह विवेकहीनता समझ के बाहर है”। संभवतः यह प्रमाद युक्त सुखभोगी मानसिकता इस भूमि द्वारा प्रदत्त समृद्धि के कारण रही थी। यदि हम सतत रूप से संघर्ष करते है तो हम सतत रूप से सतर्क रहते हैं किंतु हमारा बाहुल्य ही हमारी सतत सतर्कता की राह में घातक अवरोध सिद्ध हुआ। इसी प्रकार हमारे राजाओं ने अपने सैन्य शस्त्रागार तथा युद्ध रणनीतियों का आधुनिकीकरण नही किया। सैन्य बल मुख्य रूप से गज-सेना पर निर्भर था, अश्व सेना की संख्या और शक्ति दोनों ही तुलनात्मक दृष्टि से कम थी। हमने अच्छी नस्ल के युद्ध में प्रयुक्त घोड़ों की प्रजातियों को विकसित नहीं किया। हमारी अश्वसेना जो सेना की गति और शक्ति बढ़ाती है वह संतोषप्रद नहीं थी। मध्यकाल में हमारे भारतीय राजाओं को विदेशियों पर नवीनतम तन्त्रज्ञान के लिए निर्भर रहना पडता था। बिना स्थानीय प्रौद्योगिकी विकास के कोई भी शासन कैसे एक दक्ष प्रशासकीय व्यवस्था दे सकता है? जब भी भारतीय सम्राट विजेता के रूप में उभरे थे तब तब वे प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी शक्ति संपन्न रहे थे। चाणक्य के अर्थशास्त्र के अनुसार प्राचीन भारत का सैन्य संगठन निम्न छः अंगों पर आधारित था :-
मूल :- राजा के सीधे आधिपत्य में रहने वाला स्थायी क्रियाशील सैन्य बल
भृतक :- विभिन्न क्षेत्रों से भर्ती भाड़े के सैनिक
मित्र :- मित्र राज्यों की सेना
अमित्र :- शत्रु सेना से विद्रोह कर के आने वाली सैनिक इकाई तथा युद्ध बंदियों को भविष्य के युद्धों में सैनिक के रूप में भर्ती करना।
श्रेणिक :- व्यापारियों तथा अन्य संगठनों की निजी सेनाएं
आटविक :- जंगल के शिकारियों की लड़ाकू सेना
अनेक अवसरों पर उपयुक्त सभी भिन्न भिन्न इकाइयों को एक शासक के अधीन एकत्रित कर लडने में अथवा विभिन्न अनुशासित नेतृत्त्व के पारस्परिक सहयोग से युद्ध में अधिकतम लाभप्रद स्थिति प्राप्त कर पाना संभव नहीं रहा है। ऐसा भी पाया गया है कि एक ही नेतृत्व में एक छोटे से सैन्य बल ने जो पूर्णतः अनुशासित तथा दक्ष रहा है, बड़ी संख्या वाली अनुशासनहीन, मनमौजी सेना को अथवा नेतृत्व हीन सेना को हराने में सफलता प्राप्त की है।
प्राचीन काल से ही हमारे यहां धर्म-युद्ध के सिद्धांत को मान्यता प्रदान की गई है। हमारे सभी धर्म शास्त्रों के रचीयताओं ने युद्ध के संबंध में कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है ताकि युद्ध से उत्पन्न क्रूरता, मृत्यु संख्या, बदले की भावना और उत्पीड़न को न्यूनतम किया जा सके[1]। शत्रु शिविर में आग न लगाई जावे, शत्रु को जहर न दिया जावे, जहरीले शस्त्रों का उपयोग न हो, जो शत्रु – शास्त्र विहीन हो, दुःखी हो, डरा हुआ हो, भाग रहा हो, घायल हो उसकी हत्या न की जावे। मनु के अनुसार यह एक योद्धा का शाश्वत धर्म है। इसके अतिरिक्त विजय उपरांत एक राजा को कैसा व्यवहार करना चाहिए उसका भी विस्तृत विवरण दिया गया है[2]।
पराजित देश के नागरिकों को सताया नहीं जावे, समाज के सभी वर्गों में साहस का संचार भरा जाए, उन्हें ढांढस बंधाया जावे, तथा संसाधन उपलब्ध करवा कर निश्चिंत किया जावे। यदि प्रजाजनों की इच्छा हो तो हारे हुए राजवंश के किसी व्यक्ति को ही विजेता राजा का प्रतिनिधित्व करने का कार्य सौंप दिया जावे। अन्य शास्त्रों की अपेक्षा उक्त सिद्धांतों का वर्णन महाभारत, याज्ञवल्क्य स्मृति तथा अर्थशास्त्र में विशेष रूप से दिया गया है।
कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध में ; रात्रिकाल में, सुबह शंखनाद के पहले तथा संध्या शंखनाद के बाद युद्ध प्रतिबंधित था। जो युद्ध में भाग नही ले रहे थे उन्हें घायल करना असमान के मध्य युद्ध, आदि वर्जित थे। ऐसे तथा इसी प्रकार के कई अन्य प्रतिबंधों को हमारे क्षत्रिय योद्धाओं ने माना था। इसके अतिरिक्त पराजित देश के विरुद्ध आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अत्याचार पर विशेष रूप से प्रतिबंध था। इसी प्रकार के अनेक युद्ध संबंधी सिद्धांतों का पालन भारत में किया गया जहां दोनों पक्ष इन मान्यताओं से सहमत रहे थे किंतु इस्लाम, ईसाई और साम्यवादियों की हिंसक एवं निर्दय नीतियों में ऐसे किसी भी सिद्धांत को कोई मान्यता नहीं दी गई है।
यह एक ऐसा मौलिक और मूलभूत सत्य है जिसे आज भी भारतीय जनमानस समझ नहीं सका है। यह भी भारतीय क्षात्र चेतना के पराभव का एक मुख्य कारण रहा है। यह सत्य है कि हमारे शासक भी इन सिद्धांतों को पूरी ईमानदारी के साथ पाल नहीं पाए और उसमें यदा कदा विचलन होता रहा जिससे कुछ प्रमाण महाभारत में भी मिलते हैं तथापि यह स्मरणीय है कि इन मान्यताओं को भारत के स्वर्णिम काल तक व्यापक रूप से व्यवहार में लाया जाता रहा है।
जैसे जैसे मानवीय समाज सुसभ्य और परिष्कृत होता जाता है तो हिंसा भाव घटता है और करुणा भाव बढ़ता जाता है। कुछ प्रकरणों में सच्चे क्षात्र भाव की कठोरता आवश्यक हो जाती है। यहां तक कि सबसे सभ्य और प्रबुद्ध लोगों को भी आत्मरक्षा तथा देश की सुरक्षा के लिए शौर्य भाव की तीव्रता को बनाये रखना आवश्यक है। मात्र अपना जीवन आहूत कर देना ही पर्याप्त नहीं है, शत्रु के प्राण हरने की क्षमता रखना भी आवश्यक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के संग्राम काल में हमारे इतिहास को इस दृष्टि से प्रस्तुत करने की आवश्यकता थी और वह आज भी है। और ऐसा न हो पाना अत्यंत दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है। यदि आज भी हम इस दिशा में सही ढंग से नहीं सोच पाए तो हमारा अस्तित्व पूर्णतः संकटग्रस्त है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]मनुस्मृति 7. 90-98 में कुछ सिद्धांतों का वर्णन है।
[2]मनुस्मृति 7. 201-3